राजनीतिक इतिहास और ऐतिहासिक राजनीति के
एक प्रयोगधर्मी राजनीतिज्ञ
अटल बिहारी बाजपेयी भारत के ‘राजनीतिक इतिहास’ और भारतीय लोकतंत्र की
‘ऐतिहासिक राजनीति’ का एक महत्वपूर्ण अध्याय बन चुके हैं । ऐसा अध्याय ,
जिसकी पठनीयता की महत्ता बीतते समय के साथ बढती जाएगी । बीते साठ वर्षों
तक देश की राजनीति में बहुविध प्रकार से सक्रिय रहने वाले बाजपेयीजी के
अवसान से अब अनेकानेक रिक्ततायें कायम हो गई हैं, जिनकी भरपाई शायद ही
कभी हो पाए । बाजपेयी जी का व्यक्तित्व बहुत विराट था, क्योंकि वे एक साथ
कई-कई आदर्शों को जीते रहे थे और अनेकानेक विचारधाराओं के बीच सेतु का
निर्माण करते रहे थे ; किन्तु उद्देश्य उनका एक ही था- भारत राष्ट्र का
उत्त्कर्ष । वे राष्ट्रवादी राजनेता के साथ-साथ एक प्रखर पत्रकार , कुशल
सम्पादक, तेजस्वी लेखक एवं ओजस्वी कवि तो थे ही, गम्भीर चिन्तक व विचारक
भी थे । और, इन सबसे बढ कर वे एक दक्ष संगठक भी थे । दुनिया के सबसे बडे
लोकतंत्र में गठबन्धन की राजनीति का सफल प्रयोग करने वाले वे इकलौते ऐसे
‘राजपुरुष’ (स्टेट्समैन) थे, जिन्होंने गैर-कांग्रेस दलों को राजनीतिक
मुकाम तक पहुंचा कर विपक्ष से सत्ता को साधने और सत्ता-पक्ष को विपक्ष
में तब्दील कर देने का कीर्तिमान स्थापित किया । इस अर्थ में वे सफल
प्रयोगधर्मी थे और इसी कारण उनकी राजनीति ऐतिहासिक सिद्ध होती है ।
क्योंकि उनके उस प्रयोग से पहले भारत में जो भी गैर-काग्रेसी सरकारें बनी
थी, वो सब वास्तव में कांग्रेस के भीतर से ही निकले हुए कांग्रेसियों की
ही सरकारें थीं और उनमें से कोई भी पांच साल का निर्धारित कार्यकाल पूरा
नहीं कर सकी थी, बल्कि बीच में ही असफल होती रही थीं । विशुद्ध
गैर-कांग्रेसी सफल सरकार स्थापित करने और उसे सफलतापूर्वक संचालित काने
का श्रेय तो बाजपेयी जी के नाम ही दर्ज है ।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की संगठनशाला और उसकी वैचारिकी से निकल
कर डा० श्यामा प्रसाद मुखर्जी एवं पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के साथ
‘भारतीय जनसंघ’ नामक राजनीतिक दल स्थापित कर उसे देश की सत्तासीन
कांग्रेस के विरूद्ध एक प्रमुख विपक्ष के रुप में खडा कर आपातकाल के
दौरान सन १९७७ में उसे ‘जनता पार्टी’ में विसर्जित कर देने और ढाई तीन
साल बाद ही सन १९८० में भारतीय जनता पार्टी नामक एक नया राजनीतिक संगठन
खडा कर उसे महज २० वर्षों बाद ही देश के सबसे बडे दल के रुप में विकसित
कर दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र की सत्ता पर काबिज कर देना कोई सामान्य
काम नहीं था । यह तो संघ से निर्मित उनकी सांगठनिक दक्षता के कारण ही
सम्भव हो सका । हालाकि भाजपा को सत्तासीन करने के लिए बाजपेयी जी को तब
अन्य २४ विरोधी दलों का साथ ले कर कांग्रेस के विरूद्ध एक प्रभावशाली
गठबन्धन भी कायम करना पडा था । किन्तु यह भी उनके सर्वस्वीकार्य
व्यक्तित्व का ही प्रतिफल था कि विभिन्न विचारधाराओं वाले दो दर्जन दल भी
उनके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन’ (राजग/एन०डी०ए०) में कायम रहे । वह
गठबन्धन वास्तव में परस्पर-शत्रु जीवों का एक ऐसा शिव-परिवार था कि जिसके
मुखिया राष्ट्र-हितार्थ विषपान करते रहने वाले शिव के समान अटल ही थे ।
दुनिया के सबसे बडे लोकतान्त्रिक देश में ‘गठबन्धन की सरकार’
का सफल प्रयोग करने का श्रेय अटल बिहारी बाजपेई को यों ही नहीं जाता है,
बल्कि उसके और भी कई कारण हैं । उनकी वह गैर-कांग्रेसी सरकार पूरे पांच
वर्षों तक बिना किसी झंझट के सफलतापूर्वक न केवल चली, बल्कि उसने देश को
भी ऐसे चलाया कि विश्व-मंच पर भारत एक परमाणु-सम्पन्न राष्ट्र के रुप में
स्थापित हो गया और तमाम अमेरिकी प्रतिबन्धों का भी डट कर सामना किया ।
इतना ही नहीं , जो कांग्रेस कभी देश की केन्द्रीय सत्ता का पर्याय मानी
जाती थी, उस कांग्रेस को भी बाजपेयीजी के उस प्रयोग से सत्ताच्यूत हो
जाने के बाद पुनः सत्तासीन होने के लिए उसी ‘अटल-प्रयोग’ का सहारा लेना
पडा- ‘संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन’ (यु०पी०ए०) बनाना पडा । अटल बिहारी
बाजपेई के उस ‘अटल प्रयोग’ की सफलता का कारण उनका सर्वस्वीकार्य
व्यक्तित्व और सर्वसमावेशी विचार ही था । सचमुच वे एक ऐसे व्यक्तित्व से
सम्पन्न थे, जो देश में सबको स्वीकार्य थे, वे दलगत संकीर्णताओं से ऊपर
एकदम पारदर्शी थे, राजनीतिक विरोधियों को भी सम्मान देते थे और उनसे
स्वयं भी खूब सम्मान पाते थे । आज राजनीति में ऐसी सर्वस्वीकार्यता और
पारदर्शिता समाप्त होती जा रही है । मुझे तो लगता है कि बाजपेयी जी के
निधन के साथ राजनीति में सर्वस्वीकार्यता का भी अवसान हो गया । इतिहास का
‘बाजपेयी-अध्याय’ और जिन कारणों से पलटा जाता रहेगा, उनमें से एक- भारतीय
भाषा-संस्कृति के प्रति उनकी ‘अटल निष्ठा’ भी है । संयुक्त राष्ट्र संघ
जैसे वैश्विक मंच पर सर्वप्रथम हिन्दी में भाषण कर के और भारतीय संस्कृति
को भारतीय राष्ट्रीयता के रुप में निरुपित कर के अटल जी ने हमारे देश के
उन तमाम राजनेताओं के स्वाभिमान को झकझोरते रहने का भी काम किया ,जो हर
बात के लिए अंग्रेजों और अंग्रेजी का मोहताज बने रहते हैं । खांटी देशज
माटी से निर्मित अटल जी का व्यक्तित्व ऐसा सर्वसमावेशी था, जिसमें
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के हेडगेवार-सावरकर-प्रणीत ‘हिन्दूत्व’ से ले
कर महात्मा गांधी के ‘सर्व-पंथ-समभाव’ तक और मार्क्स के
‘सर्वहारा-चिन्तन’ से ले कर दीनदयाल के ‘एकात्म-मानववाद’ तक और लोहिया के
‘समाजवाद’ से ले कर विनोबा-जयप्रकाश के ‘सर्वोदयवाद’ तक सभी धाराओं का
समावेश था । और , इन सभी धाराओं के बीच ‘वैचारिक विहार’ करते रहने के
बावजूद वामपंथी व्याभिचारियों द्वारा ‘मनुवादी-ब्राह्मणवादी’ कहे जाने
वाले बाजपेयी अपनी राष्ट्रीय निष्ठा के प्रति ऐसे अटल रहे कि वे अपनी
कविता की एक पंक्ति के माध्यम से सार्वजनिक तौर पर यह कहा करते थे कि “
मैं समष्टि के लिए व्यष्टि का बलिदान करता अभय ; हिन्दू तन-मन, हिन्दू
जीवन, रग-रग हिन्दू मेरा परिचय ।” सचमुच उन्होंने ताउम्र स्वयं की
व्यष्टि के लिए कुछ नहीं किया, बल्कि अपने जीवन का कण-कण सम्पूर्ण
व्यष्टि के लिए ही विसर्जित कर दिया । उनका हिन्दूत्व न तो राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ या विश्व हिन्दू परिषद द्वारा प्रतिपादित किन्हीं
परिभाषाओं में कैद रहा , न ही किन्हीं संकीर्णताओं में संकुचित रहा । सच
तो यह है कि संघ के प्रति अपनी निष्ठा को अटल रखने के बावजूद उन्होंने
‘मनसा-वचसा-कर्मणा’ संघ के हिन्दूत्व को भी व्यापक आयाम प्रदान कर भाजपा
पर उसके विरोधियों द्वारा एक साम्प्रदायिक दल होने का जो अछूत सा धब्बा
लगाया जाता रहा था, उसे भी धो-धो कर भाजपा को ऐसा धवल बना दिया कि उसे
अछूत कहने-मानने वालों की मन्यतायें भी बदलती गईं । ऐसे सर्व-स्वीकार्य
विराट व्यक्तित्व का अब इस दुनिया में नहीं रहना वैसे तो एक राष्ट्रीय
संकट से कम नहीं है , किन्तु चूंकि बाजपेयी जी राजनीति में ऐसे उर्वरक भी
थे कि उनकी उर्वरा से कई अन्य प्रतिभायें विकसित-पुष्पित होती रहीं इस
कारण उनकी विरासत बाधित नहीं हुई है, बल्कि निरन्तरता प्राप्त कर चुकी है
। जाहिर है , यह निरन्तरता किसी वंशवादी वैशाखी के सहारे कायम नहीं है,
अपितु अटल के ‘विहारी’ व्यक्तित्व के कारण है । (मुझे लगता है कि उनके
नाम का ‘बिहारी’ शब्द ‘विहारी’ के अर्थ से ही युक्त है ) भारतीय राजनीति
में बहुत कम ही राजनेता ऐसे हुए हैं , जिनकी छाया में उनके वंशजों के
अलावे दूसरी किसी राजनीतिक प्रतिभा का उन्नयन हो पाया हो और जिन्होंने
अपने पीछे दूसरी पंक्ति की नेतृत्वशीलता को विकसित होने दिया हो । किन्तु
वंश-विरादरी की कुत्सित सोच के घोर विरोधी बाजपेयी जी इस विडम्बना के
विपरीत विशाल वरगद-वृक्ष समान एक ऐसे देदीप्यमान नक्षत्र हैं, जिससे
प्रकाश पा व पोषण पा कर अनेक प्रतिभायें न केवक स्वयं प्रकाशित व पुष्पित
होती रही हैं, बल्कि आज देश में व्याप्त राजनीतिक तमस व दुर्गन्ध को
दूर करने और भारत को परम वैभव की ओर ले जाने वाले मार्ग पर ‘अटल’ हैं ।
अपने देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी इस तथ्य व सत्य को
उद्भाषित करने वाले इसके जाज्वल्यमान उदाहरण हैं , जिनके व्यक्तित्व व
कर्तृत्व से ऐसी आशा की जा सकती है कि ‘अटल’ की विरासत ‘विहारी’ बनी
रहेगी ।
* मनोज ज्वाला ; सितम्बर ' २०१९
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