कांग्रेस के ऐतिहासिक सत्य का एक अनैतिक तथ्य


अधिकतर कांग्रेसी नेताओं को भारत माता के प्रति भक्ति एवं भारतीय
राष्ट्रवाद के प्रति निष्ठा से चिढ आखिर क्यों होती है ? लाला लाजपत राय,
बाल गंगाधर तिलक व विपिनचन्द्र पाल (लाल-बाल-पाल) के त्रिवेणी के अवसान
और महात्मा गांधी के तिरोधान के बाद की कांग्रेस भारतीय राष्ट्रवाद की
सनातन धारा से सर्वथा दूर ही रही है । इसका असली कारण दरअसल कांग्रेस की
नींव में ही बीज रुप में छिपा हुआ है । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का
जन्म एक ‘अभारतीय’ अंग्रेज हुक्मरान के दिमाग से हुआ, यह एक ऐतिहासिक
सत्य है , किन्तु इसका डी०एन०ए० बडा अनैतिक है, जिसके भीतर एक मजेदार
तथ्य छिपा हुआ है । इसे बहुत कम ही लोग जानते हैं । अधिकतर लोग महज इतना
ही जानते हैं कि कांग्रेस का संस्थापक अंग्रेज स्वयं ब्रिटिश शासन का एक
क्रूर प्रशासनिक अधिकारी था, जो सन १८५७ में उतर प्रदेश के इटावा जिले का
डिप्टी कमिश्नर हुआ करता था । वह सन १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की
भीषण आक्रामकता के दौरान अपनी जान बचाने के लिए स्त्री-वेश धारण कर
जैसे-तैसे भाग खडा हुआ था, किन्तु वह ऐसा क्रूर अधिकारी था कि छह महीने
बाद आगरा से पुनः इटावा लौटने पर १३१ विद्रोहियों को फांसी पर लटकवा दिया
था । बाद में ब्रिटिश सरकार की नौकरी से सेवानिवृति के तीन साल बाद ऐलन
आक्टोवियन ह्यूम नामक वही अंग्रेज प्रशासक भारतीयों के लिए परिश्रमपूर्वक
एक राजनीतिक संगठन की स्थापना कर वर्षों तक उसका महासचिव बना रहा, जिसके
बडे गहरे निहितार्थ थे । ह्यूम ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध भारत में १८५७
की पुनरावृति न हो , इसकी सुनियोजित व्यवस्था के तहत ब्रिटिश हुक्मरानों
की राय से उनके साम्राज्य के हितपोषण हेतु योजनापूर्वक काफी सोच-समझ कर
कांग्रेस की स्थापना की थी । इस सत्य व तर्क की पुष्टि ह्यूम की जीवनी
लिखने वाले उसके सहयोगी विलियम बेडरबर्न की पुस्तक से भी होती है ।
बेडरवर्न ने लिखा है कि “ सेवानिवृति से पूर्व ह्यूम को विभिन्न स्रोतों
से ऐसी प्रामाणिक जानकारियां मिल गई थीं कि भारत में अंग्रेजी शासन के
विरुद्ध फिर से भयानक स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं । वे प्रमाण, जिनसे
उसे भीषण खतरनाक भय का ज्ञान हुआ था, सात बडे-बडे वौलूम में दर्ज थे,
जिनमें तीस हजार से भी अधिक सूचनाएं संकलित थीं । उन सूचनाओं से उसे यह
ज्ञात हुआ था कि आम लोग असंतोष की भावना से उबल रहे थे, जिन्हें तत्कालीन
परिस्थिति में ऐसा विश्वास होने लगा था कि उन्हें शासन के विरुद्ध कुछ
करना चाहिए । ह्यूम ने यह महसूस किया कि भारतीयों के उस असंतोष को भीतर
ही भीतर सुलगने नहीं देना चाहिए , बल्कि उसे शांतिपूर्वक विसर्जित हो
जाने के लिए एक ‘सेफ्टी वाल्व’ का निर्माण करना चाहिए ।” महान स्वतंत्रता
सेनानी लाला लाजपत राय के शब्दों में - “भारत में उभर रहे राष्ट्रवाद के
सम्भावित परिणामों से घबरा कर ब्रिटिश हूक्मरानों ने ह्यूम के हाथों
कांग्रेस नामक अखिल भारतीय संगठन की स्थापना करायी ताकि राष्ट्रीयता के
उभार को ब्रिटिश साम्राज्य का विरोधी होने के बजाय सहयोगी बना लिया जाए
।” यहां यह भी गौरतलब है कि कांग्रेस की स्थापना के पहले से ही ब्रिटिश
शासन-विरोधी राष्ट्रीयता आकार लेने लगी थी, जो १८५७ में कुचल दिए जाने के
बावजूद साधु-संतों द्वारा किए जा रहे जनजागरण से व्यापक होती जा रही थी ।
उधर स्वामी दयानन्द सरस्वती का ‘आर्य समाज’ अंग्रेजी शासन-शिक्षण और ईसाई
धर्मान्तरण के विरुद्ध मोर्चा खोल ही चुका था । ह्यूम के जीवनीकार
बेडरवर्न, जो कई बार कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे थे , लिखते हैं कि
ब्रिटिश शासन के विरुद्ध देश भर में साधु-महात्मा इस प्रकार के असंतोष को
फैलाने में सक्रिय थे । उन्होंने लिखा है- “ कुछ धर्मगुरु (साधु-महात्मा)
जो ह्यूम के सम्पर्क में आए थे, यह कहते थे कि उन जैसे लोगों (ह्यूम
जैसे) , जिनकी सरकार तक पहुंच है , के तरफ से सुधार और आम शिकायत को लेकर
कुछ किया जाना चाहिए ; अन्यथा बहुत भीषण व भयंकर उपद्रव खडे हो जाएंगे ।”
ऐसे में ह्यूम ने पुनः निर्मित वैसी परिस्थिति में अपनी छवि
चमकाने की गरज से काफी सोच-समझ कर ब्रिटिश शासन को १८५७ जैसी
विद्रोहपूर्ण स्थिति की पुनरावृति से बचाने की योजना पर ‘ब्रिटिश
सेक्रेटरी आफ स्टेट’ की मुहर लगवा कर वायसराय- डफरिन की सहमति से
कांग्रेस नामक राजनीतिक संगठन की स्थापना को अंजाम दे दिया । इस हेतु
उसने लगभग दो वर्षों तक भारत भर में घूम-घूम कर और चुनिंदे अंग्रेजी
राजभक्त, प्रभावशाली व राजनीति-प्रेमी लोगों को जमा कर एक बंगाली ईसाई
व्योमेश चन्द्र बनर्जी की अध्यक्षता में ‘इण्डियन नेशनल कांग्रेस’
(भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस) नामक संगठन की स्थापना को अंतिम रूप दे
दिया ।
किन्तु कांग्रेस की स्थापना के भीतर का सर्वाधिक अनैतिक तथ्य
बडा ही मजेदार है । अंग्रेजी भाषा पढने-लिखने-बोलने की निपुणता और
ब्रिटिश महारानी के प्रति असंदिग्ध निष्ठा उस कांग्रेस की सदस्यता की
प्रमुख शर्तें रखी गयीं थीं । दूसरी शर्त ज्यादा महत्वपूर्ण थी, जिसके
प्रति कांग्रेसियों के मानसिक अभ्यास हेतु बैठकों-सभाओं में ब्रिटिश
महारानी और साम्राज्य के दीर्घायुष्य की कामनायुक्त जयकारा लगाने का
अनिवार्य नियम बनाया गया था । इस नियम के प्रति ह्यूम इतना आग्रही था कि
उसने स्थापना-सभा के समापन पर ह्यूम ने उपस्थित प्रतिनिधियों से कहा कि “
वह स्वयं ब्रिटिश-महारानी की जूतियों के फीतों के बराबर भी नहीं है ,
किन्तु उससे एक अपराध हो गया कि वह सभा के आरम्भ में उनकी जयकारी करना
भूल गया ; इसलिए सभी सदस्य प्रायश्चित-स्वरुप तीन बार ‘महारानी
विक्टोरिया की जय’ बोलें ।” लिहाजा , सारे लोग यह अनैतिक बोल बोले ।
किन्तु ह्यूम इतने से भी अपराध-मुक्त हुआ नहीं समझा, इसलिए उसने तीन का
तीनगुणा अर्थात नौ बार और फिर उसका भी तीनगुणा यानि सताइस बार उन लोगों
से महारानी की ‘जय’ बोलवाया ।
अंग्रेजी शासन के विरुद्ध देश भर में फैल रहे राष्ट्रीयतापूर्ण
जनाक्रोश को विद्रोहजनक रूप लेने से पहले ही उसे राजनीतिक सुलह-समझौतों
में उलझा कर ब्रिटिश साम्राज्य को निरापद बनाने हेतु स्थापित कांग्रेस
दरअसल ब्रिटिश हुक्मरानों की आवश्यकता थी । तभी तो स्थापना के बाद
कांग्रेस के लगातार कई अधिवेशनों के आयोजन में परिवहन से लेकर
प्रतिनिधियों के भोजन-शयन-भ्रमण तक की सारी व्यवस्था में ब्रिटिश सरकार
उसे पर्याप्त सहयोग-संरक्षण देती रही थी । ऐतिहासिक दस्तावेजों से मिली
जानकारी के अनुसार कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में आये प्रतिनिधियों को
सरकारी स्टीमरों में बैठा कर अरब सागर की सैर करायी गयी थी और एलिफैन्टा
की गुफाओं में घुमने के आनन्द से सराबोर किया गया था । कलकता में हुए
उसके दूसरे अधिवेशन में आए सभी प्रतिनिधियों को तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय
लार्ड डफरिन की ओर से शानदार मंहगे भोज दिए गए थे । जबकि , मद्रास के
तीसरे अधिवेशन के दौरान सारे प्रतिभागियों को वहां के गवर्नर की ओर से
एक सरकारी परिसर में ‘गार्डन-पार्टी’ दी गई थी । बाद में ब्रिटिश
शासन-विरोधी जनाक्रोश की धार उसी कांग्रेस की अंग्रेज-प्रायोजित
कारगुजारियों के कारण भोथरी हो गई , अर्थात विद्रोहजनक स्थिति की
सम्भावना समाप्त हो गई , तब ब्रिटिश शासकों ने अपनी कूटनीति के तहत
कांग्रेस को प्रत्यक्ष सहयोग देना बंद कर दिया । किन्तु , वही अंग्रेज
जब भारत छोड कर वापस जाने लगे तब उनने सत्ता की वाजीब दावेदार आजाद हिन्द फौज के बजाय अपनी उसी कांग्रेस को सत्ता सौंपना मुनासिब समझा जिसकी रचना उनने अपनी एक कूटनीतिक चाल के तहत बहुत पहले से कर रखी थी- ।
* मनोज ज्वाला ; अप्रेल' २०१९