बीते १२ वर्षों से देश में हुए विभिन्न चुनावों में करारी हार झेलते रहे देश के सबसे बडे सियासी दल के सर्वाधिक चर्चित नेता इन दिनों सर्दी भरे मौसम मे देश का सियासी वातावरण अपने पक्ष में गर्म करने के निमित लगातार आसमानी- सुल्तानी बयानबाजी करते फिर रहे हैं.अभी हाल ही में उन्होंने लम्बी-चौडी भूमिकाओं के साथ कहा कि “ हम
तोडनेवाले नहीं हैं,हम हमेशा से देश को जोडते आये हैं “. इसी दल के ‘सरदार’ ने विपक्षी दल के बहुचर्चित नेता को कुछ दिनों पहले जब देश के लिये “विनाशकारी” कह डाला था, तब उस दल के लोगों ने काफी हो-हल्ला मचाया और बयान वापस लेने का दबाव बनाया. सरदारजी ने तो बयान वापस लिया नही , जबकि विपक्षी दल ले लोग यह भी नही
सिद्ध कर सके कि तोडक-विभाजक और देश के लिये विनाशकारी आखिर कौन हैं. इस पर तो ऐतिहासिक-्सन्दर्भों-साक्ष्यों के साथ व्यापक बहस होनी चाहिये ।
देश-विभाजन के प्रत्यक्षदर्शी स्वतंत्रता-सेनानी सी०एच० सीतलवाड् ने अपनी पुस्तक- “इण्डिया डिवाइडेड”में साफ-साफ लिखा है कि “ …..नंगी सच्चाई को यह कह कर छिपाना व्यर्थ है कि परिस्थितिजन्य मजबुरियों ने भारत का विभाजन स्वीकार करने के लिये कांग्रेस को विवश कर दिया था तथा उसे अपरिहार्य कारणों के समक्ष समर्पण करना पडा था . वास्तव में वे परिस्थितियां तो कांग्रेस द्वारा बनाई गई थीं. जो चीज एक बार रोकी जा चुकी थी उसे उसके(कांग्रेस के) कारनामों ने ही अपरिहार्य बना दिया था. हृदय में संजोया हुआ “संयुक्त भारत” –“अखंण्ड-भारत” का वरदान उसकी गोद में आ पडा था , परन्तु कांग्रेस ने स्वएं के राजनीतिक स्वार्थ के कारण उसे बाहर फेंक दिया और अपनी पहुंच से दूर कर दिया . मुस्लिम-लीग अर्थात जिन्ना ने तो कैबिनेट-मिशन योजना को स्वीकार कर पाकिस्तान की मांग हीवापस ले ली थी , परन्तु कांग्रेस ने समस्या (विभाजन की मांग) को हमेशा के लिये समाप्त करने का अवसर ही खो दिया. जिन्ना ने तो १९४७ में भी पाकिस्तान की मांग पर इतनी गम्भीरता से कभी विश्वास नही किया था कि कांग्रेस उन्हें सिर्फ सत्ता से दूर करने के लिये सचमुच देश-विभाजन को भी तैयार हो जायगी । मालूम हो कि सन-१९४५ में जिना ने मुस्लिम-लीग की कार्यसमिति की एक बैठक में बाजाब्ता एक प्रस्ताव पारित करा कर कैबिनेट-मिशन की योजना स्वीकार करते हुये पाकिस्तान की मांग वापस ले ली थी और घोषणा कर दी थी कि उन्होंने ‘सम्प्रभुता-सम्पन्न राज्य- पाकिस्तान की मांग का बलिदान कर दिया है ’ .” द पार्टीशन ऑफ इण्डिया-लिजेन्ड एण्ड रियलिटी” में तत्कालीन विद्वान एम० एच० सिरचई ने भी लिखा है-“यह बात प्रामाणिक रुप से स्पष्ट है कि वह कांग्रेस ही थी जो विभाजन चाहती थी, जबकि जिन्ना जो थे सो विभाजन के खिलाफ थे, उन्होंने (जिन्ना ने) उसे द्वितीय् वरीयता के रुप में स्वीकार किया”. महात्मा गांधी के ही प्रपौत्र राजमोहन गांधी ने तो अपनी पुस्तक- “ऐट लाइव्स” में और ही स्पष्ट शबदों में लिखा है कि “पाकिस्तान, जिन्ना का अपरिवर्तनीय लक्ष्य नहीं था . कांग्रेस यदि कैबिनेट-मिशन योजना के प्रति राजनीतिक दूरदर्शिता का परिचय देती, तो पाकिस्तान न तो अस्तित्व में आता , न उसकी जरुरत ही पड्ती” । सच यह भी है कि कांग्रेस-कार्यसमिति ने ही प्रस्तावित पाकिस्तान की रूपरेखा तैयार की थी जिसे, सबसे पहले मद्रास- विधानसभा द्वारा पारित कराया गया था. कांग्रेस के तत्कालीन नीति- निर्धारक-चिंतक सी० राजगोपालाचारी ने तो ‘हरिजन’ अखबार में लिखा भी था कि “जिन्ना वास्तव में पाकिस्तान के प्रति उत्सुक नहीं थे,जबकि
जवाहरलाल तो अपनी राजनीति के मार्ग को निष्कण्टक बनाने के लिये पाकिस्तान के मुद्दे को एक अवसर ही मान रहे थे. तभी तो १९४२-४५ में जब वे अहमदनगर जेल में थे तब उन्होंने अपनी ही डायरी में लिखा था –“मैं सहज वृति से ऐसा सोचता हूं कि यदि हम चाहते हैं कि जिन्ना को भारतीय राजनीति से दूर रखना है तथा भारत की समस्याओं में
उसके अव्यवस्थित व घमण्डी दिमाग के निरन्तर हस्तक्षेप से बचना है , तो हमें पाकिस्तान अथवा ऐसी किसी भी चीज स्वीकार कर ही लेना बेहतर होगा. ” स्पष्ट है कि वास्तव में नेहरु ही यह चाहते थे कि कांग्रेस की साम्प्रदायिक-तुष्टिकरणवादी नीतियों के विरुद्ध बार-बार राजनीतिक-बैचारिक टकराव करते रहने वाले जिन्ना को पाकिस्तान देकर उसे सदा के लिये भारत की राजनीति से दूर कर दिया जाये ताकि उनका राजनीतिक मार्ग एकदम निष्कण्टक हो जाये ।
गौरतलब है कि मो० अली जिन्ना एकता-समानतावादी घोर राष्ट्रवादी कांग्रेसी थे जो कांग्रेस से इस कारण अलग-थलग कर दिये गये थे, क्योंकि वे कांग्रेस की साम्प्रदायिक मुस्लिम-तुष्टिवादिता का विरोध करते रहते थे . जिन्ना ही वह कांग्रेसी थे जो मुसलमानो के लिये पृथक निर्वाचक-मण्डल व साम्प्रदायिक आरक्षण की अंग्रेज-परश्त
कांग्रेसी नीति को भारत की अखण्डता के लिये घातक बताते हुए लम्बे समय तक उसका विरोध करते रहे थे. मुसलमानो के मजहबी मामले को लेकर कांग्रेस द्वारा चलाये जा रहे “खिलाफत आंदोलन” को “साम्प्रदायिक उन्माद” का नाम देते हुए जिना ने यह कहकर उसका प्रबल विरोध किया था कि इससे भारतीय मुसलमानों का राष्ट्रवाद
कमजोर होगा. इन बैचारिक विरोधों के कारण ही कांग्रेस से अलग-थलग कर दिये गये थे जिन्ना. कांग्रेस से अलग हो जाने के बावजूद मुस्लिम-आरक्षण विषयक पृथक निर्वाचक मण्डल का विरोध् ही करते रहे थे । जिन्ना और अन्ततः राजनीति छोड वे इंग्लैन्ड में बस कर वकालत करने लगे. इधर कांग्रेस की मुस्लिम-तुष्टिवादिता के कारण कालान्तर में
जिन्ना की भविष्यवाणी जब सच हो गयी अर्थात् भारत की अखण्ड्ता पर आघात होने लगा - पाकिस्तान की मांग उठ्कर जोर पकड्ने लगी. तब १९३४ में लीगी नेता लियाकत अली के आग्रह पर मुस्लिम लीग को नेतृत्व देने या यों कहिये कि उसके लिये वकालत करने तथा कांग्रेस को साम्प्रदायिक तुष्टिकरण्वादी नीतियों का खामियाजापूर्ण सबक सिखाने लन्दन से भारत वापस आ गये थे जिन्ना. तब भी कई वर्षों तक लीग के प्रस्तावित पाकिस्तान के लिये राजनीतिक वकालत करने के बजाय वे भारत की स्वतंत्रता अखण्डता के लिये संयुक्त मोर्चा कायम करने हेतु कांग्रेस व लीग में मेल-मिलाप कराने में ही लगे रहे. किन्तु जैसा कि ऊपर बता चुका हूं,जिन्ना को बर्दाश्त न कर पाने कि असहिष्णुतावश नेहरु-कांग्रेस ने अपने मार्ग से उसे सदा-सर्वदाके लिये दूर कर देने हेतु खुद ही उसे पाकिस्तान परोस दिया. इस तथ्य की पुष्टि करते हुये कांग्रेसी नेतृ सरोजिनी नायडू ने भी कहा था-“ हमने जिन्ना के साथ न्यायसंगत व्यवहार नहीं किया ” । प्रख्यात राजनीतिक लेखक धनंजय कीर ने अपनी पुस्तक _”महात्मा गांधी-पोलिटिकल सेंट एण्ड अनार्म्ड प्रोफेट” में यह निष्कर्ष प्रतिपादित किया है कि चूंकि “हिन्दू-मुस्लिम एकता के दूत को देय व्यवहार- सम्मान नही दिया गया, इसी कारण उसने अपनी भूमिका का परित्याग कर दिया तथा धीरे-धीरे कांग्रेस एवम उसकी नीतियों का घोर विरोधी हो गया.” अब ऐसे में आप समझ सकते हैं कि कौन है देश-तोडक और विभाजक तथा जोडनेवालों का बयान आसमानी है या सतही.
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