साहित्य में हास्य-व्यंग्य की परम्परा; रामचरितमानस से लेकर ‘सेक्युलर्टाइटिस’ तक
किसी भी समाज व राष्ट्र का साहित्य उसकी संस्कृति के अधिष्ठान पर रचा-बसा
हुआ होता है, जबकि संस्कृति का स्वभाव ही साहित्य में रस, शैली व उपमा
अभिव्यंजना के रूप में मुखरित व्यवहृत होता है / चूंकि भारतीय संस्कृति नश्वर
विराट ब्रह्म की असीम अभियक्ति व तदनुसार चलनेवाली एक जीवन-पद्धति है,
जो प्रत्येक जीव के भीतर तथा प्रत्येक अणु-परमाणु के कण-कण में व्याप्त आत्मा
की अमरता एवं सत-चित-आनन्द विषयक प्रवृतियों की प्रधानता से ओत-प्रोत है,
इस कारण भारतीय साहित्य में हास्य एक सतत प्रवाहित स्वाभाविक रस के रूप में
व्याप्त है / सच तो यह है कि भारतीय साहित्य में रूदन-क्रंदन, अवशाद-विषाद व
निराशा-हताशा जैसी नकारात्मकता का कोई स्थान नहीं है , बल्कि इनके भीतर भी
किसी न किसी रूप में हास्य तत्व अथवा हास्य रस विद्यमान होता है, क्योकि
यहां मृत्यु को भी महोत्सव के रूप में स्थापित किया गया है / भारतीय साहित्य में
हास्य वस्तुतः दो अर्थों या यों कहिए कि दो रूपों में समाविष्ट है / एक तो हंसने-
गुदगुदाने वाले रस के अर्थ-रूप में और दूसरा तमाम प्रकार की नकारात्मकताओं के
पीछे व्याप्त सत-चित-आनंद विषयक सकारात्मक तत्व के रूप-अर्थ में / फिर
रामायण साहित्य हो या कृष्णायन, हास्य रस एवं हास्य तत्व से भरा पडा है
सम्पूर्ण भारतीय वांग्मय /
वस्तुतः साहित्य में विषय-वस्तु की अभिव्यक्ति के जिस स्तर
पर जहां हास्य अपेक्षित न हो, उस स्तर पर वहां अभिव्यंजना की विशेष शैली से
हास्य उत्तपन्न किया जाता हो, तो उस हास्य से व्यंग्य प्रस्फुटित होने लगता है,
जो प्रायः उपालम्भ-प्रधान होता है, विषय-वस्तु की उस अवस्था-विशेष के औचित्य-
अनौचित्य के प्रति प्रश्नवाचक तो होता ही है, विद्रोहात्मक व प्रहारक ही नहीं,
बल्कि प्रतिरोधजनक भी होता है / व्यंग्य चूकि अभिव्यंजना की विशेष शैली से
उत्त्पन्न और उसके हास्य के निकट होता है, इस कारण व्यंग्य भी हास्य की तरह
ही द्विअर्थी होता है / प्रस्तुत राष्ट्रीय संगोष्ठी का विषय हास्य-व्यंग्य की व्याख्या
नहीं है, बल्कि साहित्य में हास्य-व्यंग्य की परम्परा का रेखांकन है, इसलिए
अभिव्यक्ति की इस विशिष्ट शैली को थोडे शब्दों में परिभाषित कर लेने के बाद
अब सीधे-सीधे विषय पर आता हूं /
राम हमारे राष्ट्रपुरुष हैं और राम के चरित्र पर लिखे गए साहित्य की
प्रतिनिधि रचना वैसे तो रामायण है, जिसे हजारों वर्ष पहले वाल्मीकि ने लिखा है,
किन्तु हिन्दी में देखें तो लगभग चार सौ साल पहले गोस्वामी तुलसीदास का
लिखा रमचरितमानस प्रमुख रामकथा-साहित्य है, इसलिए हिन्दी साहित्य में हास्य-
व्यंग्य की परम्परा कितनी पुरानी और कितनी समृद्ध है इसकी चर्चा वहीं से शुरु
कर रहा हूं / रामचरितमानस में हास्य जो है सो भक्ति रस के साथ समाविष्ट है
/ भक्तिकालीन सगुन-भक्त कवि तुलसी के रामचरितमानस में जितने भी रस हैं,
वे सब के सब भक्ति रस के सागर में स्थित सीपियों-मोतियों के समान अथवा उस
सागर के तट पर अवस्थित सुन्दर मनोरम बालुका राशि के समान विद्यमान हैं /
रामचरितमानस का शुभारम्भ ही एक ऐसे हास्य-व्यंग्य से हुआ है, जो आमतौर पर
हिन्दी साहित्य की हास्य-व्यंग्य की घोषित रचनाओं में भी देखने को कम ही
मिलता है / तुलसीदास जी ने मंगलकारी वाणीविनायक और शंकर-रुप में गुरु की
वन्दना के साथ सभी देवताओं की तो स्तुति की ही है, किन्तु उन्होनें इसके साथ-
साथ प्रचलित परम्परा के विपरीत दुष्टों-दानवों की भी स्तुति की है-
‘यन्मायावशवर्त्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा’ / यह हास्य के साथ-साथ तत्कालीन
समाज की स्थिति पर करारा व्यंग्य ही तो है / स्वान्तःसुखाय उद्देश्य से अपने
जीवन में हास्यरस बरसाने के लिए तत्कालीन समाज की विसंगतियों पर
हास्यपूर्वक यह एक व्यंग्य ही है कि दुष्टों-असुरों को नमन-तर्पन किए बिना कोई
शुभ कार्य सम्पन्न किया ही नहीं जा सकता /
मानस के शुरु में ही आगे देखिए- “मूक होई वाचाल, पंगु चढइ गिरिवर
गहन” ; भक्ति रस में हास्य के सम्मिश्रण का यह उदाहरण यद्यपि कोई व्यंग्य
नहीं है, तथापि इस उपमा से हास्य उत्त्पन्न जरुर होता है / रामचरितमानस नामक
महाकाव्य में काब्य-प्रबन्धन जो है सो लगभग पूरा का पूरा यद्यपि संस्कृत के
वाल्मीकि रामायण पर ही आधारित है, तथापि व्यंग्यात्मक ही है, क्योंकि इसमें
सात काण्ड हैं, काण्ड ; सात अध्याय या खण्ड नहीं / यह है तो वैसे भक्ति का
महाकाव्य, किन्तु इसका काव्य-प्रबन्धन जो है सो काण्डों से भरा पडा है / काण्ड
अर्थात असामान्य घटना / इसकी भाषा लोकभाषा है और लोक-व्यवहार के
अन्तर्गत हमारे यहां थाना में जो ममला दर्ज किया जाता है उसे लोकभाषा में
काण्ड कहा जाता है / आपने आपराधिक काण्ड सुना होगा, कोई मंगल काण्ड नहीं
देखा-सुना होगा / किन्तु तुलसी के मानस में शिवजी के विवाह से लेकर रामजी के
जन्म-पालन-पोषण-उपनयन-पाणिग्रहण तक सब के सब उत्सव भी गम्भीर काण्ड
हैं, जो बालकाण्ड के अन्तर्गत आते हैं / दरअसल वाल्मीकि के रामायण बनाम
तुलसी के मानस में काण्ड का जो प्रबन्धन-प्रावधान है, सो हास्योत्पादक के साथ-
साथ द्विअर्थी व्यंग्य ही है / शिव-विवाह और रामजन्म अथवा धनुष-यज्ञ और
राम-विवाह कोई सामान्य घटना थोडे ही थी / उन घटनाओं के दूरगामी निहितार्थ
दृष्टिगोचर होते हैं, जिसे रचनाकार ने व्यंग्य के माध्यम से व्यक्त किया है /
व्यंग्य के इन सब प्रसंगों में आप हास्य रस की फुहार से सराबोर हो सकते
हैं / शिव-विवाह के प्रसंग में हास्य देखिए- “जस दुलहु तस बनी बराता, कौतुक
विविध होहीं जग माता / बरु बौराह बसहं असवारा , ब्याल-कपाल बिभुषन छारा” /
इसी तरह धनुष-यज्ञ प्रसंग में परसुराम से लक्ष्मण के संवाद की व्यंग्योक्ति
भी द्रष्ट्ब्य है- “इहां कुम्हड-भतिया कोउ नाहीं , जो तर्जनी देखि मर जाहीं” /
सम्पूर्ण मानस में प्रायः हर प्रसंग में ऐसा हास्य-रस है कि राम-कथा का श्रवण
करते हुए स्त्री-पुरुष-बच्चे-बृद्ध-वयस्क सभी उसका पान करते हैं / कथावाचकों को
कथावचन के दौरान श्रोताओं की ओर से करतल-ध्वनियों की जो सौगात मिलती है,
उसका श्रेय उनका नहीं बल्कि कथा में हास्य-रस घोल चुके कथाकार-कवि-रचनाकार
तुलसी का ही है / अयोध्या काण्ड के राज्याभिषेक प्रसंग में मंथरा के मुख से
कहलवाया गया यह कथन कि “कोउ नृप होउ हमें का हानी ,चेरि छाडि अब होब
कि रानी” एक ऐसी व्यंग्योक्ति है, जो आज के हमारे इस लोकतांत्रिक युग में भी
सत्ता के लिए तिकडमबाजी करते रहने वाले नेताओं और आजादी के बाद भी
यथास्थिति का दंश झेल रही आम जनता के बीच संवाद की स्थिति में एकदम
सटिक बैठती है / अरण्यकाण्ड में पंचवटी निवास के दौरान रावण की बहन
सूपनखा के साथ राम और लक्षमण का जो संवाद हुआ है- कि….… “तुम्ह सम पुरुष
न मो सम नारी, यह संयोग विधि रचा विचारी” तथा “सीतहि चितइ कही प्रभु
बाता, अहइ कुआर मोर लघु भ्राता” और फिर लक्षमण द्वारा उस कामातुरा को यह
कह कर लौटाना कि “…सुंदरी सुनु मैं उन्ह कर दासा, पराधीन नहीं तोर सुपासा”
इतना तीखा व्यंग्य है कि उसकी परिणति “…..नाक कान बिनु कीन्हि” से रावण को
“मनौ चुनौती दीन्हि” के रुप में होती है / व्यंग्य की एक विशिष्टता यह भी है-
कहीं पे निगाहें, कहीं पे निशाना / सूपनखा के साथ हुए ऐसे हास्यप्रद व्यंग्यात्मक
संवाद-व्यवहार की तीक्ष्णता व तीव्रता ऐसी है कि वह पंचवटी से सीधे सैकडों
योजन दूर बैठे धुरंधर रावण को भी चूभ जाती है और चुनौती प्रस्तुत कर डालती
है /
किसी भी रचनाकार की तरह तुलसी के सामने भी रामचरितमानस रचने के
दौरान पूरी रामकथा की विषयवस्तु तो सामने थी ही सो कथा जैसे-जैसे लंका की
ओर युद्धोन्मुख होती जाती है, वे उस युद्ध को अपरिहार्य बनाने के लिए वे
नुकीले-चुटीले शब्दों से व्यंग्यवाण चलाते-उछालते खुद भी युद्धोन्मुख प्रतीत होते हैं
/ ..और सच भी यही है कि किसी भी युग की विसंगतियों और समाज या सत्ता के
हालातों पर व्यंग्य करने वाला कोई भी व्यंग्य-रचनाकार जिस पर व्यंग्य करता है,
उससे युद्ध ही करता है; क्योंकि व्यंग्य में प्रयुक्त शब्दों की धार व मार तलवार
की धार-मार से भी ज्यादा आहत करनेवाली होती है / राम की भक्ति में लिखे गए
तुलसी के मानस में व्यंग्यकारी शब्द भी यद्यपि भक्ति-रस में भींगे हुए हैं, तथापि
उनके वे शब्द काफी धारदार हैं, इतने धारदार कि उसके प्रहार से रावण जैसा
अगडधत योद्धा भी तिलमिला उठता है / जिस तरह से इस महाकाव्य के प्रबन्धन
में लीक से हट कर काण्डों का प्रावधान किया जाना खुद रचनाकार द्वारा ही की
गई व्यंग्य की स्वीकारोक्ति है, उसी तरह से उन काण्डों का नामकरण भी घोर
व्यंगयकारी है / मानस के जिस काण्ड के अन्तर्गत खूबसूरत स्वर्णमयी लंका को
जलाकर तहस-नहस कर दिया गया हो, उसके मनमोहक अशोक-वाटिका उजाड दिए
गए हों तथा सम्भावित युद्ध की चुनौतीपूर्ण दहाडमात्र से दहशत के मारे बच्चों के
प्राण-पखेरु उड गए हों और गर्भवती स्त्रियों के गर्भपात हो जाते हों ; अर्थात जिन
क्रिया-कलापों से उस जमाने की सर्वाधिक समृद्ध असुर-सभ्यता की स्वर्णजडित
राजधानी का सारा वैभव-सौन्दर्य नष्ट-भ्रष्ट हो जाता हो, उस काण्ड का नाम तुलसी
ने रखा है- सुन्दरकाण्ड ! यह तो व्यंग्य की पराकाष्ठा है, पराकाष्ठा / फिर उस
सुन्दरकाण्ड में हनुमान के लंका-विचरण , विभीषण से उनका मिलन , सीता मां के
समक्ष हनुमान का प्रकटिकरण , फल खाने के लिए अनुमति का उनका निवेदन ,
फल खाने के दौरान अशोकवाटिका में उनका अन्यमनस्कतापूर्ण शौर्य-प्रदर्शन तथा
रावण के राजदरबार में उनका वाकपटुतापन और पूंछ की ऊंची कुण्डली पर रावण
से भी ऊपर हनुमानजी का आसन आदि तमाम प्रसंगों में व्यंग्य के साथ-साथ
हास्य की ऐसी फुहार है कि पाठक और श्रोता दोनों के पेट फुल जाते हैं / सारे
उद्धरण देने पर यह आलेख बहुत लम्बा हो जाएगा /
इसी तरह से इसके उत्तरकाण्ड तुलसी ने कलियुग की विशिष्टताओं का
जो वर्णन किया है सो वर्तमान युग की विद्रूपताओं पर करारा व्यंग्य है / देखिए-
“मारग सोई जा कहूं जोई भावा, पण्डित होई जो गाल बजावा / मिथ्यारंभ दंभ रत
जोई, ता कहूं संत कहइ सब कोई / सोई सयान जो परधन हारी, जो कर दंभ सो
बड आचारी /जो कह झूठ मसखरी जाना, कलियुग सोई गुणवंत बखाना / निराचार
जो श्रुति पथ त्यागी, कलियुग सोइ ग्यानी सो बिरागी / सब नर काम लोभ रत
क्रोधी, देव विप्र श्रुति संत विरोधी / गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी, भजहीं नारी पर
पुरुष अभागी / नारि मुई गृह संपति नासी, मूड मुडाई होहीं सन्यासी /” सचमुच
आज का यह कलियुग ऐसा ही है , जिस पर व्यंग्य ही किया जा सकता है जो
रामचरित विषयक साहित्य में सैकडों वर्ष पूर्व तुलसी ने कर रखा है / इससे स्पष्ट
है हिन्दी साहित्य में हास्य-व्यंग्य की परपरा बहुत पुरानी और बहुत समृद्ध है /
और, अब चूंकि तुलसी के रामचरितमानस में वर्णित हास्यास्पद
कलियुग अपने चरम पर, जिसकी विडम्बनाओं व विद्रूपताओं पर सिर्फ व्यंग्य ही
किया जा सकता है , इस कारण आज के साहित्य में हास्य-व्यंग्य एक स्वतंत्र
विधा के रूप में ही स्थापित हो गयी है / कई मेरे कई मित्रों का यह मानना है कि
वर्तमान आधुनिक काल के साहित्य में हास्य-व्यंग्य को एक स्वतंत्र शैली और
स्वयंत्र विधा के रूप में स्थापित करने का श्रेय हरिशंकर परसाई और श्रीलाल शुक्ल
आदि स्वातंत्र्योत्तर रचनाकारों के नाम जाता है, किन्तु मैं इससे सहमत नहीं हूं,
क्योकि हिन्दी साहित्य का इतिहास यह बताता है कि आधुनिक काल में खडी बोली
हिन्दी गद्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने हास्य-व्यंग्य को स्वतंत्र विधा और
स्वतंत्र शैली की हैसियत प्रदान की थी / भारतेन्दु का प्रसिद्ध नाटक- “अंधेर नगरी
चौपट राजा” इसका सशक्त उदाहरण है / बाद के रचनाकारों ने भारतेन्दु की उसी
लकीर को आगे खींचने का काम किया है, जिसकी पंक्ति में हरिशंकर परसाई व
श्रीलाल शुक्ल से लेकर शरद जोशी और तमाम अन्य लोग शामिल हैं / किन्तु इन
सबसे पहले और भारतेन्दु के बाद अविभाजित बिहार (अब झारखण्ड के रांची) के
स्वनामधन्य हास्य-व्यंग्यकार राधाकृष्ण का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है,
जिनकी रचना ‘सनसनाते सपने’ स्वातंत्रयोत्तर भारत की दशा-दिशा पर किया गया
सबसे पहला व सबसे मारक व्यंग्य है / दरअसल ब्रिटिश राज से स्वतंत्रता के बाद
अपने देश में कायम राजनीति की विदूपताओं व विडम्बनाओं ने वर्तमान साहित्य
में हास्य-व्यंग्य की उर्वरता व प्रचुरता बढा दी है / क्योंकि राजनीतिक प्रदूषण के
कारण अपने देश की जो तस्वीर निर्मित हुई है वह मुंह चिढाने वाली है , जिस पर
व्यंग्य ही किया जा सकता है / इस क्रम में राधाकृष्ण के बाद श्रीलाल शुक्ल के
‘राग दरबारी’ की चर्चा तो होती ही है, किन्तु महात्मा गांधी के ‘हिन्द-स्वराज’ की
शताब्दी(२००९) के उपलक्ष्य में भारत की दशा-दिशा पर रचित मेरा व्यंग्य-उपन्यास
“महात्मा की बेटी और सियासत” इतना सम-सामयिक है कि न केवल इसकी
कहानी, बल्कि इसके सारे व्यंग्य भी एकदम घटित हो चुके हैं / इस क्रम में इसी
वर्ष प्रकाशित “सेक्युलर्टाइटिस” नामक मेरा व्यंग्य-उपन्यास विशेष उल्लेखनीय है,
जिसमें अपने देश की गम्भीर राजनीतिक बीमारी- ‘सेक्युलरिज्म’ की पोस्टमार्टम के लिए उसकी शल्यक्रिया को ऐसे-ऐसे व्यंगिले-चुटीले-नुकीले उपकरणों से अंजाम दिया गया है कि राजनीति के अनेक जीवित प्राणी भी बेनकाब हो गए हैं /
दरअसल आजादी के बाद देश की राजसता के रथ को कुपथ-कुपथ दौडाते
रहने वालों के हाथों सेक्युलरिज्म के नाम पर देश की तस्वीर को कार्टून बना दिया
जाना और दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र के रथ को ऐसे जोकरों के हाथों हांका
जाना तो अपने आप में व्यंग्य ही है , इस कारण आज का समसामयिक साहित्य
हास्य-व्यंग्य से दूरी रख ही नहीं सकता है /
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