‘धर्म’ नहीं हैं ‘रिलीजन’ और ‘मजहब’


बीते कई दशकों से देश भर में रिलीजन व मजहब को धर्म कहने मानने और समझ लेने की मान्यता अनायास ही कायम हो गई है । किन्तु यह एक बहुत बडी बौद्धिक धूर्त्तता की परिणति है, जो तेजी से फैलती जा रही है और आम जनमानस ही नहीं, बल्कि सामान्य बुद्धि-सम्पन्न लोग भी इस मान्यता को सहज ही स्वीकार कर लेने की मूर्खता करते देखे जा रहे हैं । जबकि सच यह है कि रिलीजन व मजहब कहीं से भी धर्म के निकट तक नहीं हैं । क्योंकि, धर्म तो समस्त विश्व-वसुधा के कल्याणार्थ मानवोचित कर्तव्यों का समुच्चय है और सृष्टिकर्ता-ब्रह्म से निःसृत है । जबकि, रिलीजन एक पैगम्बर (तथाकथित ईश्वरीय दूत) के प्रति ‘फेथ’ (विश्वास) की अभिव्यक्ति और पूरी पृथ्वी पर श्वेतरंगी मनुष्यों के कल्पित-लक्षित आधिपत्य की कूटनीति है; तो मजहब हजरत मोहम्मद साहब (कथित अंतिम पैगम्बर) के अरबी साम्राज्य के विस्तार व सुरक्षा की रणनीति है । ये दोनों ही ब्रह्म से उलट काल्पनिक ‘अब्रह्म’ (अब्राह्म/अब्राहम) से अभिप्रेरित हैं । रिलीजन व मजहब दोनों धर्म-विरोधी, ब्रह्म विरोधी और वेदविरोधी हैं; इस कारण दोनों ‘अधर्म’ हैं । ये दोनों तो लगभग एक समान हैं, किन्तु इन दोनों में से कोई भी किसी भी कोण से धर्म का पर्याय कतई नहीं है । अब इसे ऐसे समझिए कि राजधर्म व राष्ट्रधर्म शब्द से जो अर्थ अभिव्यक्त होता है, उस अर्थ को अभिव्यक्त करने वाला अन्य कोई भी शब्द विश्व की किसी भी भाषा में उपलब्ध नहीं है । राजधर्म का अर्थ होता है- राज्य का धर्म, राजा का धर्म ; अर्थात राज्य का कर्तव्य या राजा का कर्तव्य । यहां धर्म का जो अर्थ प्रकट हो रहा है , सो ‘रिलीजन’ या ‘मजहब’ से प्रकट नहीं होता है । इसी कारण ‘राजरिलीजन’ और ‘राजमजहब’ नाम का कोई शब्द न किसी रिलीजियस भाषा-साहित्य में है, न किसी मजहबी भाषा-साहित्य में । ठीक इसी प्रकार से राष्ट्रधर्म अर्थात राष्ट्र के प्रति धर्म को अभिव्यक्त करने में रिलीजन व मजहब सर्वथा असमर्थ है ; तभी तो ‘राष्ट्ररिलीजन’ व ‘राष्ट्रमजहब’ अथवा ‘नेशनरिलीजन’ और ‘नेशनमजहब’ नाम के शब्द भी किसी भाषा-साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं । इसी प्रकार से ‘पितृधर्म’ व ‘पुत्रधर्म’ शब्द से पिता-पुत्र के जिस कर्तव्य-धर्म का बोध होता है, उसे अभिव्यक्त करने में भी रिलीजन व मजहब सर्वथा असमर्थ हैं । इस तथ्य से यह सत्य स्वयं सिद्ध हो जाता है कि रिलीजन व मजहब किसी भी हालत में धर्म के समानार्थी या पर्यायवाची कतई नहीं हैं । अंग्रेजी भाषा के ‘रिलीजन’ शब्द का अर्थ अंग्रेजी डिक्शनरी में भी ‘धर्म’ नहीं है; जबकि धर्म को अंग्रेजी में अभिव्यक्त करने वाला शब्द ‘धर्मा’ है, न कि रिलीजन ।
धर्म कभी भी किसी के प्रति वैर-वैमनस्यता की प्रेरणा कतई नहीं देता, अपितु वह तो विश्व-कल्याण की भावना भरता है तथा सभी मनुष्यों को परमात्मा की संतान बताते हुए वसुधैव कुटुम्बकम का बोध कराता है और तदनुसार जीवन जीने का आचार विचार संस्कार युक्त कर्तव्य का क्रियान्वयन सुनिश्चित करता है । जबकि रिलीजन, जो निश्चित रुप से क्रिश्चियनिटी ही है, सो जिसस क्राईस्ट को ‘गॉड’ का इकलौता पुत्र होने का दावा करते हुए उसके अनुयायियों को ही सम्पूर्ण पृथ्वी का स्वामी बताते हुए गैर-क्रिश्चियन एवं मूर्ति-पूजक प्रजा को उनकी दासता-अधीनता में रहने के लिए अभिषप्त करार देता है । उधर उस मजहब की तान तो और ही विचित्र है, जो निश्चित ही इस्लाम है , सो गैर-इस्लामियों को शत्रु-कूफ्र-काफीर मानते हुए उनकी हत्या को वाजीब ठहराता है और उनकी स्त्रियों-सम्पत्तियों को माल-ए-गनीमत मानता है । इन दोनों में से कोई भी समस्त विश्व-वसुधा का कल्याण कतई नहीं चाहता है, जबकि दोनों ही सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिकार अवश्य चाहते हैं और केवल चाहते ही भर नहीं है , बल्कि ऐसा दावा भी करते हैं और गैर-मजहबियों को मिटा देना अपना रिलीजियस-मजहबी कर्तव्य मानते हैं । अब ऐसे में इन दोनों में किसी को भी धर्म कैसे कहा जा सकता है, कैसे माना जा सकता है ? धर्म तो मानवेत्तर प्राणियों के प्रति भी दया भाव जगाता है- गायों को मातृवत सम्मान देता है तथा सर्पों की भी पूजा करता है ; जबकि रिलीजन और मजहब अन्य प्राणियों के मांसाहार के साथ-साथ गौमांस-भक्षण को भी वाजीब करार देता है । व्यष्टि से ले कर समष्टि तक सब के कल्याणार्थ जो मानवोचित आचरण है सो धर्म है ; किन्तु रिलीजन व मजहब इस भाव से सर्वथा शून्य हैं, तब भी उन्हें धर्म कहना बौद्धिक मूर्खता या धूर्त्तता नहीं तो और क्या है ? यह बौद्धिक मूर्खता विश्वास और आस्था के तर्क पर टिकी हुई बतायी जाती है, तो ठीक है आप विश्वास और आस्था को रिलीजन और मजहब कहिए , किन्तु उसे धर्म तो मत कहिए ; क्योंकि धर्म केवल विश्वास और आस्था मात्र नहीं है, अपितु विज्ञान-सम्मत विश्वास व श्रद्धाजनित आस्था से युक्त सर्वकल्याणकारी मानवोचित नैतिक आचरण एवं कर्त्तव्य की अवधारणा है धर्म, जो दस तत्वों से निर्धारित-परिभाषित हुआ है- सत्य, संयम, क्षमा, अहिंसा, तप, दान, शौच, शांति, अस्तेय, ब्रह्मचर्य । इनमें से कोई एक भी तत्व न रिलीजन में है, न मजहब में । धर्म धारण किये जाने वाले गुणों कर्तव्यों एवं वर्जनाओं का समुच्चय है , दूसरों पर थोपे जाने वाले निजी ‘फेथ’ या आस्था-विश्वास का पिटारा नहीं है ।
बावजूद इसके, राजनीति की पाठशाला के राजनीतिक शब्दकोश में रिलीजन व मजहब को भी धर्म का अर्थ जबरिया प्रदान कर दिया गया है और अधर्म को अभिव्यक्त करने वाले रिलीजन व मजहब को धर्म का समानार्थी-पर्यायवाची बताया जा रहा है । यह तो एक प्रकार का बौद्धिक व्याभिचार है , जिसके कारण कम से कम अपने भारत में अनेक अनर्थकारी समस्यायें उत्पन्न हो चुकी हैं और हो रही हैं । मसलन यह कि रिलीजन व मजहब की कारगुजारियों से धर्म यों ही बदनाम हो जा रहा है । रिलीजन व मजहब के भीतर की दुष्प्रवृतियों कुप्रथाओं को धर्म की अवांछनीयतायें करार दे दी जाती हैं; जबकि धर्म उनसे (तलाक, हिजाब, हलाला आदि से) अछुता है । रिलीजन-मजहब के झण्डाबरदारों की काली करतूतों के लिए भी धर्म ही लोगों के कोपभाजन का शिकार होता है । इसे आप इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि वर्ष १९४७ में रिलीजियस विस्तारवाद के झण्डाबरदारों (अंग्रेजों) ने मजहबियों को उकसा-भडका कर भारत का विभाजन किया-कराया और अब हमें यह पाठ पढाया जा रहा है कि धर्म के कारण अथवा धर्म के नाम पर देश बंट गया । जबकि यह तथ्य एक ऐतिहासिक सत्य है कि धर्म धारण करने वालों की ओर से भारत-विभाजन अर्थात पाकिस्तान-गठन की मांग कभी की ही नहीं की गई थी । भारत-विभाजन की मांग तो मजहबियों, अर्थात इस्लाम के अनुयायियों द्वारा की गई थी , जिसे ब्रिटिश रिलीजियस राज-सत्ता ने अंजाम दिया और उसकी सहायक सत्ता-लोलुप कांग्रेस ने उसे स्वीकार किया । धर्मधारी लोग तो उस विभाजन की राजनीति का विरोध करते रहे थे और आज भी ‘अखण्ड भारत’ की कामना-साधना करने में लगे हुए हैं । ऐसे में यह कहना कि धर्म के नाम पर अथवा धर्म के कारण भारत का विभाजन हुआ, सरासर झूठ है , राजनीतिक धूर्तता है और बौद्धिक मूर्खता है । इसी तरह से भारत में कहीं भी दंगा-फसाद करने-कराने का काम केवल और केवल मजहबी लोग ही करते रहे हैं, किन्तु कहा यह जाता है कि धर्म के नाम पर दंगे-फसाद होते रहे हैं । उदाहरण और भी हैं, जैसे यह कि समाज का एक तबका मजहबी शिक्षा की वजह से पिछ्डा हुआ है, जो सच भी है ; किन्तु जब इस तथ्य को ऐसे बयां किया जाता है कि धार्मिक शिक्षा ही पिछडापन का मुख्य कारण है , तब मजहबी लोग तो अपनी कट्टरतावश उसे नुकसानदेह नहीं मानते और उससे कोई समझौता नहीं करते, लेकिन समाज का धर्मधारी उदार तबका ही धर्म की शिक्षाओं से मुंह फेरने लगा है, जबकि धार्मिक शिक्षा कहीं से भी नुकसानदेह कतई नहीं है । बाइबिल-कुरान और वेद-शास्त्रों को एक ही श्रेणी की पुस्तक मान लिए जाने के कारण आज वेदाध्ययन-शास्त्राध्ययन उपेक्षित हो गया है , जिससे ज्ञान-विज्ञान के भारतीय स्रोत का प्रवाह बाधित हो गया, तो इसके लिए रिलीजन-मजहब और धर्म को एक ही मान लेने की मूर्खतापूर्ण मान्यता ही जिम्मेवार है । क्योंकि, विश्व के समस्त ज्ञान-विज्ञान का मूल स्रोत वेद ही है , जो अतुलनीय है । एक और उदाहरण- रिलीजन ‘क्रूशेड’ को प्रेरित करता है और मजहब ‘जिहाद’ को, जिसके आधार पर यह कहा जा सकता है , मार्क्स ने कहा भी है कि Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, and the soul of soulless conditions. It is the opium of the people. अर्थात “रिलीजन उत्पीड़ित प्राणी की आह है, एक हृदयहीन दुनिया का हृदय है, और आत्माहीन परिस्थितियों की आत्मा है । यह लोगों की अफीम है अफीम है” ; मार्क्स का यह कथन रिलीजन-मजहब के सम्बन्ध में है , धर्म पर तो यह लागू होता ही नहीं है । लेकिन उनके उस कथ्य को भारत में जब ऐसे प्रचारित किया जाता रहा है कि ‘धर्म अफीम’ है, तो जाहिर है- इससे धार्मिकता घटती है ; धार्मिकता, अर्थात मानवोचित कर्तव्यों-नैतिकताओं का समुच्चय, जो न रिलीजन में है, न मजहब में । मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि रिलीजन व मजहब की तमाम नकारात्मकताओं को धर्म के मत्थे मढ दिया जाता है, तो इससे धर्म की हानि होती है और परिणामतः धर्मधारी समाज में भी अनैतिकता बढने लगती है ।
ऐसे में अब यह आवश्यक हो गया है कि रिलीजन व मजहब को धर्म कहने पर कानूनन प्रतिबंध लगाया जाये । जिस तरह से शराब को दूध बता कर बेचना या किसी को धोखे से पिलाना अपराध है, उसी तरह से रिलीजन-मजहब को धर्म बताने वाली बौद्धिकता और धार्मिक लोगों को भ्रमित करने की इस धूर्त्तता को भी आपराधिक कृत्य माने जाने का सख्त कानून बनाया जाए । अन्यथा वैश्विक रिलीजियस मजहबी शक्तियां के द्वारा उनके विस्तारवादी षड्यंत्र के तहत कायम की गई इस धूर्त्तता के व्यापक प्रभाव से धर्म का जिस कदर ह्रास होता जा रहा है और बचे-खुचे धर्म को भी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर शासन जिस तरह से रिलीजन-मजहब के खूनी जबडे में धकेलने पर आमदा है, उससे तो धर्म का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा ।