समाज में संस्कृति और क्रांति दोनो का संवाहक होता है साहित्य । जिस समाज का का साहित्य जितना ही समृद्ध और समुन्नत होता है उस समाज का राष्ट्र-भाव उतना ही जाग्रत, विकसित व आयुष्यमान होता है, उतना ही वैभव-समपन्न होता है । दुनिया में कई सभ्यतायें और कई संस्कृतियां विकसित हुईं, जिनके आधार पर कई राष्ट्रों का आविर्भाव हुआ, किन्तु कालान्तर में .रोम , युनान आदि वे सब के सब मिट गये, अब उनकी स्मृतियां ही शेष रह गयी हैं बस । किन्तु “ कुछ बात है ऐसी कि हस्ती मिट्ती नही हमारी “ तो ‘वह कुछ बात’ जो है सो वास्तव में हमारा वही ‘राष्ट्र-भाव’ ही है जिसकी जननी हमारी शाश्वत संस्कृति है । और, हमारी ऐसी संस्कृति व इसकी शाश्वतता का संवाहक है हमारा प्रचूर-प्रचण्ड-विपुल साहित्य । दुनिया का सबसे पहला साहित्य-शास्त्र-ग्रंथ-काव्य भारत में ही रचा गयचार वेद, छ्ह शास्त्र, अठारह पुराण एवं एक सौ आठ उपनिषद ही नहीं, बीसियों स्मृतियों-श्रुतियों के साथ-साथ दुनिया का सबसे बडा, सबसे पुराना महाकाव्य– महाभारत व अद्वितीय जीवन दर्शन- गीता और फिर इन सब ग्रंथों-शास्त्रों के अनगिनत भाष्यों-टिकाओं के असीम विस्तार से विस्तृत है हमाराप्राचीन वांगमय । इससे ग्यान की ऐसी धारा हुई निःसृत कि अपना यह भारत्वर्ष विश्व भर में जगतगुरु
के रुप में रहा है प्रतिष्ठित । व्यक्ति और राष्ट्र में बडी गहरी समानता है । व्यक्ति की तरह राष्ट्र का भी जीवन होता है , दोनों की अपनी-अपनी जीवनीशक्ति भी होती है । इस जीवनीशक्ति की प्रचूरता-प्रचण्डता के अनुसार व्यक्ति की आयु जहां कुछ दशकों-वर्षों की होती है , वहीं राष्ट्र की आयु शताब्दियों-शहस्त्राब्दियों तक की होती है । व्यक्ति और राष्ट्र दोनों पर यह नियम समान रुप से लागू होता है कि जिसके अंदर जीवनीशक्ति जितनी अधिक होगी वह जरता-रुग्णता आपदा-विपदा से परतिरोध करने व दीर्घायुष्यता
प्राप्त करने में उतना ही सक्षम व समर्थ होगा । यही वह रहस्य है जिसके कारण लगातार कई-कई विदेशी आक्रमणों तथा कई सौ वर्षॉ तक उन विदेशी आक्रान्ताओ के कूशासन-दमन का झंझावातों को झेलते रहने के बावजूद अपना राष्ट्र भारतवर्ष, रोम युनान की तरह मिटा नहीं , बल्कि अपनी प्रचण्ड जीवनीशक्ति के सहारे डटा रहा ।
भारत पर अपना प्रभूत्व स्थापित कर लेने के बाद ब्रिटिश हूक्मरानों-चिंतकों व यूरोपियन दार्शनिकों ने भारत को नजदीक से देखने-समझने के बाद यह रहस्य जान लिया था कि राष्ट्र की शाश्वतता , उसकी संजीवनी शक्ति अर्थात संस्कृति में सन्निहित है और उस संस्कृति का संवाहक तो साहित्य ही है । और , यह जान लेने के बाद उननें भारत को नष्ट-भ्रष्ट कर इसे क्राईस्ट-ईसाई साम्राज्य के अधीन ब्रिटेन को धन-सम्पदा, वैभाव-विलास उपलब्ध कराते रहनेवाला इण्डिया नामक उपनिवेश कायम किये रखने की अपनी दूरगामी कुटिल कूट्नीतिक योजना के तहत भारतीय संस्कृति पर हमला करने वास्ते सर्वप्रथम साहित्य को निशाना बनाया और अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति को उसका माध्यम । उननें मैकाले और मैक्समूलर के हाथों भारतीय संस्कृति व साहित्य को ब्रिटिश साम्राज्य के अनुकूल और भारतीय राष्ट्र के प्रतिकूल तोड्ने-मडोड्ने का जो किया काम, उसे समझने के लिये देखिये सिर्फ एक प्रमाण - अंग्रेजी शिक्षण-प्रणाली को भारत में लागू करने के पीछे ब्रिटिश हूक्मरानों की जो मंशा थी , सो इस शिक्षण-प्रणाली के प्रवर्तक – थॉमस वेविंगटन मैकॉले के एक लेख के निम्नांकित अंश मात्र से स्पष्ट हो जाता है –
“ Education of the people conducted on these principles of morality, which are common to all forms of Christianity , is highly valuable as a means of promoting the main object for which government exists ………. There is assuardly no country where is a more desirable the Christianity be propogated. “
अर्थात , “ जनता (भारतीय जन) की शिक्षा ईसाइयत के सभी रूपों के सामान्य सिद्धांतों व ईसाई मौलिकता के अनुसार व्यवहृत होनी चाहिये \ यह शिक्षा (अंग्रेजी शिक्षा) उस मुख्य उद्देश्य की पूर्ति का एक उच्च व मूल्यवान साधन है , जिसके लिये इस सरकार का अस्तित्व कायम हुआ है \ निश्चय ही
यह वह देश (भारत) नहीं है , जहां ईसाइयत का प्रसार अधिक हुआ है । “
ब्रिटिश योजना के तहत भारत के छात्र-छात्राओं को भारतीय राष्ट्रीयता के प्रतिकूल शिक्षा देने वाली अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति जब भारत में असरदार सिद्ध होने लगी, तब अपनी मंशा फलीभूत होते देख इसके मुख्य सूत्रधार थामस मैकाले नें हर्षित होकर अपनें पिता को जो पत्र लिखा सो भी द्रष्टब्य है –
Calcutta
Oct-12/08/1936
My dear father ,
Our schools are floursing wonderfully. The effects of this education on the hindues who has received our English education ever remain sincerely attached to his religion. Som continue to profess it as a matter of policy and some embrese Christianity . It my blief that if our plan of education are followed up , there will not be a single idolater among thr respectable castes in Bengal, thirty years hens, and this will be affected without smallest interfarencewith religious liberty by natural and eraction of knowledge and reflection . I heartly rejoice in the prospects. Ever your most affectionately.
T. B. Macaulay
अर्थात ,
"मेरे प्रिय पिताजी
हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यपूर्वक उन्नति कर रहे हैं । हिन्दुओं पर इस शिक्षा का अद्भूत प्रभाव पडा है । अंग्रेजी शिक्षा-प्राप्त कोई भी हिन्दू ऐसा नही है , जो अपने धर्म-मजहब से हार्दिक जुडाव रखता हो । कुछ लोग नीति के मामले में हिन्दू रह रहे हैं , तो कोछ ईसाई हो रहे हैं । मेरा यह विश्वास है कि अगर हमारी यह शिक्षण-पद्धति चलती रही तो यहां की सम्मानित जातियों में आगामी तीस वर्षों के भीतर बंगाल के अंदर एक भी मूर्तीपूजक ( अर्थात हिन्दू ) नहीं रह जायगा । इनके मजहब में न्यूनत्तम हस्तक्षेप की भी आवश्यकता नहीं पडेगी । स्वाभाविक ही ग्यान-बृद्धि की विचारशीलेता से यह सब हो जायगा, इस सम्भावना पर मुझे हार्दिक प्रसन्न्ता हो रही है । "
ऐसा ही हुआ भी, और आज भी हो रहा है । उस अंग्रेजी शिक्षा ने राष्ट्र-भक्त के बजाय राजभक्त पैदा करना शुरु कर दिया । ऐसे राजभक्त जो भारत व भारतीय परम्पराओं का मखौल उडाये, उसे तिरस्कृत करे और ईसाइयत अर्थात अंग्रेजी संस्कृति के रंग में रंग कर अंग्रेजी राज एवं अंग्रेजी राजनीति का प्रशंसक-संवर्द्धक-सेवक बन अंग्रेजी हितों के संवर्द्धन में प्रयुक्त होता रहे ; भारतीय ऐतिहासिक पुरुषों-पूर्वजों की गाली गलौजपूर्ण निन्दा करे और ब्रिटिश शासनाधिकारियों को सहायता- समर्थन देते हुये भारत पर ब्रिटिश शासन को ही भारतीयों की उन्नति-प्रगति के लिये आवश्यक मानें । अपने इस कार्य को और अधिक मजबूती से अंजाम देने के लिये मैकाले नें भारतीयों के शिक्षणार्थ भारत
का इतिहास शौर्य-स्वाभिमान विहीनता के हिसाब से ऐसे लिखवाया और भारतीय धम-शास्त्रों व वैदिक ग्रंथों का ऐसा विकृत अनुवाद करवाया कि इसे पढनेवालों को सिर्फ हीनता के सिवाय कोई गर्व-बोध हो ही नहीं ; बल्कि ब्रिटेन की सत्ता-सभ्यता-संस्कृति व इतिहास के प्रति प्रशस्ति व भक्ति का मानस निर्मित होता रहे ।
इस दूरगामी लक्ष्य-सिद्धि हेतु मैकॉले ने एक तथाकथित यूरोपीय विद्वान- मैक्समूलर को इस कार्य के सम्पादन हेतु तैयार किया । अपनी तत्सम्बन्धी मंशा पर ब्रिटिश सरकार की मूहर लगवाकर उसने मैक्समूलर को आक्सफोर्ड विश्वबिद्यालय में प्रतिनियुक्त करवाया और तब फिर उससे अपनी योजनापूर्वक भारतीय इतिहास-लेखन तथा वेदादि भारतीय शास्त्रों-ग्रंथों का अर्थानुवादिकरण कार्य शुरु करवाया और साथ ही इधर भारत भर में यह प्रचारित करवा दिया कि मैक्समूलर संस्कृत व अंग्रेजी का ऐसा प्रकाण्ड विद्वान है कि उसने विदों-उपनिषदों का अंग्रेजी में जो अर्थानुवाद किया है सो सर्वथा अदवितीय व प्रामाणिक है ।
उधर उन मैक्समूलर महोदय ने भारतीय साहित्य के अर्थानुवादन का काम कितनी प्रामाणिकतापूर्वक किया सो आप सिर्फ इतने ही से समझ सकते हैं कि उसके द्वारा लिखित-अनुदित पुस्तकों में भारतीयों को यह पढाया जाने लगा कि “ हिन्दुओं के पूर्वज-आर्य भारत के निवासी नहीं थे, बल्कि विदेशी आक्रमण्कारी थे और हिन्दू एक घिनौना व कायर मजहब है ; भारत कोई राष्ट्र नहीं है बल्कि एक ऐसा महाद्वीप है जिसमें अनेक देश व अनेक मजहबी संस्कृतियां रहती हैं ; जबकि इस्लाम व ईसाइयत श्रेष्ठ मजहब–संस्कृति हैं और वेदों-उपनिषदों में अन्धविश्वासी किस्से-कहानियां लिखी हुई हैं, जिनके कारण ही हिन्दुओं का पतन हुआ , आदि-आदि मैक्समूलर की ऐसी कुटिल करतूतों का आपको अगर विश्वास न होता हो तो लीजिये उसी के एक मित्र - रेवरेण्ड एडवर्ड , डाक्टर आफ डिविनिटी ने उसके ऐसे कार्यों पर प्रसन्न होकर उसे जो पत्र लिखा था उसका यह अंश देखिये , इससे आपको सहज ही यह विश्वास हो जायेगा –
Your work will form a new era in the efforts for the conversion of India, and Oxford will have reason to be thankful for that ; by giving you a home . it will facilitate a work of such primary and lasting importance for the conversion of India .
अर्थात , "तुम्हारा काम ( हिन्दू-धर्मशास्त्रों-ग्रंथों के अनुवाद का काम ) भारत को धर्मांतरित करने के प्रयासों में एक नये युग का निर्माण करेगा । तुमको अपने यहां स्थान देकर
ऑक्सफोर्ड ने एक ऐसे काम में सहायता प्रादान की है जो भारत को धर्मांतरित करने में प्रारम्भिक और चिरस्थाई प्रभाव उतपन्न करेगा । “
स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने भारत पर अपनी प्रभुता-सत्ता की जडों को भारत में गहराई तक जमाने के लिये न केवल अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति कायम की, बल्कि भारतीय संस्कृति के संवाहक साहित्य में भी घुसपैठ कर इसे अपने जद में ले लिया । अपनी कुटिल कलुषित शिक्षण-पद्धति से ऐसी- तैसी अंग्रेजी शिक्षा-प्राप्त लोगों को पद-पदवी-प्रतिष्ठा देकर उन्हें अंग्रेजी-ब्रिटिश साम्राज्य का प्रशंसक-समर्थक बनाने और उन्हें ही समस्त भारत की जनता के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित-प्रचारित कर उनके माध्यम से अपनी औपनिवेशिक सत्ता की अनिवार्यता-अपरिहार्यता प्रतिपादित कराने और उसकी जनस्वीकार्यता हासिल करने के लिये उन अंग्रेजीदां लोगों को एक प्लेट्फार्म देने के उद्देश्य से ब्रिटिश शासकों ने अपने एक प्रशासक – ए० ओ० ह्यूम के द्वारा ‘ इण्डियण नेशनल कांग्रेस ‘ की स्थापना कराई थी । और, इसके साथ ही उनने प्रेस-मीडिया नामक संस्था को भी जन्म दिया और उसके स्वतंत्र-निष्पक्ष होने का पाखण्ड किया कायम । फिर उस अंग्रेजी प्रेस-मीडिया के वे मैकालेजीवी कारिन्दे अपनी-अपनी कलम से ब्रिटिश साम्राज्य का करने लगे हितपोषण । इतना ही नहीं ब्रिटिश हूक्मरानों ने शिक्षण-संस्थानों से लेकर तमाम भाषिक-साहित्यिक-बौद्धिक संस्थानों तक में अंग्रेजी-परस्त लोगों की नियुक्ति कर उन्हें
भारतीय संस्कृति व साहित्य की जडों में मट्ठा डालने को भी कर दिया तत्पर ।
उन्हीं दिनों, महर्षि दयानन्द सरस्वती ने मैक्समूलर के भारतीय वैदिक साहित्य के मूलोच्छेदन सम्बन्धी कार्यों का जो किया जोरदार खण्डण तथा संस्कृति-साहित्य-रक्षार्थ आर्य समाज का जो किया गठन और उसके द्वारा देश भर में राष्ट्रीय चेतना का जो हुआ जागरण, उसके प्रभाव-परिणामस्वरुप राजनीति से लेकर मीडिया तक में अंग्रेजी-राजभक्ति के समानान्तर भारतीय राष्ट्रवादिता भी सशक्त रूप से हो गयी कायम । ब्रिटिश साम्राज्य का हितपोषण करनेवाले अंग्रेजी अखबारों के समानान्तर एक ओर भारतीय भाषाओं में भी शुरु हो गया अखबारों का प्रकाशन तो दूसरी ओर राष्ट्रवादी साहित्य का भी होने लगा सृजन-संवर्द्धन , जिनके समन्वित प्रभावों से लोकव्यापी प्रसार पाकर तेज हो उठा अंग्रेजी शासन विरोधी स्वतन्त्रता आन्दोलन ।
अंततः देश-विभाजन जनित रक्तरंजित आधी-अधूरी आजादी तो मिली किन्तु अंग्रेजों ने अपनी कुटिल कुटिलतापूर्ण नीति के तहत अंग्रेजीपरस्त हांथों में कर दिया सत्ता का हस्तांतरण । India that is Bharat की अंग्रेजी अवधारणा से युक्त अपना गणतंत्र भी हुआ कायम, किन्तु गण और तंत्र, दोनों पर स्थापित हो गया इंग्लैन्ड के उतराधिकारी - इण्डिया का शासन । फिर तो अंग्रेजों के जमाने में जितना नहीं हुआ था, उससे भी ज्यादा तेजी से होने लगा अपने देश का अंग्रेजीकरण । तमाम शैक्षणिक-बौद्धिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्थानों के शीर्ष पर बैठा दिये गये मैकाले-मैक्समूलर के मानसजनित लेनीनवादी-मार्क्सवादी विद्वतजन, जो भारतीय राष्ट्र की जडों का फिर से करने लगे उच्छेदन । इसी सुविधाजनक तर्ज पर मीडिया-प्रतिष्ठानों में भी भर गये मैकाले-मैक्समूलर व लेनीन-मार्क्स के ढोलची-तबलची पिट्ठूजन । और, उस मीडिया ने एक ओर देश की स्वतंत्रता का भ्रम कर दिया कायम, तो दूसरी ओर साहित्य का कर लिया अपहरण । फलतः परतंत्र भारत में साहित्य का जो राष्ट्रीय स्वर था मुखरित-गुंजित, उसे स्वातंत्र्योत्तर भारत में दबा कर अभारतीय-अराष्ट्रीय स्वर को दिया जाने लगा प्रोत्साहन-संरक्षण । नतीजा सामने है कि साहित्य में भी हो गया तरह-तरह का विभाजन ।
दलित साहित्य, महिला साहित्य, जनवादी साहित्य, प्रगतिशील साहित्य आदि भिन्न-भिन्न नामों से साहित्य के नाम पर आधारहीन अराष्ट्रीय (अ)साहित्यिक तम्बू हो गये कायम । फलतः एक तरफ साहित्य में राष्ट्रीयता हो गयी मरणासन्न, तो दूसरे तरफ भाषा के मौलिक स्वरूप का भी होने लगा क्षरण व अंग्रेजीकरण । अंग्रेजों से स्वतंत्रता का संघर्ष जीत कर राष्ट्रभाषा से राजभाषा बन चुकी हिन्दी अब झेल रही है अंग्रेजी का ही आक्रमण । अनावश्यक रूप से अंग्रेजी-शब्दों का घोल-मेल कर हिन्दी को हिंग्रेजी बनाने में लगे हैं न केवल सारे खबरिया चैनल और अखबारी प्रकाशन, बल्कि हिन्दी की ही रोटी खानेवाले हिन्दी के ही साहित्यकारजन । स्वातंत्रयोत्तर साहित्य के रचना-संसार में न केवल भाषा के साथ हो रहा है यह अनुचित आचरण, बल्कि रचना-विधान का भी समाप्त होता जा रहा है चलन ।
स्वातंत्र्योत्तर भारत में मैकालेवादिता व मैक्समूलरकारिता के संक्रमण से संक्रमित साहित्यकारों ने कविता के नाम पर अकविता और कहानी की जगह महज सतही
बयानबाजी के कूडों का ऐसा लगा रखा है ढेर कि राष्ट्रीय अस्मिता से युक्त वास्तविक साहित्य की अब गूंजती ही नहीं है टेर । स्वतंत्रता का भ्रम कायम हो जाने के बाद साहित्य में राष्ट्रीय अस्मिता का स्वर मद्धिम होते-होते ७० के दशक से तो प्रायः शिथिल ही हो गया \ वैद्य गुरुदत्त व आचार्य चतुरसेन तथा जानकी वल्लभ शास्त्री और वृन्दावन्लाल वर्मा आदि गिने-चुने साहित्यकारों की रचनाओं में राष्ट्रीयता जरूर हुई मुखरित किन्तु साहित्य के बट्बृक्ष पर अमरबेल की तरह छाये रहनेवाले मुक्तिबोध, नागार्जुन, केदारनाथ, भीष्म, कमलेश्वर,नामवर सिंह, अशोक बाजपेयी आदि तमाम बडे व स्थापित कवियों-लेखकों की रचनाओं में क्या है सो वे ही जानते ; मैं तो सिर्फ इतना ही कहूंगा कि मीडिया की चमक व जे० एन० यू० की धमक और कांग्रेसी-वामपंथी संस्थानों की वैसाखी के सहारे साहित्य में स्थापित ऐसे तमाम साहित्यकारों की रचनाओं में और चाहे जो भी हो , राष्ट की जीवनीशक्ति अर्थात संस्कृति का संवाहक-तत्व तो कतई नहीं है । बचनेश त्रिपाठी, नरेन्द्र कोहली , क्षमा कौल, शत्रुघ्न प्रसाद , कुसुमलता केडिया, ऋता शुक्ल ,रामेश्वर मिश्र पंकज, व भूनेश्वर गुरुमैता आदि मुट्ठी भर साहित्यकारों ने राष्ट्रीय अस्मिता के स्वर को भंग होने से रोके जरूर रखा है, किन्तु स्वतंत्रता-पश्चात राष्ट्रीयता को साम्प्रदायिकता व घोर
साम्प्रदायिकता को धर्मनिरपेक्षता घोषित-प्रचारित-स्थापित कर खुलेआम बौद्धिक आतंक ढा रही मैकालेवादी-मैक्समूलरकारी साहित्यिक फौज की राह रोकने वाले साहित्य का सृजन तो अपेक्षित होने के बावजूद स्थगित ही है । भारतीय राष्ट्रीयता विरोधी साहित्याक्रमण तथा इस बौद्धिक व्केयाभिचार के विरुद्ध मैनें “ महात्मा की बेटी और सियासत “ नामक उपन्यास के बाद “ सफेद-आतंक ; ह्यूम से माईनो तक “ नामक निबन्ध् और फिर “सेक्युलरटाइटिस - गुजरात से दिल्ली तक” नामक व्यंग्य लिख कर इसन स्थगन की खामोसी को तोडने का एक लघु प्रयास जरूर किया है, किन्तु यह प्रयास इतना लघु है कि पर्याप्त तो कतई नहीं है , राष्ट्रीय फलक पर ख्यात भी नहीं हो पाया है ।
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