कल-युग का देवासुर संग्राम ; सनातन बनाम ईसाइयत और इस्लाम
भारत का प्राचीन वांग्मय देवासुर संग्राम की विविध कथाओं-गाथाओं से
भरा पडा है । उनके अध्ययन-मंथन से यह तथ्य प्रमाणित हो चुका है कि भारत
का इतिहास दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता के उतार-चढाव का इतिहास है और यह
भूमि सुर-भूमि रही है, सुर-भूमि , अर्थात देव-भूमि । यहां के सुरों का
अभारतीय असुरों से प्रायः संघर्ष होता रहा है । विश्व-वसुधा के अन्य
देशों की तरह भारत कोई भूखण्ड नहीं है, बल्कि पृथ्वी पर सृष्टि रचने वाले
स्रष्टा का पार्थीव ठौर है । ईश्वर का दूत कहे जाने वाले पैगम्बरों का
जन्म अन्यत्र भले ही कहीं हुआ हो , किन्तु स्वयं ईश्वर तो इसी भूमि पर
अवतरित हुए हैं । हालाकि पूरी पृथ्वी और पूरा ब्रह्माण्ड ईश्वर की ही
रचना है , किन्तु समस्त विश्व-वसुधा के कुशल-मंगल संचालन के लिए
विधि-व्यवस्था कायम करने का सरंजाम खडा करने अथवा स्वयं अवतरित हो कर
अवलोकन-अनुश्रवण करने के निमित्त रचइता ने इसी भूमि को चयनित किया हुआ है
। यही कारण है कि भारत की प्रकृति-संस्कृति दुनिया के अन्य देशों अथवा
भूगोल के अन्य भागों से बिल्कुल भिन्न व विशिष्ट है । यद्यपि समस्त
भूगोल के सारे तत्व भारत में विद्यमान हैं , तथापि भारत की भौगोलिकता ,
मौलिकता व भारतीयता सारी दुनिया में सहज प्राप्य नहीं है ; क्योंकि रचइता
ने इसे इस भू-मण्डल के मार्गदर्शन के निमित्त जगत का सिरमौर बनाया है ।
ठीक वैसे ही जैसे सम्पूर्ण शरीर के रक्त-मज्जा, नश-नाडी, त्वचा-तंत्रिका
के संचालक रस-रसायन व सूत्र-समीकरण मस्तिष्क में विद्यमान होते हैं ,
किन्तु मस्तिष्क के सारे तत्व समस्त शरीर में व्याप्त नहीं होते । विधाता
ने भारत को अन्न-जल, धन-धान्य , सम्पदा-समृद्धि , वनस्पति-औषधि की
प्रचुरता ही नहीं , बल्कि ज्ञान-विज्ञान , विद्या-विभूति , भाषा-साहित्य
, कला-कौशल से भी बढ कर अध्यात्म-दर्शन एवं आत्म-साक्षात्कार की अष्ट
सिद्धियों व नौ निधियों से युक्त वेद-विदित सनातन धर्म का जो वरदान भारत
को दिया हुआ है , सो अभारतीय असुरों को न अभीष्ट है न उपलब्ध है । महर्षि
अरविन्द के शब्दों में सनातन धर्म भारत की राष्ट्रीयता है, भारतीयता है ।
सत्य और असत्य की तरह सुर-असुर , भारतीय-अभारतीय भी दो परस्पर-विरोधी
धाराओं के संवाहक हैं । सुर-भारतीयों का अभीष्ट परमात्म है , जिसके लिए
वे तप-त्याग-तितीक्षा-वैराग्य का अनुसरण करते हैं ; जबकि असुर-अभारतीयों
को असीमित भोग-युक्त पशुता पसंद है , जिसके लिए वे
लूट-मार-हिंसा-बलात्कार-व्याभिचार कुछ भी करने को तत्पर रहते हैं । सुर
धर्म व असुर धर्म और भारतीय संस्कृति व अभारतीय पाश्चात्य संस्कृति में
यही मूलभूत अंतर है । सत्य सनातन भारतीय धर्म की अवधारणा में समस्त
विश्व-वसुधा एक ही कुटुम्ब है ; जबकि गैर-सनातन पैगम्बरवादी अभारतीय
धर्मानुयायी- असुर सम्पूर्ण विश्व पर अपना कब्जा कायम करना चाहते हैं ,
जिसके लिए उनने अपने-अपने धर्म की तदनुसार अवधारणाएं रच-गढ ली हैं । एक
प्रकार के असुरों की अवधारणा है कि अल्लाह एक मात्र ईश्वर है तथा हजरत
मोहम्मद रसूल उसका अंतिम पैगम्बर है एवं इस्लाम एक मात्र धर्म है और जो
लोग उसे नहीं मानते वे काफिर हैं , उन्हें मार डालने का हुक्म अल्लाह ने
फरमाया हुआ है । इसी तरह दूसरे प्रकार के असुरों की धारणा है कि ‘गौड’ एक
मात्र परमात्मा है तथा उसका एक मात्र दूत ‘ईसु’ है और ईसाइयत ही सच्चा
धर्म है ; जो लोग इसे नहीं मानते, उन्हें ईसाइयों के अधीन दास बन कर
रहना होगा , ईसाइयों की गुलामी करनी होगी । जाहिर है आतंकपूर्ण ऐसी
चिन्तना-विचारना-धारणा वाले लोग असुर ही हो सकते हैं । इन दोनों ही तरह
के असुरों ने क्रमशः ‘कुरान’ और ‘बायबिल’ को अहले-आसमानी किताब मान रखा
है, जिसकी अपनी-अपनी सुविधानुसार व्याख्या कर-कर के ये लोग सारी दुनिया
को अपने-अपने हिसाब से हांकना चाहते हैं ; हांकने में लगे हैं ।
इस्लाम का प्रादुर्भाव अरब से हुआ है , तो ईसाइयत का उद्भव
पश्चिम के युरोप से । ये दोनों जबरिया स्थापित किये गए तथाकथित धर्म हैं
। इनमें सहज स्वाभाविक ग्राह्यता-स्वीकार्यता हासिल नहीं है और इस कारण
ये दोनों सनातन धर्म के प्रतिकूल हैं । समस्त विश्व को इस्लाम अथवा
ईसाइयत के झण्डे के नीचे ले लाने के इनके अभियान में भारत का सनातन धर्म
सबसे बडा बाधक है , क्योंकि धर्म की तात्विकता सनातन धर्मानुशासन में ही
है । भारतीय तत्वज्ञान से ईसाइयत और इस्लाम दोनों की धार्मिकता तार-तार
हो जाती है , क्योंकि इनमें धर्म तत्व है ही नहीं । अगर कुछ है भी तो
उसका मूल सनातन धर्म ही है । क्योंकि इन दोनों के प्रादुर्भाव के पहले
से, या यों कहिए कि मानवीय सभ्यता के आकार लेने , अर्थात सृष्टि के आरम्भ
से ही धर्म का सनातन तत्व-रूप कायम है और हमेशा ही कायम रहेगा । सनातन
वांग्मय में जिन असुरों की चर्चा है वो भी आरम्भ से ही रहे हैं , जिनके
गुरू शुक्राचार्य हुआ करते थे । किन्तु अपने अहंकार की सत्ता और संसार की
समस्त सांसारिकता को भोगने के लिए अपनी गुरू-सत्ता से भी द्रोह करते
रहने वाले असुरों ने बहुत बाद में क्राइस्ट ईसा और मोहम्मद रसूल के नाम
पर जो धर्म कायम किया हुआ है , सो वास्तव में धर्म के नाम पर अपनी असुरता
के विस्तार का छद्म प्रबन्धन मात्र है । ऐसा मैं नहीं कह रहा हूं , बल्कि
ईसाइयत और इस्लाम के जाने-माने अध्येताओं का ही कहना है । लन्दन के दी
प्रिन्सपलिटी पब्लिकेशन से अनवर शेख की एक पुस्तक प्रकाशित हुई है-
‘इस्लाम एक साम्राज्यवाद’ । इस पुस्तक में अनवर साहब ने कुरान और हदीस की
आयतों का विश्लेषण करते हुए बडे कायदे से यह प्रमाणित किया है कि इस्लाम
दर-असल हजरत मोहम्मद साहब के अरब साम्राज्य की स्थापना, उसकी सुरक्षा और
उनके साम्राज्यवाद के विस्तार का वैचारिक हथकण्डा मात्र है , जो
गैर-मुस्लिमों को काफिर घोषित कर उन्हें मुस्लिम बनाने के बावत हिंसक
‘जेहाद’ को वाजिब ही नहीं ठहराता है, बल्कि पुरस्कृत भी करता है । इसी
तरह ईसा के ‘प्रेम’ के नाम पर कायम ईसाइयत भी रोमन साम्राज्य के विस्तार
की व्यवस्था के सिवाय और कुछ नहीं है , जो गैर-ईसाइयों के ‘क्रूसेड’ को
जायज मानता है । ईसाइयत और इस्लाम अगर कोई धर्म होता , तो इसे धारण
करने-कराने के लिए लोगों को तलवार के भय से भयभीत और संसार के प्रलोभनों
से प्रलोभित नहीं होना-करना पडता । धर्म तो किसी भी व्यक्ति-वस्तु के
भीतर स्वयंभूव होता है , बाहर से उस पर थोपा नहीं जा सकता और किसी
व्यक्ति के द्वारा स्थापित नहीं किया जा सकता । ईसाइयत और इस्लाम दरअसल
विभाजनकारी व विस्तारवादी ‘सामी’ (सेमेटिक) अवधारणा के नाम हैं । ये
दोनों अवधारणायें सम्पूर्ण विश्व और समस्त मानवता को क्रमशः ईसाई व
गैर-ईसाई और इस्लाम व गैर-इस्लाम में विभाजित करते हुए गैरों को अपने में
मिला कर उनका अस्तित्व मिटा देने को उद्धत हैं । उनकी यह विभाजनकारी
सेमेटिक (सामी) अवधारणा समस्त विश्व को विविध विचारों-मान्यताओं से युक्त
एक कुटुम्ब और धरती के हर प्राणी को एक ही परमात्मा का अंश मानने वाले
भारतीय धर्म-दर्शन के समक्ष तत्व-ज्ञान के वैचारिक तल पर कहीं टिक नहीं
पाती है , इस कारण भारत और भारत की भारतीयता-राष्ट्रीयता, अर्थात
स्वयंभूव सनातन धर्म ही इन दोनों के निशाने पर होता है ।
भारत के धन-वैभव को लुटने-हडपने और सनातन धर्म को
नष्ट-भ्रष्ट करने के लिए मुस्लिम आक्रान्ताओं ने भारत मे घुस कर
तोड-फोड, लूट-मार, हिंसा-बलात्कार-युक्त जेहाद का नंगा नाच किया ।
मठ-मंदिर तोडे गए , पाठशाला-गुरुकुल-विद्यालय-पुस्तकालय जलाए गए ,
माल-असवाब लुटे गए और तलवार की नोंक पर लाखों लोग धर्मान्तरित कर दिए गए
। भारतीय समाज-व्यवस्था की आन्तरिक दुर्बलताओं का लाभ उठा कर वे असुर
आतताई यहां की राज-सत्ता पर भी काबिज हो गए । सैकडों वर्षों तक उनकी
सलतनत कायम रही । उस दौरान सनातन धर्म संस्कृति को नष्ट करने के बावत
अकबर के ‘मीना बाजार’ से ले कर औरंगजेब के ‘जजिया कर’ तक एक से एक आसुरी
हथकण्डे अपनाये जाते रहे किन्तु , सनातन तत्व व सनातन विचार चूंकि नष्ट
हो नहीं सकते इस कारण सनातन धर्म अपनी तात्विकता व वैचारिकता के कारण न
केवल कायम ही रहा बल्कि इसके सम्पर्क में आये इस्लाम का भी इसने
भारतीयकरण कर दिया । हिन्दू मंदिरों और हिन्दू-उपासना-पद्धतियों की तर्ज
पर मस्जिदों और दरगाहों में भी फूल-चादर चढाये जाने लगे । भारत में
हिन्दुओं को ही मतान्तरित कर आकार-विस्तार पाया हुआ इस्लाम कालान्तर बाद
भारतीय समाज में समरस होता रहा । शकों और हुणों, कुषाणों की तरह मुसलमान
भी हिन्दू-समाज के प्रचण्ड पाचन-युक्त उदर में हजम होने ही को थे कि उसी
दौरान युरोप से गोरी चमडी वाले पुर्तगाली व्यापारियों और समुद्री डाकुओं
के असुर-दल जैसे-तैसे भूलते-भटकते भारत चले आये, जिनकी वजह से एक ओर वह
पाचन-प्रक्रिया अवरूद्ध हो गई तो दूसरी ओर यह सनातन समाज उन
गोरे-अंग्रेज-असुरों के विखण्डनकारी षड्यंत्रों का भी शिकार हो गया ।
हिंसा की बुनियाद पर स्थापित इस्लामी सलतनत के बावजूद भारतीय
ज्ञान-विज्ञान , कृषि-उद्योग , कला-कौशल , हुनर-तकनीक ,
साहित्य-शिल्प-स्थापत्य , वाणिज्य-व्यापार आदि फलते-फुलते रहे थे ।
दुनिया भर में भारत की व्यापारिक नौकाओं का परचम लहराता रहा होता था और
यह भूमि सोने की चिडियां कहलाती थी । इस दिव्य-भव्य व समृद्ध भूमि की
दिव्यता-भव्यता व समृद्धि की गूंज सुन कर ही सात समन्दर पार से युरोपीय
देशों के अंग्रेज-असुर यहां आये थे , जिनका आना भारत व भारतीय
राष्ट्रीयता अर्थात सनातन धर्म दोनों के लिए मुसलमानों से भी ज्यादा
नुकसानदेह हुआ । क्योंकि, इनने छल-छद्म से भारत की राजसत्ता को अपने
कब्जे में ले कर यहां की धन-सम्पदा का दोहन-अपहरण किया ही , भारतीय
संस्कृति, भाषा-साहित्य , शिक्षा , कला-कौशल , हुनर-तकनिक ,
उद्योग-वाणिज्य सब को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और अन्ततोगत्वा जाते-जाते इस
देश का विखण्डन भी कर दिया । इतना ही नहीं , उन अंग्रेज-असुरों का
भारत-विरोधी विखण्डणकारी षड्यंत्र आज भी विविध रुपों में कायम है, जिसके
कारण देवासुर-संग्राम छद्म रुप में जारी है ।
• मनोज ज्वाला ; मई’ २०१७
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