जिन्ना का जिन्न ! ...कांग्रेस मुजरिम !!
...तो पाकिस्तान के वालिद मोहम्मद अलि जिन्ना का जिन्न उनकी कब्र से
निकल कर भारत आ गया है और कांग्रेसी नेताओं के सिर पर सवार हो कर यहां
के सियासी गलियारों में घूमने लगा है । कांग्रेस के अनेक लोग उसका
स्तुति-गान करने में जुट गए हैं । चुनावी जोश में आ कर पटना के एक
नये-नये कांग्रेसी ने मुस्लिम मतदाताओं को अपनी तरफ रिझाने के लिए
पाकिस्तान के निर्माता- जिन्ना के प्रति प्यार व प्रेम का इजहार किया
है । अभिनेता से नेता और भाजपाई से कांग्रेसी बने उस बिहारी शख्स ने अपनी
फिसली हुई जुबान से यहां तक कह दिया कि “कांग्रेस असल में जिन्ना की ही
पार्टी है” । बिल्कुल सच कहा है । जिसके सिर पर जिन्न सवार हो जाता है,
उसके मुख से सच निकलने ही लगता है । सच यही है भी । पाकिस्तान का निर्माण
करने वाले जिन्ना की पार्टी कांग्रेस ने ही जिन्ना को मुस्लिम लीग के मंच
पर धकेल कर भारत का विभाजन किया-कराया । जिन्ना घोर कांग्रेसी थे और उस
जमाने में कांग्रेस को सर्वाधिक- प्रतिमाह एक हजार रुपये चन्दा दिया करते
थे । वे जब तक कांग्रेस में रहे, बाल गंगाधर तिलक का अनुगामी बन कर
प्रखर राष्ट्रवादी बने रहे और कांग्रेस को साम्प्रदायिक तुष्टिकरण व
मुस्लिम-आरक्षण एवं खलिफात आन्दोलन का राष्ट्रघाती जहर फैलाने से रोकते
रहे । लेकिन तिलक जी के निधनोपरान्त गांधी-नेहरु की कांग्रेस ने
मुस्लिम-तुष्टिकरण के बावत सम्प्रदायवादी अली-बन्धुओं को अपना कर
राष्ट्रवादी जिन्ना को कांग्रेस से बाहर हो जाने के लिए विवश कर दिया ।
जिन्ना सियासत छोड कर लन्दन में वकालत करने लगे और कांग्रेस से अपने उस
राजनीतिक अपमान का बदला लेने के लिए ‘कांट को कांट से निकालने’ की नीति
के अनुसार जुग्गत भिडाने लगे, जिसके बावत उन्हें मुस्लिम लीग से ज्यादा
मुफिद और कोई नहीं दिखा, क्योंकि लीग को भी जिन्ना जैसे वकिल की ही
जरुरत थी । फिर तो वकिल और मुवक्किल दोनों मिल कर कांग्रेस को नाच नचा
दिए । अन्ततः पाकिस्तान बनवा कर जिन्ना जीत गए और भारत का विभाजन करा कर
कांग्रेस हार गई ।
ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि कभी मुस्लिम-आरक्षण-तुष्टिकरण के
सर्वाधिक मुखर विरोधी रहे जिन्ना को साम्प्रदायिक अलगाववादी बनाने का काम
कांग्रेस ने ही किया था । उन दिनों के ख्यात पत्रकार-लेखक मेंड्रेल मून
की पुस्तक ‘डिवाइड एण्ड क्विट’ में लिखा है- “एक बार जिन्ना ने लाहौर में
अपने एक मित्र को बताया था कि कांग्रेस द्वारा किये गए अपमान का बदला
लेने के लिए तथा जिस कांग्रेस (नेहरु) ने पूर्व में उसकी राजनीतिक हैसियत
मिटा देने की कोशिश की थी, उसे नीचा दिखाने के लिए सौदेबाजी का एक उपक्रम
एवं एक राजनीतिक कदम है पाकिस्तान का उसका प्रस्ताव । दरअसल, कांग्रेस
से अपनी शर्तें स्वीकार कराने के लिए ‘पकिस्तान-प्रस्ताव’ तो जिन्ना के
हाथ में ‘तुरुप के पत्ते’ जैसा था ”। एक इतिहासकार शार्दूल सिंह कन्नीकर
ने भी अपनी पुस्तक ‘गांधिज्म वर्शेस कॉमनसेंस’ में लिखा है- “वास्तव में
नेहरु के व्यवहार ने जिन्ना को कांग्रेस पर हमला करने तथा मुस्लिम लीग को
भारतीय सत्ता-प्रतिष्ठान में एक प्रतिद्वंदी के रुप में स्थापित करने के
बावत उसे एक औजार दे देने का काम किया” । जाहिर है, उसी औजार से
पाकिस्तान का निर्माण हुआ । जिन्ना का कांग्रेसी होना जितना सत्य है,
उतना ही सत्य यह तथ्य भी है कि पाकिस्तान का निर्माण कांग्रेस ने ही किया
। जिन्ना और मुस्लिम लीग ने तो सन १९४५ में ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की
कैबिनेट मिशन योजना स्वीकार कर पाकिस्तान की मांग ही वापस ले ली थी,
किन्तु नेहरु-कांग्रेस ने उसे मानने से इंकार कर दिया था । “पार्टिशन
ऑफ इण्डिया – लिजेण्ड एण्ड रियलिटी” नामक पुस्तक में इतिहासकार एच०एम०
सिरचई ने लिखा है- “यह तथ्य प्रामाणिक रुप से स्पष्ट है कि वह कांग्रेस
ही थी, जो देश-विभाजन चाहती थी ; जबकि जिन्ना तो वास्तव में विभाजन के
खिलाफ था, उसने द्वितीय वरीयता के रुप में पाकिस्तान को स्वीकार किया था”
। ब्रेन लापिंग ने भी अपनी पुस्तक ‘एण्ड ऑफ एम्पायर’ में लिखा है कि
“जिन्ना ने मुस्लिम लीग की ओर से पाकिस्तान का प्रस्ताव पेश जरूर किया
था, किन्तु वह खुद पाकिस्तान के लिए न इच्छुक था , न आशान्वित । जब
अंग्रेज भारत छोड जाने का फैसला कर चुके थे, तब जिन्ना ने अपनी कठोर
सौदेबाजी की मुद्रा त्याग दिया, ताकि मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों में लीग के
लिए सत्ता और केन्द्रीय शासन में स्वयं के लिए महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त
कर सके” । लॉपिंग के अनुसार , “जिन्ना द्वारा कैबिनेट मिशन की स्वीकति यह
बताती है कि वो जिस चीज को प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था, वह थी
भारत-सरकार में अपने लिए महत्वपूर्ण भूमिका, न कि एक अलग राज्य-
पाकिस्तान । इसीलिए जिन्ना व लियाकत अलि खान तथा उनकी मुस्लिम लीग ने
पाकिस्तान की मांग वापस ले लिया था और कम से कम जिन्ना ने तो यह कभी चाहा
ही नहीं था । निर्णायक कदम , जिसने उस मुकाम पर पाकिस्तान की स्थापना को
सम्भव बना दिया, उसका श्रेय जिन्ना की लीग को नहीं , बल्कि कांग्रेस के
नेहरु को जाता है । नेहरु ने बडी तेजी से इस बात को महसूस किया कि जिन्ना
कैबिनेट मिशन से प्रस्तावित सत्ता के बंटवारे में आनुपातिक रुप से एक
बडा हिस्सा प्राप्त कर सकता है, जिसके कारण उनकी स्थिति कमजोर हो सकती
है” । मालूम हो कि उस दौर में कांग्रेस को पूरी तरह से अपनी गिरफ्त में
ले चुके नेहरु अपने राजनीतिक मुकाम को निष्कण्टक बनाने के लिए पाकिस्तान
का निर्माण कर देने के प्रति स्वयं ही ज्यादा उत्सुक थे । इसकी पुष्टि
उन्हीं की लिखी उस डायरी से होती है , जिसे उन्होंने अहमदनगर किला करावास
के दौरान लिखा था । अपनी उस डायरी में उन्होंने स्वयं ही लिखा है- “मैं
सहज वृति से ऐसा महसूस करता हूं कि जिन्ना को भारतीय राजनीति से दूर रखने
के लिए हमें पाकिस्तान अथवा ऐसी किसी भी चीज को स्वीकार कर लेना ही बेहतर होगा” । इन तमाम ऐतिहासिक तथ्यों से यह स्पष्ट है कि भारत-विभाजन और उसके साथ हुए भीषण कत्लेआम का सारा श्रेय कांग्रेस के माथे पर ही है, जिस पर अब जिन्ना का जिन्न सवार हो चुका है । राष्ट्रवादी से अलगाववादी बन
कलंकित हो चुके जिन्ना का वह प्रतिशोध शायद कांग्रेस को विभाजन का असली
मुजरिम सिद्ध कर उसे मिटाये बिना ठ्ण्डा नहीं हो सकता । इसीलिए कायदे आजम का जिन्न समय-समय पर भारत आते रहता है । फिर आया है, जिसे इस बार चुनावी लाभ के लिए कांग्रेस के लोग ही ढो रहे हैं ; किन्तु उन्हें नहीं मालूम कि
जिन्ना की कब्र से निकल आया यह जिन्न कांग्रेस की कब्र भी खोद सकता है ।
• मनोज ज्वाला ; अप्रेल’ २०१९
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