ह्यूम के हाथों कांग्रेस की स्थापना के निहितार्थ


अपने देश की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध लडाई लडने वाली
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नामक राजनीतिक संगठन की स्थापना एक अंग्रेज के
हाथों किया जाना उतना ही कौतूहल का विषय है, जितना यह कि २८ दिसमबर
१८८५ को इसकी स्थापना के लिए देश भर से बम्बई पहुंचे तमाम प्रतिनिधियों के
स्वागतार्थ ए०ओ०ह्यूम के साथ ब्रिटिश शासन के २८ प्रशासनिक अधिकारी भी
मौजूद थे / मालूम हो कि कांग्रेस की स्थापना करने वाला वह अंग्रेज स्वयं ब्रिटिश
शासन का एक क्रूर प्रशासनिक अधिकारी था, जो सन १८५७ में उतर प्रदेश के
इटावा जिले का डिप्टी कमिश्नर हुआ करता था / सन १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता
संग्राम की भीषण आक्रामकता के दौरान अपनी जान बचाने के लिए स्त्री-वेश
धारण कर जैसे-तैसे भाग खडा हुआ वह अधिकारी इतना क्रूर था कि छह महीने
बाद आगरा से पुनः इटावा लौट्ने पर १३१ विद्रोहियों को फांसी पर लटकवा दिया
था / बाद में ब्रिटिश सरकार की नौकरी से सेवानिवृति के तीन साल बाद ऐलन
आक्टोवियन ह्यूम नामक वही अंग्रेज प्रशासक भारतीयों के लिए परिश्रमपूर्वक एक
राजनीतिक संगठन की स्थापना कर वर्षों तक उसका महासचिव बना रहा तो वह
कोई सामान्य घटना नहीं थी, बल्कि उसके गहरे निहितार्थ थे /
. नागरिक-प्रशासन के अलावे कृषि-मामलों के विशेषज्ञ कहे जाने वाले
ए०ओ०ह्यूम सेवानिवृति के बाद ब्रिटिश शासन के विरोधी और शासित-शोषित
भारतीयों के हितैषी बन गए थे, ऐसी बात नहीं ; बल्कि सच तो यह है कि ब्रिटिश
शासन के विरुद्ध् भारत में १८५७ की पुनरावृति न हो इसकी सुनियोजित व्यवस्था

के तौर पर ब्रिटिश हुक्मरानो की राय से उनके साम्राज्य के हितपोषण हेतु ह्यूम ने
योजनापूर्वक काफी सोच-समझ कर कांग्रेस की स्थापना की थी / इस तथ्य और
तर्क की पुष्टि ह्यूम की जीवनी लिखनेवाले उसके सहयोगी विलियम बेडरबर्न की
पुस्तक से होती है / बेडरवर्न ने लिखा है कि “सेवानिवृति से पूर्व ह्यूम को विभिन्न
स्रोतों से ऐसी प्रामाणिक जानकारियां मिल गई थीं कि भारत में अंग्रेजी शासन के
विरुद्ध फिर से भयानक स्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं / वे प्रमाण, जिनसे उसे
भीषण खतरनाक भय का ज्ञान हुआ था, सात बडे-बडे वौलूम में दर्ज थे, जिनमें
तीस हजार से भी अधिक सूचनाएं संकलित थीं / उन सूचनाओं से उसे यह ज्ञात
हुआ था कि आम लोग असंतोष की भावना से उबल रहे थे, जिन्हें तत्कालीन
परिस्थिति में ऐसा विश्वास होने लगा था कि उन्हें शासन के विरुद्ध कुछ करना
चाहिए / ह्यूम ने यह महसूस किया कि भारतीयों के उस असंतोष को भीतर ही
भीतर सुलगने नहीं देना चाहिए, बल्कि उसे शांतिपूर्वक विसर्जित हो जाने के लिए
एक ‘सेफ्टी वाल्व’ का निर्माण करना चाहिए /” महान स्वतंत्रता सेनानी लाला
लाजपत राय ने भी कांग्रेस की स्थापना की पृष्ठभूमि और ह्यूम की तत्सम्बन्धी
मंशा के सम्बन्ध में इस तथ्य को और स्पष्ट कर दिया है कि भारत में उभर रहे
राष्ट्रवाद के सम्भावित परिणामों से घबरा कर ब्रिटिश हूक्मरानों ने ह्यूम के हाथों
कांग्रेस नामक अखिल भारतीय संगठन की स्थापना करायी ताकि राष्ट्रीयता के
उभार को ब्रिटिश साम्राज्य का विरोधी होने के बजाय सहयोगी बना लिया जाए /
यहां यह भी गौरतलब है कि कांग्रेस की स्थापना के पहले से ही ब्रिटिश शासन-
विरोधी राष्ट्रीयता आकार लेने लगी थी, जो १८५७ में कुचल दिए जाने के बावजूद
साधु-संतों द्वारा किए जा रहे जनजागरण से व्यापक होती जा रही थी / स्वामी
दयानन्द सरस्वती का ‘आर्य समाज’ अंग्रेजी शासन-शिक्षण और ईसाई धर्मान्तरण
के विरुद्ध मोर्चा खोल चुका था / ह्यूम के जीवनीकार बेडरवर्न ने आगे जो लिखा
है उससे इस सत्य की भी पुष्टि हो जाती है कि ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष के

कारण पुनः विद्रोह की भावना फैलती जा रही थी / बेडरवर्न, जो कांग्रेस के अध्यक्ष
भी रहे हैं , लिखते हैं कि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध देश भर में साधु-महात्मा इस
प्रकार के असंतोष को फैलाने में सक्रिय थे / देखिए बेडरवर्न की पंक्तियों का यह
अनुवाद- “ कुछ धर्मगुरु (साधु-महात्मा) जो ह्यूम के सम्पर्क में आए थे, यह कह्ते
थे कि उन जैसे लोगों (ह्यूम जैसे) , जिनकी सरकार तक पहुंच है, के तरफ से
सुधार और आम शिकायत को लेकर कुछ किया जाना चाहिए; अन्यथा बहुत भीषण
व भयंकर उपद्रव खडे हो जाएंगे /”
सन १८५७ के अंग्रेजी-शासन-विरोधी संग्राम के दौरान भाग खडा होने
के कारण ब्रिटिश हुक्मरानो की नजर में कायर सिद्ध हो चुके ह्यूम ने पुनः
निर्मित वैसी परिस्थिति में अपनी छवि चमकाने की गरज से काफी सोच-समझ
कर ब्रिटिश शासन को १८५७ जैसी विद्रोहपूर्ण स्थिति की पुनरावृति से बचाने की
योजना पर ब्रिटिश सेक्रेटरी आफ स्टेट की मुहर लगवा कर वायसराय की सहमति
से कांग्रेस नामक राजनीतिक संगठन की स्थापना को अंजाम दे दिया / इस हेतु
उसने लगभग दो वर्षों तक भारत भर में घूम-घूम कर और चुन-चुन कर अंग्रेजी
राजभक्त प्रभावशाली व राजनीति-प्रेमी लोगों को जमा किया / २७ दिसम्बर १८८५
को उन सबको अगले दिन शुरु होने वाली सभा में शामिल होने के लिए बम्बई
बुलाया, जहां उसके सहयोगी वही विलियम बेडरवर्न तथा न्यायाधीश जार्डाइन एवं
कर्नल फिलिप्स और प्रोफेसर वर्डसवर्थ आदि उनके स्वागत के लिए पहले से मौजूद
थे /
बम्बई सहित देश के विभिन्न प्रान्तों से कुल ७२ लोग दूसरे दिन २८
दिसम्बर १८८५ को गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कालेज के भवन में आयिजित सभा
में शामिल हुए / उनके अलावे ब्रिटिश शासन के वे २८ अदिकारी भी वहां मौजूद थे,
जिनके समक्ष बारह बजे दिन को ‘इण्डियन नेशनल कांग्रेस’ (भारतीय राष्ट्रीय

कांग्रेस) नामक संगठन की स्थापना को ह्यूम ने अंतिम रूप दे दिया / ईसाई बन
चुके कलकता के प्रसिद्ध सरकारी वकील व्योमेश चन्द्र बनर्जी को उस नवगठित
कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया, जबकि ए०ओ०ह्यूम ने खुद उसका स्वयंभूव
महासचिव बना रहना स्वीकार किया /
अंग्रेजी भाषा पढने-लिखने-बोलने की निपुणता और ब्रिटिश साम्राज्य
के प्रति असंदिग्ध निष्ठा उस कांग्रेस की सदस्यता की प्रमुख शर्तें रखी गयीं /
दूसरी शर्त ज्यादा महत्वपूर्ण थी, जिसके प्रति सदस्यों के मानसिक अभ्यास हेतु
बैठकों-सभाओं में ब्रिटिश महारानी और साम्राज्य के दीर्घायुष्य की कामनायुक्त
जयकारा लगाने का अनिवार्य नियम बनाया गया / इस नियम के प्रति ह्यूम का
कितना आग्रह था, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि कांग्रेस की उक्त
स्थापना-अधिवेशन के समापन पर ह्यूम ने उपस्थित प्रतिनिधियों से कहा कि वह
स्वयं महारानी की जूतियों के फीतों के बराबर भी नहीं है, किन्तु उससे एक
अपराध हो गया कि वह अधिवेशन के आरम्भ में उनकी जयकारी करना भूल गया
; इसलिए सभी सदस्य प्रायश्चित-स्वरुप तीन बार ‘महारानी विक्टोरिया की जय’
बोलें / सारे लोग बोले / किन्तु ह्यूम इतने से भी अपराध-मुक्त हुआ नहीं समझा,
इसलिए उसने तीन का तीनगुणा अर्थात नौ बार और फिर उसका भी तीनगुणा
यानि सताइस बार लोगों से महारानी की ‘जय’ बोलवाया /
अंग्रेजी शासन के विरुद्ध देश भर में फैल रहे राष्ट्रीयतापूर्ण जनाक्रोश
को विद्रोहजनक रूप लेने से पहले ही उसे राजनीतिक सुलह-समझौतों में उलझा कर
ब्रिटिश साम्राज्य के लिए निरापद बनाने हेतु स्थापित कांग्रेस दरअसल ब्रिटिश
हुक्मरानों की आवश्यकता थी / तभी तो उसकी स्थापना के लिए ह्यूम के द्वारा
बम्बई बुलाए गए प्रतिनिधियों के स्वागतार्थ २८ ब्रिटिश आफिसर तैनात थे / इतना
ही नहीं, उसके बाद कांग्रेस के लगातार कई अधिवेशनों के आयोजन में परिवहन से

लेकर प्रतिनिधियों के भोजन-शयन-भ्रमण तक की सारी व्यवस्था में ब्रिटिश सरकार
उसे पर्याप्त सहयोग-संरक्षण देती रही थी / ऐतिहासिक दस्तावेजों से मिली
जानकारी के अनुसार कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में आये प्रतिनिधियों को सरकारी
स्टीमरों में बैठा कर अरब सागर की सैर करायी गयी थी और एलिफैन्टा की
गुफाओं में घुमने के आनन्द से सराबोर किया गया था / कलकता में हुए उसके
दूसरे अधिवेशन में आए सभी प्रतिनिधियों को भारत के तत्कालीन ब्रिटिश
वायसराय लार्ड डफरिन की ओर से शानदार मंहगे भोज दिए गए थे / जबकि
मद्रास के तीसरे अधिवेशन के मौके पर सारे प्रतिभागियों को वहां के गवर्नर की
ओर से एक सरकारी भवन में गार्डन-पार्टी दी गई थी / बाद में ब्रिटिश शासन-
विरोधी जनाक्रोश की धार उसी कांग्रेस की अंग्रेज-प्रायोजित कारगुजारियों के कारण भोथरी हो गई अर्थात विद्रोहजनक स्थिति की सम्भावना समाप्त हो गई, तब
ब्रिटिश शासकों ने अपनी नीति के तहत कांग्रेस को प्रत्यक्ष सहयोग देना बंद कर
दिया और फिर बाद में उसका प्रायोजित विरोध भी शुरु कर दिया , ताकि जनता
उसी के साथ लामबंद रहे, विद्रोहजनक स्थिति उत्पन्न ही न हो सके / फिर तो
तमाम कांग्रेसी ही यह प्रचारित करने में जुट गए कि ब्रिटिश शासन भारत के लिए
ईश्वर का वरदान है / तदोपरान्त विद्रोहजनक स्थिति एकदम से दब ही गई और
फिर कैसे कैसी राजनीति की जने लगी सो तो इतिहास में पढने को मिलता ही है /
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