भारत के विघटन हेतु सक्रिय अभारतीय संगठन


भारत के विघटन का षड्यंत्र और अभारतीय वैश्विक संगठन-तंत्र
भारत के विरूद्ध षड्यंत्र और अभारतीय संगठनों का वैश्विक तंत्र
पिछली दो शताब्दियों में औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के पुरोधा बने इंग्लैण्ड द्वारा ‘फुट डालो-शासन करो’ की नीति के तहत भारत पर शासन करते हुए अपनी दूरगामी योजना के तहत सन १९४७ में इसे खण्डित कर इसकी सत्ता का हस्तान्तरण कर दिए जाने के बावजूद शेष भारत के और अधिक विखण्डन का षड्यंत्र आज भी जारी है । हालाकि पश्चिम की उन साम्राज्यवादी शक्तियों का नीति-नियन्ता आज भी वेटिकन सिटी ही है , जिसके गुप्त निर्देशानुसार सन ४७ से इस षडयंत्र की दूसरी पारी चल रही है ; किन्तु अब इसका पुरोधा इंग्लैण्ड नहीं , बल्कि अमेरिका बना हुआ है अमेरिका । पारी-परिवर्तन के बाद इस षड्यंत्र के क्रियान्वयन की रीति-नीति में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक ही था , सो अमेरिका ने ब्रिटेन द्वारा भारत की ध्वस्त की जा चुकी पारम्परिक-सामाजिक-शैक्षिक-राजनीतिक परम्पराओं के ध्वंशावशेष पर बोये गए विषैले बीजों को खाद-पानी देना तो जारी रखा, किन्तु इसके माध्यम बदल दिए । इतना ही नहीं , बल्कि इन बदले हुए माध्यमों के चाल-चलन और चेहरे भी बदल दिए ।
अब अमेरिका विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं एवं बहुराष्ट्रीय कम्पनियों तथा स्वयंसेवी-समाजसेवी संस्थाओं और गैर-सरकारी व गैर-राजनीतिक संगठनों के माध्यम से ‘मुंह में राम बगल में छुरी’ वाली कहावत की तर्ज पर छद्म तरीके से पश्चिम के साम्राज्यवादी षड्यंत्रों को अंजाम देने में लगा हुआ है । वेटिकन सिटी से निर्देशित और अमेरिका से पोषित-संचालित इन संस्थाओं को बेनकाब किया जाना अब जरुरी हो गया है , जब एक तरफ विश्व-मंच पर भारत से उसकी दोस्ती और विविध विषयक संधियों की नयी-नयी ईबारतें लिखी जा रही हैं , तो दूसरे तरफ यहां कभी ‘असहिष्णुता’ का ग्राफ ऊपर की ओर बढा हुआ मापा जा रहा है , तो कभी ‘दलितों की सुरक्षा ’ का ग्राफ नीचे की ओर घटा हुआ दिखाया जा रहा है । ये संस्थायें भिन्न-भिन्न प्रकृति और प्रवृति की हैं । कुछ शैक्षणिक-अकादमिक हैं जो शिक्षण-अध्ययन के नाम पर भारत के विभिन्न मुद्दों पर तरह-तरह का शोध-अनुसंधान करती रहती हैं ; तो कुछ मानवाधिकारवादी और लोकतंत्राधिकारवादी हैं , जो वैसे तो दुनिया भर में मानवता एवं लोकतंत्र की पहरेदारी करती हैं किन्तु भारत में विशेष निगरानी भी करती हैं । जबकि कुछ संस्थायें ऐसी हैं , जो इन कार्यों के लिए अनेकानेक संस्थायें खडी कर उन्हें धन मुहैय्या करती-कराती हैं , तो कुछ ऐसी भी हैं , जो इन तमाम संस्थाओं का ध्रुवीकरण (नेटवर्किंग) करती हुई तत्सम्बन्धी कार्यों के लिए उनका मार्ग प्रशस्त करती हैं ।
‘दलित फ्रीडम नेटवर्क’ (डी०एफ०एन०) संयुक्त राज्य अमेरिका एक ऐसी संस्था है , जो भारत में दलितों के अधिकारों की सुरक्षा के नाम पर उन्हें भडकाने के लिए विभिन्न भारतीय-अभारतीय संस्थानों का वित्त-पोषण और नीति-निर्धारण करती है । इसका प्रमुख कर्त्ता-धर्ता डा० जोजेफ डिसुजा नामक अंग्रेज है , जो आल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल (ए०आई०सी०सी०) का भी प्रमुख है । डी०एन०एफ० के लोग खुद को भारतीय दलितों की मुक्ति का अगुवा होने का दावा करते हैं । इस डी०एन०एफ० की कार्यकारिणी समिति और सलाहकार बोर्ड में तमाम वैसे ही लोग हैं , जो हिन्दुओं के धर्मान्तरण एवं भारत के विभाजन के लिए काम करने वाली विभिन्न ईसाई मिशनरियों से सम्बद्ध हैं । वस्तुतः धर्मान्तरण और विभाजन ही डी०एन०एफ० की दलित-मुक्ति परियोजना का गुप्त एजेण्डा है , जिसके लिए यह संस्था भारत में दलितों के उत्पीडन की इक्की-दुक्की घटनाओं को भी बढा-चढा कर दुनिया भर में प्रचारित करती है , तथा दलितों को सवर्णों के विरूद्ध विभाजन की हद तक भडकाने के निमित्त विविध विषयक उत्त्पीडन साहित्य के प्रकाशन-वितरण व तत्सम्बन्धी विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करती-कराती है । डी०एन०एफ० और इससे जुडी संस्थाओं के दलित-मुक्ति कार्यक्रमों की सफलता का आलम यह है कि इनका नियमित पाक्षिक प्रकाशन- ‘दलित वायस’ भारत में पाकिस्तान की तर्ज पर एक पृथक ‘दलितस्तान ’ राज्य की वकालत करता रहता है । डी०एन०एफ० को अमेरिकी सरकार का ऐसा वरदहस्त प्राप्त है कि वह अमेरिका-स्थित दलित-विषयक विभिन्न सकारी आयोगों के समक्ष भारत से दलित आन्दोलनकारियों को ले जा-ले जा कर भारत सरकार के विरूद्ध गवाहियां भी दिलाता है । अखिल भारतीय अनुसूचित जाति-जनजाति संगठन महासंघ के अध्यक्ष उदित राज ऐसे ही एक दलित नेता हैं , जो डी०एन०एफ० के धन से राजनीति करते हुए भारत सरकार के विरूद्ध विभिन्न अमेरिकी आयोगों व मंचों के समक्ष गवाहियां देते रहने के बावजूद इन दिनों भाजपा से सांसद भी बने हुए हैं । डी०एन०एफ० दलितों को भडकाने वाली राजनीति करने के लिए ही नहीं , बल्कि भारत के बहुसंख्य समाज के विरूद्ध दलित उत्त्पीडन और उसके निवारणार्थ विभाजन की वकालत-विषयक शोध- अनुसंधान के लिए शिक्षार्थियों व शिक्षाविदों को भी फेलोशिप और छात्रवृत्ति प्रदान करता है ।
प्रवासी भारतीय अमेरिकी लेखक राजीव मलहोत्रा ने अपनी पुस्तक- ‘ब्रिकिंग इण्डिया’ में भारत के विरूद्ध भारत में सक्रिय इन संस्थाओं की कलई खोल कर रख दी है । उनके अनुसार भारत में डी०एन०एफ० के सम्बन्ध राजीव गांधी फाउण्डेशन के साथ भी हैं , जो अब दलित अलगाववाद विषयक शोध-अनुसंधान कार्यक्रमों को भी प्रायोजित करता है । यह डी०एन०एफ० ‘क्रिश्चियन सालिडैरिटी वर्ल्ड वाइल्ड’ नामक अंतर्राष्ट्रीय संगठन से भी सम्बद्ध है , जो दलित-ईसाई गठजोड के वैश्वीकरण का काम करता है और विविध वैश्विक मंचों पर दलित उत्त्पीडन का हौवा खडा कर विश्व-महाशक्तियों से भारत में हस्तक्षेप करने की अपील करते रहता है ।
‘पालिसी इंस्टिच्युट फार रिलिजन एण्ड स्टेट’ (पी०आई०एफ०आर०ए०एस०) अर्थात ‘पिफ्रास’ अमेरिका की एक ऐसी संस्था है , जिसका चेहरा तो समाज और राज्य के मानवतावादी लोकतान्त्रिक आधार के अनुकूल नीति-निर्धारण को प्रोत्साहित करने वाला है , किन्तु इसकी खोपडी में भारत की वैविध्यतापूर्ण एकता को खण्डित करने की योजनायें घूमती रहती हैं । इसके स्वरुप की वास्तविकता यह है कि इसका कार्यपालक निदेशक जौन प्रभुदोस नामक एक ऐसा व्यक्ति है , जो धर्मान्तरणकारी कट्टरपंथी चर्च-मिशनरी संगठनों के गठबन्धन “द फेडरेशन आफ इण्डियन अमेरिकन क्रिश्चियन आर्गनाइजेसंस आफ नार्थ अमेरिका” अर्थात ‘फियाकोना’ का भी प्रतिनिधित्व करता है । ये दोनो संगठन एक ओर विश्व-मंच पर भारत को ‘मुस्लिम व ईसाई अल्पसंख्यकों का उत्त्पीडक देश’ के रुप में घेरने की साजिशें रचते रहते हैं , तो दूसरी ओर भारत के भीतर नस्ली भेद-भाव एवं सामाजिक फुट पैदा करने के लिए विभिन्न तरह के हथकण्डे अपनाते रहते हैं ।
‘पिफ्रास’ का एक सदस्य सी० राबर्ट्सन अमेरिकी सरकार के विदेश-सेवा संस्थान से सम्बद्ध है , जो ‘अमरिकन नेशनल एण्डाउमेण्ट आफ ह्यूमैनिटिज’ नामक संस्था के आर्थिक सहयोग से भारत में रामायण के राम को नस्लवादी , महिला उत्पीडक व मुस्लिम-विरोधी बताने के लिए बहुविध कार्यक्रमों का आयोजन कराता है । इन दोनों अमेरिकी संस्थाओं की भारत-विरोधी विखण्डनकारी गतिविधियों का आलम यह है कि ‘पिफ्रास’ ने ‘युनाइटेड मेथोडिस्ट बोर्ड आफ चर्च एण्ड सोसाइटी’ और ‘द नेशनल काउन्सिल आफ चर्चेज आफ क्राइस्ट इन द यु०एस०ए०’ के सहयोग से सम्पूर्ण दक्षिण एशिया के विभिन्न देशों- विशेषकर भारत में सक्रिय अपनी विभिन्न संस्थाओं के प्रतिनिधियों का एक सम्मेलन सन २००२ में आयोजित किया था , जिसमें उसके एक भारतीय प्रतिनिधि और कांग्रेसी मनमोहनी सरकार की सोनिया-प्रणित राष्ट्रीय सलाहकर समिति के प्रमुख सदस्य- जान दयाल ने यह तर्क प्रस्तुत किया था कि भारत में अल्पसंख्यक लोग अपनी सुरक्षा और अपने प्रति किये जाने वाले अपराधों के मामले में अपराधियों को दण्डित करने के लिए भारतीय राज्य पर भरोसा नहीं कर सकते ।
इस तरह से यह अमेरिकी संस्था एक तरफ भारत के भीतर बहुसंख्यक समाज के विरूद्ध दलितों और अल्पसंख्यकों को भडका कर विखण्डन के दरार को चौडा करने में लगी हुई है , तो दूसरे तरफ भारत के बाहर वैश्विक मंचों पर भारतीय राज्य-व्यवस्था को अक्षम-अयोग्य व पक्षपाती होने का दुष्प्रचार कर इस देश में अमेरिका के हस्तक्षेप का वातवरण तैयार करने में लगी हुई है । ऐसी एक नहीं अनेक संस्थायें हैं , जो भिन्न-भिन्न तरह के मुद्दों को लेकर भारत के विरूद्ध अलग-अलग मोर्चा खोली हुई हैं किन्तु वैश्विक स्तर पर एक संगठित नेटवर्क के तहत उन सबका उद्देश्य एक है और वह है भारत के विखण्डन की जमीन तैयार करना एवं इसे अमेरिका के अघोषित साम्राज्य अथवा यों कहिए , नस्ल आधारित ‘श्वेत साम्राज्य ’ के अधीन करना ।
. भारत के विरूद्ध अभारतीय संस्थाओं का वैश्विक तंत्र – ०२
‘रिलीजियस फ्रीडम’ का अर्थ और ‘फ्रीडम हाऊस’ का अनर्थ
मनोज ज्वाला
भारत को विखण्डित करने और इसे नस्लीय रंग-भेद आधारित ‘श्वेत साम्राज्य’ के अधीन कर लेने को सक्रिय पश्चिमी-विदेशी संस्थाओं-संगठनों में “ फ्रीडम हाऊस ” भी एक शक्तिशाली नाम है । अमेरिका की जमीन पर स्थापित यह संस्था अपने कई सहयोगी संस्थाओं-संगठनों के साथ भारत भूमि पर विखण्डनकारी कार्यों को अंजाम देने में संलग्न है । ‘इण्डियन शोसल इंस्टिच्युट फार ह्यूमन राइट्स डाक्युमेण्टेशन सेण्टर’ , ‘आल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल’ , ‘युनाइटेड क्रिश्चियन काउंसिल फार ह्यूमन राइट्स’ , ‘आल इण्डिया फेडरेशन आफ आर्गनाइजेशन्स फार डेमोक्रेटिक राइट्स’ तथा ‘कैथोलिक बिशप्स कान्फ्रेन्स आफ इण्डिया’ और ‘नेशनल अलावेन्स फार विमेन’ आदि अनेक ऐसी संस्थायें हैं ; जो नाम से तो भारतीय (इण्डियन) प्रतीत होती हैं, किन्तु वास्तव में ये सब की सब अभारतीय हैं और ‘फ्रीडम हाऊस’ की सहयोगी हैं । इस फ्रीडम हाऊस का पूरा नाम ‘सेण्टर फार रिलीजियस फ्रीडम’ है । इस और इसकी तमाम सहयोगी संस्थाओं की ‘रिलीजियस फ्रीडम’ का मतलब ‘धार्मिक स्वतंत्रता’, जैसा कि इसका शाब्दिक अर्थ है , सो नहीं है ; बल्कि सनातन-वैदिक-हिन्दू धर्म से पृथक हो जाना और ईसाइयत को अपना लेना ही इनके अनुसार ‘फ्रीडम’ है । इन संस्थाओं के अनुसार जो व्यक्ति अथवा समुदाय ईसाइयत से दूर है , वो ‘फ्री’ (स्वतंत्र) नहीं है , क्योंकि स्वतंत्रता तो ‘ईसाइयत’ में ही है । दूसरे शब्दों में यह कि पुराने सनातन धर्म से बंध कर रहना धार्मिक गुलामी है और नये धर्म अर्थात ईसाइयत में दीक्षित हो जाना धार्मिक स्वतंत्रता (रिलिजियस फ्रीडम) है । इस अनर्थ वे खुल कर कहते-बताते नहीं हैं , किन्तु उनके काम इसी सिद्धांत पर आधारित और इसी की ओर प्रेरित हैं । ‘फ्रीडम हाऊस’ और इससे जुडी संस्थायें धार्मिक स्वतंत्रता की अपनी इसी अवधारणा पर भारतीय कानूनों की समीक्षा करती हैं और भारत सरकार पर दबाव कायम कर इस अवधारणा के अनुकूल कानून बनवाती हैं । इसके लिए ये संस्थायें तरह-तरह के मुद्दों का निर्माण करती हैं और तत्सम्बन्धी तरह-तरह के आन्दोलन प्रायोजित करती-कराती हैं । फ्रीडम हाऊस ने अभी हाल ही में ‘हिन्दू एक्सट्रीमिज्म’ अर्थात ‘हिन्दू उग्रवाद’ नाम से बे सिर-पैर का एक मुद्दा खडा किया था और इस तथाकथित कपोल-कल्पित प्रायोजित-सुनियोजित मुद्दे को मीडिया के माध्यम से दुनिया भर में प्रचारित करते हुए इस पर बहस-विमर्श के बहुविध कार्यक्रमों का आयोजन कर “ द राइजिंग आफ हिन्दू एक्सट्रीमिज्म ” (हिन्दू उग्रवाद का उदय ) नाम से एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी । भारत में कई तथाकथित बौद्धिक दलाल इसके अघोषित अभिकर्ता-कार्यकर्ता हैं ; जिनमें जान दयाल, टिमथी शाह , रेवरेण्ड सेंड्रीक प्रकाश , कुमार स्वामी तथा राम पुनयानी आदि शामिल हैं । ये वही लोग हैं जो कांग्रेस की मनमोहनी सरकार में सोनिया-प्रणित राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के प्रमुख सदस्य थे और भारत के बहुसंख्यक समाज को दंगाई घोषित करने वाला ‘साम्प्रदायिक व लक्षित हिंसा-रोधी विधेयक’ का मसौदा तैयार किया था, जो संस्द के दोनों सदनों से पारित नहीं हो सका । उक्त रिपोर्ट में हिन्दू-उग्रवाद का बे-सुरा, बे-तुका राग अलापते हुए इन लाल बुझक्कडों के सहयोग से ‘फ्रीडम हाऊस’ ने जो रिपोर्ट प्रकाशित की थी , उसके कुछ अंशों पर ही गौर करने से आप इसकी नीति-नीयत और इसके निहित उद्देश्यों को समझ सकते हैं ।
“ द राइजिंग आफ हिन्दू एक्सट्रीमिज्म ” नामक उक्त रिपोर्ट में ‘रिलीजियस फ्रीडम’ की वकालत करने वाली इस संस्था ने जिन बातों पर जोर दिया है , सो तो वास्तव में हिन्दुओं के धर्मान्तरण में मिशनरियों के समक्ष खडी बाधाओं पर उसकी चिन्ता की ही अभिव्यक्ति है । उस रिपोर्ट में धार्मिक स्वतंत्रता सम्बन्धी भारतीय कानूनों की गलत व्याख्या करते हुए भारत को ‘एक धार्मिक उत्पीडक देश’ घोषित कर इसके विरूद्ध यहां अमेरिका के हस्तक्षेप की आवश्यकता पर बल दिया गया है । मालूम हो कि हमारे देश के ‘धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम’ और तत्सम्बन्धी अन्य कानून धोखाधडी से अथवा बहला-फुसला कर या जबरिया किये जाने वाले धर्मान्तरण को रोकते हैं , न कि स्वेच्छा से किये जा रहे धर्मान्तरण को । किन्तु उस रिपोर्ट में इसकी व्याख्या इन शब्दों में की गयी है- “ भारतीय कानून के तहत किसी धर्म अथवा पन्थ विशेष के आध्यात्मिक लाभ पर बल देना गिरफ्तारी का कारण हो सकता है । भारत में धर्मान्तरण आधारित टकराव इस कारण है , क्योंकि ईसाइयत के माध्यम से दलितों की मुक्ति से अगडी जाति के हिन्दू घबडाते हैं ” । इस व्याख्या में ‘आध्यात्मिक लाभ’ और ‘मुक्ति’ शब्द का गलत इस्तेमाल किया गया है , जिससे फ्रीडम हाऊस और उसकी सहयोगी संस्थाओं की मंशा और मान्यता दोनों स्पष्ट हो जाती है । इन संस्थाओं की वास्तविक मंशा धर्मान्तरण है और मान्यता यह है कि धर्मान्तरण से धर्मान्तरित व्यक्ति को ‘आध्यात्मिक लाभ’ मिलता है , जबकि ईसाइयत में धर्मान्तरित होने से तो ‘मुक्ति’ भी सुनिश्चित है । फ्रीडम हाऊस ने भारत के दलितों के आध्यात्मिक लाभ और उनकी मुक्ति के लिए धर्मान्तरण अर्थात ईसाइकरण को आवश्यक माना है और भारतीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम में तत्सम्बन्धी संशोधन करने अथवा उसे पूरी तरह समाप्त कर देने पर जोर देते हुए इस बावत अमेरिका से हस्तक्षेप की मांग की है ।
यह विडम्बना ही नहीं धूर्त्तता भी है कि जिन लोगों को आध्यात्मिक ज्ञान का ककहरा-मात्रा भी नहीं मालूम है वे दलितों को आध्यात्मिक लाभ देने में लगे हुए हैं और इस तथाकथित लाभ के नाम पर उनके गले में गुलामी का फंदा डालने वाले वे लोग उस फंदे को ही मुक्ति का माध्यम व स्वयं को मुक्तिदाता भी बता रहे हैं । इतना ही नहीं, इसकी पूरी अनुकूलता नहीं मिल पाने के कारण वे भारत के कानून-व्यवस्था को धार्मिक स्वतंत्रता का उत्पीडक बताते हुए इसके विरूद्ध अमेरिका से हस्तक्षेप की मांग भी कर रहे हैं ।
दर-असल यह सब अमेरिकी सरकार और वेटिकन-चर्च के पोप की चाल है । ‘दलित फ्रीडम नेटवर्क’ तथा ‘फ्रीडम हाऊस’ एवं ऐसी अन्य तमाम संस्थाये ‘श्वेत साम्राज्य’ के विस्तार की विश्वव्यापी दूरगामी योजना के तहत भारत में धर्मान्तरण और अमेरिकी हस्तक्षेप की जमीन तैयार करने और इसका औचित्य सिद्ध करने के बावत वेटिकन व अमेरिका के एजेण्ट के रूप में काम कर रही हैं । तभी तो फ्रीडम हाऊस की उक्त रिपोर्ट में अमेरिका के राजनीतिक हितों के आधार पर भारत में अमेरिकी हस्तक्षेप की मांग की गई है और कहा गया है कि “ जिन देशों में धार्मिक स्वतंत्रता के रिकार्ड अच्छे हैं , उन्हें अमेरिका से अच्छे सहयोग की सम्भावना है ” । फ्रीडम हाऊस की रिपोर्ट के अनुसार उन देशों में धार्मिक स्वतंत्रता के रिकार्ड अच्छे हैं , जिनमें अमेरिकी हस्तक्षेप ज्यादा है; जैसे खाडी के देश । उसकी रिपोर्ट पर टिप्प्णी करते हुर राजीव मलहोत्रा ने अपनी पुस्तक ‘ब्रेकिंग इण्डिया’ में लिखा है- “ अनेक ‘अच्छे अमेरिकी सहयोगी’ धार्मिक स्वतंत्रता-हनन के सर्वाधिक खराब रिकार्ड वाले सैनिक तानाशाह हैं ; फिर भी अमेरिका द्वारा उन्हें बच्चों की तरह सम्भाल कर रखा जाता है , जबकि भारत जैसे लोकतंत्र उसकी कडी आलोचना के शिकार होते रहते हैं ।” अमेरिकी हस्तक्षेप की वकालत करने वाली फ्रीडम हाऊस की उक्त रिपोर्ट के पूर्वाग्रह पर टाइम्स आफ इण्डिया (०५ मार्च’२००२) में एक सटीक टिप्पणी आई थी- “ धार्मिक स्वतंत्रता के मामले में जहां भारत जैसे पन्थ-निरपेक्ष और लोकतान्त्रिक देश प्रशंसा के पात्र हैं , वहीं सऊदी अरब जैसे देश पर , जो विश्व के सबसे कम स्वतंत्रता वाले देशों में से एक है , ३२ पृष्ठों में चर्चा की गई है । संयुक्त राज्य अमेरिका अपने उन सहयोगियों को दण्दित करने के प्रति कोई रुचि नहीं दिखाता , जिन्हें वह धन देता है , जैसे- मिस्र , तुर्की और पाकिस्तान ; जबकि उन देशों को फटकारते-धमकाते रहता है , जहां उसका हस्तक्षेप कम से कम है ”।
फ्रीडम हाऊस की तरह एक नहीं अनेक संस्थायें हैं , जो ‘एक दमनकारी गणराज्य’ , ‘विफल लोकतंत्र’ तथा ‘अल्पसंख्यकों के उत्पीडक देश’ के रूप में भारत की आपत्तिजनक तस्वीर निर्मित करने और अमेरिकी हस्तक्षेप की आवश्यकता व औचित्य सिद्ध करने के लिए यहां के विभिन्न राजनीतिबाजों , बुद्धिजीवियों , शिक्षाविदों एवं छोटी-छोटी स्वयंसेवी संस्थाओं को धन व मंच दोनों उपलब्ध कराती हैं । इतना ही नहीं , इस बावत इनके लिए वे तरह-तरह के पुरस्कार-सम्मान , यात्रा-अनुदान और उपाधियां-पदवियां भी प्रदान करती रहती हैं । इन विदेशी अमेरिकी संस्थाओं की भारत में चल रही गतिविधियों की व्यापक छान-बीन किये जाने की जरुरत है । यह काम आसान कतई नहीं है , क्योंकि ये संस्थायें अपने उपरोक्त गुप्त एजेण्डों का क्रियान्वयन भारतीय लोगों और संस्थाओं के माध्यम से करती-कराती हैं । अतएव , विदेशी संस्थाओं से सम्पर्क-सरोकार वाले भारतीय लोगों की गतिविधियों पर निगरानी रखना जरुरी है ।
- १४ अगस्त’२०१६;