भारत में जातीय जनगणना की राजनीति : हिन्दू-विरोधी अंग्रेजी षड्यंत्र की परिणति
समुचे भारत भर में इन दिनों जातीय जनगणना की राजनीति का जो शोर व्याप्त है, उसके मूल में ‘श्वेत चमडी’ की श्रेष्ठता-बोध पर आधारित रिलीजियस विस्तारवाद का एक बौद्धिक षड्यंत्र कायम है । अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन के दौरान क्रियान्वित हुआ वह षड्यंत्र वस्तुतः उपनिवेशवाद का औचित्य सिद्ध करने के लिए रचा गया था । उस औपनिवेशिक शासन एवं उसके साथ ईसाइयत के विस्तार में सक्रिय चर्च-मिशन को अनुकूलता प्रदान करने के लिए हिन्दू समाज को संकुचित-विघटित करना भी उसका मुख्य उद्देश्य था । इस हेतु अंग्रेजों ने ‘जनगणना’ की जो पद्धति निर्धारित की, सो वस्तुतः विशाल हिन्दू समाज को विभिन्न नस्लों व सैकडों जातियों में विभाजित कर उसका भू-सांस्कृतिक आकार घटा देने और उसे संगठित रिलीजन-मजहब (ईसाई-इस्लाम) के समतुल्य महज एक समुदाय बना कर छिन्न-भिन्न कर देने की योजना थी (है) । अन्यथा विशाल जनसंख्या वाले इस समाज के भीतर उन औपनिवेशिक शासकों द्वारा नस्लीकरण-जातिकरण किये जाने का कोई औचित्य नहीं था । अंग्रेजों ने जनगणना का जो प्रपत्र बनाया, उसमें मजहबियों (इस्लाम के अनुयायियों) को तो केवल ‘मुस्लिम’ पहचान से दर्ज करने का प्रावधान किया , किन्तु हिन्दुओं की बडी आबादी को फर्जी नस्लीय-जातीय आधार पर पृथक पहचान दे कर अलग कर देने के बाद बचे-खुचे समूहों की ही गणना ‘हिन्दू’ के तौर पर करने का विधान रचा । वर्ष1891 के जनगणना आयुक्त- अर्थल्स्टेन बेन्स ने प्रतिवेदित किया कि “जैन, बौद्ध, सिक्ख एवं एनीमिस्टिक्स ( विभिन्न जनजातियों) तथा इस्लाम, ईसाई, पारसी, यहूदी मतानुयायियों की गणना के बाद जो बचता है, वही ‘हिन्दू’ है ।
औपनिवेशिक शासन से पहले भारत की स्थिति; वर्ण-व्यवस्था और जाति- मालूम हो कि हिन्दू समाज के भीतर ‘जाति’ नामक व्यापक सामाजिक संरचना का उल्लेख किसी भी भारतीय धर्म-शास्त्र अथवा भारत के वास्तविक इतिहास के किसी भी ग्रंथ में कहीं नहीं है । कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के डॉ० निकोलस डर्क्स भी बताते हैं कि “जाति, भारतीय परंपरा की मूलभूत अभिव्यक्ति है ही नहीं । बल्कि, उनके अनुसार, ‘जाति’ एक आधुनिक परिघटना है । यह भारत और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के बीच एक ऐतिहासिक मुठभेड़ की उत्पाद है।” ब्रिटेन-शासित औपनिवेशिक भारतीय समाज में, भारतीयों की पहचान के आधार एकाधिक थे - मंदिर समुदाय, गांव-पड़ोस, वंश-गोत्र और पारिवारिक-व्यावसायिक समूह, आध्यात्मिक-धार्मिक पंथ आदि-आदि । 16वीं-17वीं सदी के यूरोपीयन यात्रियों ने ‘जाति’ का उल्लेख यदा-कदा ही किया है । ईस्ट इंडिया कंपनी के एक सैन्य-अधिकारी व लेखक-अनुवादक अलेक्जेंडर डॉव ने 1768 में मोहम्मद काशिम अस्तराबादी नामक एक फारसी इतिहासकार की पुस्तक-‘हिन्दोस्तान का इतिहास’ को ‘हिस्ट्री ऑफ हिन्दोस्तान’ नाम से अंग्रेजी में अनुदित किया था । उस ग्रंथ में डॉव ने ‘जाति’ को मात्र एक पृष्ठ का स्थान दिया है । जाहिर है, तब इस देश में जाति की कोई खास अहमियत नहीं थी । प्रारंभिक यूरोपीयन लेखकों ने ‘जाति’ को भारत की विशिष्टता के रुप में नहीं लिया, बल्कि उनने अपने देशों के समाज में व्याप्त ‘कास्ट सिस्टम’ की अपनी समझ के अनुरुप ही भारतीय वर्ण-व्यवस्था को भी उसी के समतुल्य समझा । प्राचीन भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्था के भीतर ही व्यवसाय-जनित जातियाँ तो थीं, किन्तु मौजुदा ‘जातिवाद’ नहीं था, जो आज बड़े पैमाने पर है । मेगस्थनिज नामक युरोपियन लेखक उन रोमन यात्रियों में से एक था, जिसने लम्बे समय तक भारत-भ्रमण कर ‘इण्डिका’ नामक पुस्तक लिखी । उस पुस्तक में उसने भारतीय समाज के व्यावसायिक आधार पर सात वर्गों में संगठित होने का वर्णन किया है । लेकिन वह सामाजिक वर्गीकरण भारत में अज्ञात काल से वर्णित वर्ण-व्यवस्था के अनुरूप न होकर तत्कालीन रोमन संस्कृति में प्रचलित व्यवस्था के अनुरूप वर्णित है ।
जातिवाद के रुप में जातियों का वर्तमान रुप अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन के द्वारा कायम की गई व्यूह-रचना का परिणाम है, जो ‘रिलीजियस विस्तारवाद’ की षड्यंत्रकारी नीतियों और उससे सम्बद्ध बुद्धिजीवियों की बुद्धिबाजी का उत्पाद है । प्राचीन काल से ले कर अंग्रेजी शासन की स्थापना तक भारत में जाति-व्यवस्था स्थिर नहीं थी । जातियाँ अपने ही चतुष्वर्ण- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र नामक चार वर्णों के अंदर, उभरती-गिरती रहती थीं । जबकि ब्राह्मण की भूमिका में धार्मिक शिक्षक तो विभिन्न जातियों से भी होते थे, कथित निचली जातियों से भी । उदाहरण के लिए , संत रविदास एक अछूत ‘चमार’ थे- चमड़े का काम करने वाले; तो संत कबीरदास एक जुलाहा थे- बुनकरी करने वाले । मानवविज्ञानी सुज़ैन बेली के अनुसार- “वास्तव में, यह संदेहास्पद है कि अंग्रेजों द्वारा ‘जाति’ को भारत की परिभाषित सामाजिक विशेषता बनाने से पहले समाज में इसका कोई खास महत्व या उग्रता थी” । क्योंकि, निकोलस डर्क्स, जी.एस. घुर्ये, रिचर्ड ईटन, डेविड शुलमैन और सिंथिया टैलबोट जैसे पेशेवर इतिहासकारों और भाषाशास्त्रियों द्वारा अध्ययन किए गए शाही दरबार के दस्तावेजों और यात्री विवरणों में पूर्व-औपनिवेशिक लिखित रिकॉर्ड में जाति का बहुत कम या कोई उल्लेख नहीं मिलता है । सामाजिक पहचानें लगातार बदलती रहीं । ‘दास’, ‘नौकर’ और ‘व्यापारी’ कभी राजा बन गए; किसान सैनिक बन गए, और सैनिक भी किसान बन गए; किसी की सामाजिक पहचान एक गाँव से दूसरे गाँव में जाने जितनी आसानी से बदल सकती थी; व्यवस्थित और व्यापक जातिगत उत्पीड़न या उसके परिणामस्वरूप बड़े पैमाने पर इस्लाम अपनाने के बहुत कम प्रमाण मिलते हैं” ।
हिन्दू-धर्मशास्त्रों में ‘जाति’ नहीं, ‘जात’ की महत्ता ; सनातन हिन्दू धर्म का आधार-ग्रंथ कहे जाने वाले चार वेदों में से किसी भी वेद में ‘जाति’ का तो कोई उल्लेख नहीं है, किन्तु अथर्व वेद और अन्य ग्रंथोण में ‘ जात’ का महत्व अवश्य बताया गया है । जी हां, ‘जात’ अर्थात जातकर्म, जो शास्त्र-वर्णित 16 वैदिक संस्कारों में से एक है ; जिसके माध्यम से नवजात शिशु का गर्भनाल काटा जाता है, तथा उसे उसके पिता के द्वारा कुल गोत्र प्रदान करते हुए समाज को समर्पित किया जाता है और उसकी मां उसे स्वर्ण-युक्त औषधि के साथ प्रथम स्तनपान कराती है । ‘जात’ शब्द का अर्थ है- उत्पन्न हुआ या जन्मा हुआ । ‘जातकर्म’ का संदेश व्यष्टि के संदर्भ में नवजात शिशु के कुल-गोत्र-परिवार से उसकी सम्बद्धता स्थापित करना है, तो समष्टि के संदर्भ में सम्बन्धित समाज को उसकी आजीविका अथवा व्यवसाय-कर्म के अवसर की उपलब्धता सुनिश्चित करने का दायित्व-बोध कराना । अर्थात शिशु जिस समाज में जन्मा है, उस समाज की पारम्परिक आजीविका भविष्य में उसके लिए भी सहज उपलब्ध हो और उस बावत समाज उसे बचपन से ही अपेक्षित प्रशिक्षण-मार्गदर्शन प्रदान करता रहे ; इस दायित्व का बोध करना जातकर्म का उद्देश्य हुआ करता था । जाहिर है- तब ‘जात’ भिन्न-भिन्न व्यवसाय-कर्म से सम्बद्ध लोगों-परिवारों के समाज की संज्ञा हुआ करती थी , जैसे – नोनिया (नमक सम्बन्धी), तेलिया (तेल सम्बन्धी), हलवाई (हलवा-मिठाई सम्बन्धी), लोहरा (लोहा सम्बन्धी), चर्मकार (चमडा सम्बन्धी), स्वर्णकार (सोना-चांदी सम्बन्धी), कुम्भकार (माटीकला सम्बन्धी), धोबी (वस्त्र-धुलाई सम्बन्धी) आदि । पश्चिम की भाषा में कहें तो वे ‘जात’ वस्तुतः ‘उत्पादक समूह’ (मैन्युफैक्चरिंग ग्रूप) थे । इसी प्रकार से भाषा व प्रदेश के आधार पर भी भिन्न-भिन्न जात निर्मित हुए ; जैसे- बंगाली, पंजाबी, मराठा, बिहारी आदि ।
जाति का रुपान्तरण और ‘कास्ट’ का चलन- किन्तु आज की ‘जाति’ हिन्दू-परम्परा की उस ‘जात’ से और ‘कर्म-जनित जाति’ से सर्वथा भिन्न है । हॉलाकि ‘जाति’ शब्द का उद्भव संस्कृत के ‘ज्ञाति’ शब्द से हुआ है, जो ‘एक ही परिवार या एक ही गोत्र-कुल से उत्त्पन्न’ अर्थ के साथ वेदों में प्रयुक्त हुआ है ; परंतु वरतमान परिप्रेक्ष्य में प्रचलित ‘जाति’ का तो अर्थ ही ‘कास्ट’(Caste) है । यह Caste शब्द पुर्तगाली भाषा के ‘कास्टा’ शब्द का अंग्रेजी रुपान्तरण है, जिसका अभिप्राय ‘ब्रीड’ अथवा नस्ल से है । आज भारत भर में विभिन्न सरकारी दस्तावेजों में ‘जाति’ शब्द का जो प्रयोग हो रहा है, वह इसी ‘कास्ट’ के अर्थ व अनुवाद के तौर पर हो रहा है । यहां मैं पुनः मानवविज्ञानी सुज़ैन बेली को पुनः उद्धृत कर रहा हूं, जिनके अनुसार “औपनिवेशिक काल के काफी पहले तक, भारत उपमहाद्वीप का अधिकांश भाग ऐसे लोगों से आबाद था, जिनके लिए जाति के औपचारिक भेद सीमित महत्व के थे, यहाँ तक कि तथाकथित हिंदू हृदय प्रदेश में भी... वे संस्थाएँ और विश्वास जिन्हें, अब अक्सर पारंपरिक जाति के तत्व के रूप में वर्णित किया जाता है, 18वीं शताब्दी के आरंभ में ही आकार ले रहे थे ।” अब यहां प्रश्न उठता है कि उस ‘जात’ और ‘ज्ञाति’ से आज की ‘कास्ट-अर्थक जाति’ का निर्माण कैसे हुआ, जिसका विखण्डनकारी वायरस पूरे समाज को ग्रसता हुआ राजनीति को भी अपनी जद में ले लिया है । यह जानने के लिए पहले यह जानना जरुरी है कि तब तक पश्चिम के कुछ बुद्धिजीवियों-भाषाविदों को संस्कृत का ज्ञान हो चुका था और उससे मिली जानकारियों के कारण वे हिन्दू और भारत के प्रति ईर्ष्या-भाव से इस कदर उद्वेलित हो उठे कि अपनी-अपनी चमडी का परीक्षण-मूल्यांकन करने लगे थे ।
वेद-वर्णित आर्य-श्रेष्ठता के ज्ञान से उपजा नस्ल-विज्ञान और षड्यंत्रकारी आख्यानों का अभियान - अंग्रेज (जर्मन-फेंच) भाषाविदों को सनातन धर्मग्रंथ- ‘वेद’ से साक्षात्कार हुआ और वेद-वर्णित ‘आर्य’ शब्द एवं उसके श्रेष्ठताबोधक अर्थ का ज्ञान हुआ, तो वे लोग स्वयं को ही आर्य प्रमाणित करने को उतावले हो उठे । उसी ज्ञान के आधार पर उनमें से एक जोसेफ आर्थर कॉमटे डी गोबिनो नामक लेखक ने (19वीं शताब्दी के मध्य में) गोरी चमडी की मानवजाति को सर्वश्रेष्ठ आर्य घोषित प्रचारित करने के बावत ‘एस्से ऑन द इनैक्वालिटी ऑफ ह्यूमन रेसेज’ (मानव जातियों की असमानता पर निबंध) पुस्तक लिख कर यह प्रतिपादित कर दिया था कि “श्वेत जाति अन्य सभी से श्रेष्ठ है और आर्य जाति श्वेत व्यक्तियों में सर्वोच्च है । फिर तो पश्चिमी जगत में ‘वैज्ञानिक नस्लवाद’ नाम से एक बौद्धिक आन्दोलन और भारत-सम्बन्धी किसिम-किसिम के आख्यान रचने-गढने का अभियान ही शुरु हो गया , जिसे उस पुस्तक से पर्याप्त सामग्री मिली । उस पुस्तक में गोबिनो के द्वारा बडी चालाकी से यह तर्क स्थापित कर दिया गया था कि “आर्यों ने, जो गोरी (श्वेत) नस्ल की सर्वोच्च सम्भावना का प्रतिनिधित्व करते थे , भारतीय उपमहाद्विप पर आक्रमण किया और मूल निवासियों के साथ घुलना-मिलना शुरु कर दिया । फिर उस घुलने-मिलने से अन्तर-प्रजनन के कारण श्रेष्ठता प्रदूषित हो जाने के खतरों को भांपते हुए उनने आत्म-संरक्षण के साधन के तौर पर ‘वर्ण-व्यवस्था’ निर्मित कर दी ।” ऑर्थर डे गोबिनो की उसी स्थापना को ईस्ट इण्डिया कम्पनी की चाकरी करने वाले एक भाषाविद- फ्रेडरिक मैक्समूलर ने आगे बढाया । उसने ब्रिटिश औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा भारत पर कायम उनके शासन का औचित्य सिद्ध करने तथा उसे मजबूती प्रदान करने और ‘क्रिश्चियनिटी’ के विस्तार का मार्ग प्रशस्त करने के लिए एक निहायत काल्पनिक आख्यान रच-गढ दिया । यह कि “गौतम बुद्ध के पूर्व सम्पूर्ण मानवता एशिया के स्टेपी नामक स्थान पर रहती थी । कालान्तर में उस मानव समांज से एक समूह पश्चिम की ओर जाकर यूरोप में बस गया एवं दूसरा समूह ईरान में और तीसरा समूह पूरब की ओर जा कर भारत में बस गया, जहां उनने पहले से बसे (मूल निवासी) भारतीयों को दक्षिण में खदेड़ दिया । वे खदेडे हुए लोग द्रविड थे और उनके स्थान पर बसे हुए लोग आर्य ।” बाद में इसी आधार पर वर्ष 1881 में ब्रिटिश प्रशासकों ने ‘इंपीरियल गजेटियर ऑफ इंडिया’ नाम से भारत का प्रथम गजेटियर प्रकाशित किया, जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य नामक तीन वर्णों को तो ‘आर्य’ के रुप में दर्ज किया गया, किन्तु शुद्रों को ‘मूल निवासी’ अर्थात ‘द्रविड’ घोषित कर दिया गया । यह प्रथम सरकारी दस्तावेज था, जब भारत को लूट कर एवं उसके उद्योगों को नष्ट कर, उसकी डेमोग्राफी को डॉक्युमेन्टरी प्रमाण के साथ छेड़-छाड़ कर, अंग्रेजों ने अपने मन से परिभाषित करने का प्रयास किया-था ।
षड्यंत्र के सूत्रधार- मैक्समूलर का व्याभिचार- ब्रिटिश हुक्मरानों से प्रति पृष्ठ चार पौण्ड की दर से पारिश्रमिक ले कर ऋगवेद का अनुवाद करने वाले मैक्समूलर ने केवल आर्य आब्रजन एवं आर्य-द्रविड नस्लीय विभाजन व संघर्ष का आख्यान ही नहीं गढा, अपितु उसने दोनों में नस्ली भेद-निर्धारण के बावत भी अपने वेदानुवाद में अवांछित मिलावट कर एक और सिद्धांत गढ दिया । उसने वेद-वर्णित वर्णों के मनुष्यों की शारीरिक विशिष्टतायें-भिन्नतायें खोजने का बहुत प्रयास किया, किन्तु कुछ नहीं मिला ; क्योंकि वर्ण-व्यवस्था शारीरिक भिन्नता अथवा नस्ल-भेद पर तो आधारित थी नहीं । तब उसने थक हार कर ऋग वेद में किसी स्थान पर प्रयुक्त ‘अनास’ शब्द (जिसका सम्बन्ध नासिका से कतई नहीं है) के आधार पर यह व्याख्यायित कर दिया कि “वेदों में विभिन्न वर्णों के लिए उनकी नासिकाओं (नाकों) की अलग-अलग पहचान का वर्णन है” । मैक्समूलर के इस बौद्धिक व्याभिचार से ही आगे जाति-नस्ल निर्धारण का प्रभावी औजार निर्मित हुआ ।
‘नाक-निर्मित’ औजार से रिस्ले ने गढा जातियों का प्रकार- मैक्समूलर के उस बौद्धिक व्याभिचार को लन्दन स्थित रॉयल एन्थ्रोपोलॉजिकल इंस्टिच्युट के एक प्रभावशाली ब्रिटिश अधिकारी- हर्बर्ट होप रिस्ले ने लपक लिया । उसने मैक्समूलर की उसी अधकचरी ‘वेद-व्याख्या’ को अपनी सुविधानुसार खींच-तान कर एक पूरी की पूरी ‘नासिका-तालिका’ ही बना दी । उस नासिका-तालिका से उसने हिन्दू समाज को चीड-फाड कर खण्डित-विखण्डित करने का जैसे एक धारदार औजार ही बना लिया । फिर तो आगे उसी ‘नाक-निर्मित’ औजार से उसने विभिन्न आकार-प्रकार की नाकों की लम्बाई-चौडाई-ऊंचाई के आधार पर सम्बन्धित नाक वालों के नस्ल-वर्ण-जाति का निर्धारण कर दिया । उससे पहले भारत में नस्ल, जातीयता या अनुवांशिकी से वर्ण-व्यवस्था का कोई सम्बन्ध नहीं था, वह तो जीविका से उत्त्पन्न पारम्परिक विरासत या सामाजिक हैसियत पर आधारित था ; जबकि ‘जात’ (जाति) स्थानीय और गहन रुप से संगठित सामाजिक ढांचा था । वे ग्रामीण सामाजिक ढांचे क्षैतिज रुप से संगठित थे , न कि एक के ऊपर एक ऊर्ध्वाधर पिरामिडनुमा वर्गीकृत । जाति-वर्ण व्यवस्था की वही मौलिक विशिष्टता महात्मा गांधी को आदर्श भारतीय ‘ग्राम-स्वराज’ के लिए प्रेरित किया था । हिन्दू समाज में वर्ण-वयवस्था के भीतर क्षैतिज रुप से संगठित व जीविकाधारित जातियां सामाजिक सुरक्षा-घेरा की तरह थीं और इस कारण रिलीजियस-मजहबी विस्तारवाद के मार्ग में बाधक थीं । तभी तो जाति-नस्ल का विभेदकारी ढांचा तैयार करने के लिए रिस्ले को सूत्र-समीकरण प्रदान करने वाले मैक्समूलर ने अपना दृषिकोण साफ शब्दों में स्पष्ट करते हुए कहा था- “जाति, जो हिन्दुओं के धर्मान्तरण के मार्ग में अब तक एक रुकावट सिद्ध हुई है, भविष्य में यह (यही) धर्मान्तरण के लिए सर्वाधिक शक्तिशाली इंजन बन सकती है; सिर्फ व्यक्तियों के लिए नहीं, बल्कि भारतीय समाज (हिन्दू समाज) के समस्त वर्गों के लिए ।”
किन्तु रिलीजियस विस्तारवाद के औपनिवेशिक षड्यंत्रकारियों ने हिन्दू समाज के इस सुरक्षा-घेरा को ही तहस-नहस कर दिया । सन 1901 में भारतीय जनगणना आयोग का आयुक्त एवं 1910 में अध्यक्ष बन हर्बर्ट होप रिस्ले ने अपनी उसी नासिका-तालिका के आधार पर जनगणना करा कर समस्त भारतीयों को 2378 जातियों-जनजातियों एवं 43 नस्ल-समूहों तथा आर्य-दविड नामक दो मुख्य नस्लों में विभाजित कर दिया और यह तर्क दिया कि “प्रत्येक भारतीय की पहचान के लिए ‘वर्ण , कबीला व नस्ल’ ही सबसे विश्वसनीय रुप है ।” इससे पहले उसने ‘वर्ण’ को ‘कास्ट’ शब्द से विस्थापित किया । कास्ट की उत्पत्ति के कई सिद्धान्त बताये और भारतीय सिद्धान्त में मनुस्मृति का संदर्भ देते हुए लिखा कि--“जाति-की उत्पत्ति के संदर्भ में साहित्य में कई सिद्धान्त मिलते हैं । इसका वर्णन उस पुस्तक के दसवें चैप्टर में मिलता है, जिसमें धर्म, कानून, परम्परा और अध्यात्म का मिश्रण है, जिसको ‘इन्स्टीट्यूट ऑफ मनु’ कहते हैं।” फिर उन जातियों-नस्लों का निर्धारण उसने कैसे किया-कराया उसकी भी कुछ बानगी देखिए-
ब्रिटिश शासकों की जबरिया नीति एवं रिस्ले की मनमानी से जातियां बनीं- रिस्ले ने ब्रिटिश शासन की जरुरतों के अनुसार अपने मनमाने तरीके से सामाजिक प्रधानता-वरीयता क्रम (ऊँच-नीच क्रम) निर्धारित कर तीन आर्य/सवर्ण समूह (ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य) और छह जाति-समूह (तीनों वर्ण और तीनों के एक-एक समकक्ष) बनाये । अर्थात, ब्राह्मण और ब्राह्मण के समकक्ष,( Caste Allied to Brahmins) क्षत्रिय और क्षत्रिय के समकक्ष एवं वैश्य और वैश्य के समकक्ष । शेष चौथे वर्ण को धूर्त्ततापूर्वक उस सूची से बाहर कर दिया और तर्क यह दिया कि ‘आर्य आक्रमण सिद्धान्त' के तहत आर्यों ने मूल निवासियों की स्त्रियों को अपने कब्जे में लेकर उनसे जो सन्तानें पैदा कीं वे ही शूद्र हैं । शूद्रों को चतुष्वर्ण से बाहर तथाकथित मूल निवासियों की ‘मिश्रित जाति’ घोषित कर उन्हें चौथे समूह में दर्ज किया-कराया और शूद्र शब्द एवं वर्ण को पूरी सूची से गायब करते हुए एक पांचवें समूह की रचना कर दी, जिसे ‘ म्लेच्छ’ या ’ दस्यु’ कहा । फिर उसने एक अन्य पद्धति का ईजाद किया- ब्राह्मण जिस-जिस समूह-समुदाय के साथ खाता-पीता या सामाजिक व्यवहार करता है , उनका भी अलग समूह बने । तो इस आधार पर छह अन्य जाति- समूह , अर्थात कुल बारह समूह (ग्रूप) निर्मित कर दिए । उनमें से कुछ समूह ब्राह्मणों के लिए खाने-पीने की वस्तुएं बनाने वालों के थे , जैसे- तम्बोली, भड्भुजा ; तो कुछ उन समुदायों के थे, जिनके घर ब्राह्मण पकवान खा सकते थे या नहीं । 1911 के जनगणना आयुक्त ई.ए. गेट ने सभी जनगणना अधिकारियों को निर्देशित किया हुआ था कि कोई भी जाति ब्राह्मण वर्ग से कितनी-कितनी नीची है, इस हिसाब से ही उनका पदानुक्रम निर्धारित किया जाए । अर्थात ‘रेफरेंस’ लाईन का आधार ब्राह्मणों को ही माना गया ।
निशाने पर ब्राह्मण- दलीत-अछूत का कृत्रिम वर्गीकरण- जाति-निर्धारण की पूरी प्रक्रिया में रिस्ले के निशाने पर ब्राह्मण ही रहे, क्योंकि चर्च मिशनरियों के अनुसार हिन्दुओं के ईसाइकरण में ब्राह्मण ही सबसे बडे अवरोधक थे । इस कारण वह ब्राह्मणों को हिन्दू-समाज के भीतर विभिन्न जातियों के शत्रु सिद्ध करना चाहते थे । इस आधार पर अछूत-अस्पृश्य-दलीत जाति-समूह का निर्धारण भी बडे हास्यास्पद तर्कों से किया गया, जिसके लिए अनेक अटकलें गढी गई थीं; जैसे यह कि जो ब्राह्मणों का वर्चस्व नहीं स्वीकारते, जो ब्राह्मणों या हिन्दू-गुरुओं से मंत्र नहीं लेते, जो वेदों को प्रमाण नहीं मानते, जो प्रमुख हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा नहीं करते, जो ब्राह्मणों को पुरोहित नहीं बनाते, जिनका पौरोहित्य अच्छे ब्राह्मण नहीं करते, जो अपने परिजनों के शव जलाने के बजाय गाड़ते हैं, आदि-आदि । जाहिर है- इन बेतुके बनावटी आधारों पर अनेक समुदायों को ‘अछूत-अस्पृश्य-दलीत’ बताया-बनाया गया ।
षड्यंत्र की सफलता; समाज बंटा, हिन्दू घटा - नस्लवाद की अवधारणा को निरूपित करते हुए रिस्ले ने ‘नाक’ और ‘कपाल’ की माप को लेकर एक नियम बनाया ‘unfailing Law of caste’ , जिसके अनुसार उसने ‘नेजल बेस इंडेक्स’ के आधार पर सुतवा नाक वाले लोगों की ऊँची सामाजिक हैसियत निर्धारित कर दी और चौड़ी नाक वालों को निम्न सामाजिक स्थिति में दर्ज कर दी । फलतः अनेक समुदायों में असंतोष और परस्पर वैमनस्य कायम हो गया, जिसके बावत अनेक मुकदमें भी दर्ज हुए । किन्तु ब्रिटिश प्रशासन के द्वारा एक बार जो दर्ज हो गया, वही आज तक तमाम सरकारी अभिलेखों में दर्ज है । अंग्रेज प्रशासकों को उसके औचित्य-अनौचित्य से तो कोई मतलब था नहीं, असल मतलब हिन्दू समाज के आन्तरिक विभाजन से था, जिसके बावत रिस्ले ने ही कहा था- “ वह अपने वैज्ञानिक अनुसंधान (नस्ल विज्ञान) के सहारे हिन्दू-जनसमुदाय से ‘अनार्यों’ की एक बडी जनसंख्या को अलग कर देना चाहता था” । जबकि, अनार्य तो कोई था नहीं । किन्तु, अंग्रेज प्रशासकों ने उस तथाकथित नस्लविज्ञानी की षड्यंत्रकारी अनुशंसा पर हिन्दू समाज की एक बडी आबादी को जबरिया ‘अछूत-अस्पृश्य-दलीत-मूल निवासी’ आदि नाम से अनार्य-द्रविड घोषित कर दिया । परिणामतः देश में आय दिनों पारस्परिक संघर्ष होते रहता है । कुल मिला कर देखें तो रिलीजियस विस्तारवादियों का यह सुविचारित षड्यंत्र सफलतापूर्वक नित नये-नये परिणाम दे रहा है ; जबकि पूरा का पूरा हिन्दू समाज सैकडों जातियों बंट कर आकार में भी घट तो गया ही ।
वर्तमान परिदृश्य - भारत की वर्तमान जनगणना-पद्धति जो है, वह रिस्लीकृत ही है, जो वर्ष 1901 से लागू है । रिस्ले के आग्रह पर ब्रिटिश सरकार ने पूरे भारत में जातियों एवं नस्लों की सूचियां व जानकारियां एकत्र करने के लिए उसी की अधीनता में एक सर्वेक्षण विभाग की स्थापना की थी, जिसने सिर, नाक आदि प्राकृतिक मानव अंगों के आधार पर नस्ल निर्धारण की अधुनातन यूरोपीय विद्या का भारत में प्रयोग किया और प्रत्येक भारतीय (हिन्दू) में कितना आर्य, कितना अनार्य अंश है, इसका निर्णय करने वाली एक विशाल ग्रंथ-श्रृंखला का निर्माण कराया था । क्षेत्रवार ‘कास्ट्स एण्ड ट्राइब्स’ की वे सूचियां ही आज भी भारतीय विश्वविद्यालयों में शोध की प्रमुख संदर्भ-सामग्री के रुप में प्रयुक्त हो रही हैं । तब जातियों-जनजातियों की संख्या 2378 थी, जो हर दसवर्षीय गणना में बढते-बढते अब अनुमानतः 5000 से भी अधिक हो गई बतायी जाती है । जबकि इस बीच कई नयी जाति-समूहों का भी निर्माण किया जा चुका है । कोविड महामारी के कारण वर्ष 2021 मे नहीं हो पाने वाली जनगणना अब आगामी वर्ष 2027 में जातीय आधार पर होने वाली है । जातियां वही हैं, जो अंग्रेजी षड्यंत्र के तहत रिस्ले की मनमानी से फर्जी आधार पर नामित व पदानुक्रमित की हुई हैं ।
निष्कर्ष- ‘आर्य’ अन्यत्र कहीं से भारत नहीं आये , अपितु भारत ही आर्यों की माट्रुभूमि रही है और द्रविड कोई पृथक नस्ल समुदाय नहीं हैं ; यह तथ्य अनेक अद्यतन पुरातात्विक अनुसंधानों से सिद्ध हो चुका है । भीम राव आम्बेडकर ने तो उसी दौर में कडा प्रतिकार करते हुए रिस्ले के इस नस्ल-सिद्धांत को झूठी बुनियाद पर आधारित सिद्ध करते हुए कहा था- नासिकाओं की नाप यह स्थापित करते हैं कि ब्राह्मण और अछूत एक ही नस्ल के हैं । इससे निष्कर्ष यह निकलता है कि अगर न्राह्मण आर्य हैं तो अछूत भी आर्य हैं । बावजूद इसके भारत के वर्तमान राजनीतिक नेताओं , नीति-नियन्ताओं एवं कार्यपालक अधिकारियों से ले कर इतिहास व समाज शास्त्र के विद्यार्थियों-शोधार्थियों और बुद्धिजीवियों के मन-मानस में आज भी यही दुराग्रह भरा हुआ है कि आर्य विदेशी आक्रमणकारी हैं, काली चमडी के लोग ही मूलनिवासी हैं और ब्राह्मणों ने हिन्दू-समाज को जातियों में विभाजित किया हुआ है । ऐसे में अब समय आ गया है कि इन झूठे आख्यानों को यत्नपूर्वक ध्वस्त कर दिया जाए । इसके लिए यह आवश्यक है कि भारत सरकार कानून बना कर हर्बर्ट होप रिस्ले और फ्रेडरिक मैक्समूलर की उन तमाम स्थापनाओं-मान्यताओं को देश के समस्त शिक्षण-संस्थानों एवं अभिलेखागारों और पुरातात्विक सर्वेक्षणों सहित जनगणना आयोग के सभी दस्तावेजों से शीघ्र खारिज कर दे ।
• मनोज ज्वाला ; जुलाई’ 2025
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