आध्यात्मिक आन्दोलन से आएगा सच्चा स्वराज


भारत राष्ट्र की कथा-गाथा अत्यन्त प्राचीन एवं समृद्ध है । इस समृद्धि और सम्पन्नता के पीछे त्याग एवं बलिदान की एक लम्बी परम्परा रही है । हालाँकि इस दुर्धर्ष प्रचण्ड परम्परा को जीवन्त रखने वाले तत्त्व वर्तमान में कमजोर भले ही पड़ गए हैं परन्तु अभी विनष्ट नहीं हुए हैं ; अपितु जीवित हैं और राष्ट्रिन्नयन के पुरुषार्थ की राह पर अग्रसर हैं । यद्यपि बीच के बीते कालखण्ड में विदेशी आक्रान्ताओं के हाथों हमारा नुकसान भी बहुत हुआ तथापि उससे हमारी तमस व जड़ता का ही नाश हुआ और हमारी सोयी हुई राष्ट्रीय चेतना में नव प्राण का संचार भी । सन 1857 की क्रान्ति के चक्रवात ने इस राष्ट्र के पराभव को सन 1947 में विभाजन के साथ ही सही किन्तु पुनर्वैभव के मार्ग पर अग्रसर कर दिया । बावजूद इसके. हमारे राष्ट्र की चुनौतियां क्म नहीं हुई हैं । राष्ट्रीय अखण्डता पर खतरों के साये देखे जा रहे हैं ।
भारत के विकास और इसकी समृद्धि की कहानी आन्तरिक उत्थान के विचार और कर्म के मूल में निहित एक विराट्-व्यापक एवं उच्चतर शक्ति के समन्वय की कहानी है । आज हमने अपने विकास को केवल आर्थिक मानदण्डों तक सीमित कर दिया है । आर्थिक समृद्धि एवं सम्पन्नता को सर्वोपरि मानना हमारे राष्ट्र का नहीं पाश्चात्य राष्ट्रों का सिद्धान्त है । हमें हमारे खोये हुए वैभव की प्राप्ति इन चीजों से नहीं होने वाली है । अपरिपक्व, उच्छृंखल, अंधानुकरण एवं नैतिकताविहीन आचरण से न तो हम विजयी हो सकते हैं और न ही समग्र विकास कर सकते हैं । ऐसे आचरण हमें आन्तरिक रूप से खोखला और बौना बनाते हैं । ये बातें भौतिक विकास के लिए कुछ सीमा तक चल सकती हैं, परन्तु आन्तरिक व वास्तविक विकास में इनका कोई मूल्य नहीं है । इसके लिए तो हमें अपने भीतर झाँकना पड़ेगा और व्यक्ति-परिवार-समाज व राष्ट्र के उत्त्कर्ष का पोषण करने वाले मूल तत्व जिसका नाम अध्यात्म है उसे अपने जीवन में उतारना होगा ।
महर्षि अरविन्द कहते हैं कि “हमारी आध्यात्मिकता,साधना, तपस्या, ज्ञान, कर्म, भक्ति, शक्ति ही हमें स्वतंत्र और महान् बनाएँगे । आध्यात्मिकता का अर्थ है अपने अस्तित्त्व का ज्ञान । वह ज्ञान जो हमें बोध कराए कि हम कौन हैं, क्यों है और हमारा उद्देश्य-लक्ष्य क्या है ? जब तक हम स्वयं को नहीं पहचान पाएँगे तब तक यह कैसे जान पाएँगे कि स्वयं के प्रति एवं राष्ट्र के प्रति हमारी जिम्मेदारी क्या है ? स्वयं को ठीक से जान लेने के पश्चात्, अपनी सामर्थ्य और शक्ति को पहचान लेने के बाद ही हम किसी कार्य में सफल हो सकते हैं और राष्ट्र एवं हमारे बीच के अंतर्संबंधों को परख सकते हैं । अतः अपने राष्ट्र को समग्र रूप से विकसित करने के लिए राजनीतिक या आर्थिक आन्दोलनों की नहीं बल्कि आध्यात्मिक आन्दोलन की आवश्यकता है” ।
आजादी बाद के विभिन्न आन्दोलनों की असफलता के पीछे निरी बौद्धिकता का होना ही मुख्य कारण रहा है । बुद्धि सदैव किसी समस्या के समाधान में सक्षम नहीं होती है । इसके लिए बुद्धि के साथ-साथ भाव-संवेदनाओं से युक्त हृदय का होना भी आवश्यक है । बुद्धि एकाँगी है, वह हर चीज को अपने ढंग से सोचती-विचारती है । उसकी अपनी निश्चित सीमाएँ भी हैं, परन्तु इसके साथ निश्छल हृदयाग्रह का सम्मिश्रण भी आवश्यक है . तभी समस्याओं का सही निदान प्रस्तुत करने में बुद्धि सहायक हो सकती है । भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन की जिस मुख्य धारा का नेतृत्व कांग्रेस के हाथों में था उसके अधिकतर नेताओं में बुद्धि की ही प्रधानता थी ।
इस राष्ट्रीयतावाद ने हृदय की महत् प्रेरणाओं को अधिक वेग से, अधिक तेजी से और बड़ी ही कुशलता के संग विवेकपूर्ण बौद्धिक क्रियाओं में सामंजस्य एवं संयोग करने का प्रयास किया । परन्तु यह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में पूरी तरह से सफल नहीं रहा । क्योंकि इसमें भावना, संवेदना एवं आकाँक्षा का पक्ष तो अपनी भारतीय संस्कृति की अविरल भावधारा से जुड़ा था, परन्तु क्रिया और व्यवहार में हम यूरोपीय विचारधारा से अलग नहीं हो सके । इस वाद ने परिस्थिति की जटिलता को पहचानने, यथार्थता को जानने, अपनी लघुता एवं समस्याओं को परखने तथा गहरी अंतर्दृष्टि प्राप्त करने के लिए बुद्धि से सहायता ली, परन्तु इसे अन्तःस्फूरित प्रज्ञा का पर्याप्त आश्रय अनुपलब्ध रहा ।
राष्ट्रीयतावाद ने भव्य कल्पनाएँ दी । राष्ट्र के उत्त्कर्ष की पर्याप्त परिकल्पनाएँ भी गढ़ी तथा अनेक आदर्शों को अपनाने के लिए हमें प्रेरित भी किया जिससे हमारा पूरा राष्ट्र संगठित हुआ और लगा कि इस आन्दोलन से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव ही नहीं हिलेगी वरन् उसे अपने कार्य व्यापार सहित भारत की राजनीति से भी दूर जाना पड़ेगा । इन सबके बावजूद वह गम्भीरतम सत्य को देखने और ईश्वर की इच्छा को समझ पाने में सर्वथा असमर्थ रहा । उस आन्दोलन में जोश एवं उत्साह की कमी नहीं थी बल्कि शताब्दियों में इस राष्ट्र की जड़ता क्रियाशील हुई थी । ऐसा आवेग और उत्साह शताब्दियों बाद मिला था, परन्तु उसमें उस इच्छा-शक्ति और पवित्र वैचारिकता का अभाव था
स्वतंत्रता-संघर्षकालीन उस राष्ट्रवाद को सूक्ष्म और स्थूल दोनों स्तर पर बल मिला था । स्थूल रूप में महात्मा गाँधी, बालगंगाधर तिलक, सुभाषचन्द्र बोस, गोखले, नेहरू, चाफेकर बंधु, भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला जैसी दिव्य हुतात्माओं का महति योगदान था ; तो सूक्ष्म रूप में स्वामी विवेकानन्द से ले कर महर्षि अरविन्द एवं रमण महर्षि और हिमालय की दुर्लभ दिव्य आत्माओं की भूमिकायें सक्रिय थीं । श्री अरविन्द और सुभाषचन्द्र बोस भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के महानायक थे । हालाँकि इसका स्थूल श्रेय भगवान् ने महात्मा गाँधी को दिया । इन दोनों स्तरों से स्वतंत्रता आन्दोलन को जो बाह्य एवं आन्तरिक बल मिला उससे भारत की विजय सुनिश्चित हो गई । यही हुआ । परतंत्रता की बेड़ियों को तोड़कर भारत स्वतंत्र हुआ । किन्तु स्वतंत्रता के पश्चात राष्ट्रोन्नयन के रथ को हाँकने के लिए बदली परिस्थितियों में जिस सूझबूझ की आवश्यकता पड़ी वैसा नेतृत्व नहीं मिल पाया । निःस्वार्थ एवं तप, ज्ञान से परिपूरित आत्मबल-सम्पन्न राजनीतिक नेतृत्व का सर्वथा अभाव रहा।
इसी अभाव के कारण स्वतंत्रता के पश्चात् आर्थिक विकास के मार्ग पर अग्रसर होने के बावजूद आन्तरिक दुर्बलताओं से देश को निजात नहीं दिलाया जा सका । विकास की दिशा में ले जाने में सघन संघर्ष करना पड़ा जो अभी तक जारी है । यह तभी सम्भव होगा जब हम बुद्धि के साथ हृदय की भाषा सुनेंगे। अन्तर ज्ञान को पाये बिना प्रगति समग्र नहीं हो सकती। यह आध्यात्मिक आन्दोलन से ही सफल हो सकता है। जिसे विचार क्राँति के रूप में बल एवं पोषण दिया जा रहा है। इस क्राँति के प्रणेता को राष्ट्र की इस स्थिति का ज्ञान था अतः उन्होंने स्वतंत्रता आन्दोलन के साथ एक छोटे रूप में सही विचार क्राँति के रूप में आध्यात्मिक आन्दोलन की शुरुआत की थी, जिसे आज विराट् एवं व्यापक रूप में देखा जा सकता है। भावी जगत् की परिकल्पना इसी के माध्यम से सार्थक होने की संभावना व्यक्त की जा रही है।
स्वतंत्रता के बाद भले ही हमारे राष्ट्र को अनगिन हिचकोले खाने पड़ें हो, परन्तु सूक्ष्म एवं आध्यात्मिक रूप से अनेकों कार्य सम्पन्न किए गए। श्री अरविन्द कहते हैं- दक्षिणेश्वर में जो काम शुरू हुआ था वह पूरा होने में अभी कोसों दूर है, वह समझा तक नहीं गया है। स्वामी विवेकानन्द ने जो कुछ उपलब्ध किया और जिसे अभिवर्धित करने का प्रयत्न किया वह अभी तक मूर्त नहीं हुआ है। विजयकृष्ण गोस्वामी ने भविष्य के जिस सत्य को अपने अन्दर संजोए रखा वह अभी तक उनके शिष्यों के सामने पूरी तरह प्रकट नहीं हुआ है। और अब और अधिक शक्तिशाली, अधिक उन्मुक्त ईश्वरीय प्रकाश की तैयारी हो रही है। अधिक ठोस शक्ति प्रकट होने को है, परन्तु यह सब कहाँ होगा, कब होगा यह रहस्यमय है। संभवतः यह विचार क्राँति के रूप में हो अतः हमें अपनी सक्रिय भूमिका निभाने के लिए कटिबद्ध रहना चाहिए। तभी हमारे राष्ट्र का समग्र एवं सर्वांगीण विकास सम्भव हो सकेगा।