मैकाले-मैक्समूलर के सामने रावण-महिषासुर भी बौने


भारत पर अपना औपनिवेशिक प्रभुत्व स्थापित कर लेने के बाद ब्रिटिश हूक्मरानों-चिंतकों व यूरोपियन दार्शनिकों ने भारत को नजदीक से देखने-समझने के बाद यह रहस्य जान लिया था कि इस राष्ट्र की शाश्वतता , इसकी संजीवनी शक्ति अर्थात संस्कृति में सन्निहित है और इसकी संस्कृति का संवाहक है यहां का विपुल साहित्य और शिक्षण । यह जान लेने के बाद उननें भारतवासियों की राष्ट्रीय चेतना को नष्ट-भ्रष्ट कर इसे सदा-सदा के लिए अपने साम्राज्य के अधीन धन-सम्पदा वैभाव-विलास उपलब्ध कराते रहनेवाला ‘इण्डिया’ नामक उपनिवेश बनाये रखने की अपनी दूरगामी कूट्नीतिक योजना के तहत भारतीय संस्कृति पर हमला करने हेतु सर्वप्रथम भारतीय साहित्य को निशाना बनाया और अंग्रेजी-शिक्षण पद्धति को उसका माध्यम । इसके लिए उननें युरोप के कतिपय बौद्धिक महारथियों के साथ षड्यंत्र रच कर फ्रेडरिक मैक्समूलर और थामस विलिंगटन मैकाले के हाथों उसे क्रियान्वित करने-कराने के बावत भारतीय संस्कृति-साहित्य को ब्रिटिश-उपनिवेशवाद व ईसाई- विस्तारवाद के अनुकूल एवं भारतीय राष्ट्र्वाद के प्रतिकूल तोड्ने-मरोडने तथा भारतीय शिक्षण पद्धति को तदनुसार बदल डालने का काम पूरी तत्परता से किया-कराया । अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति को भारत में लागू करने के पीछे ब्रिटिश हूक्मरानों की जो मंशा थी , सो इस शिक्षण-पद्धति के प्रवर्तक– थामस वेलिंगटन मैकाले के एक लेख के निम्नांकित अंश मात्र से स्पष्ट हो जाता है –
अर्थात , “ जनता (भारतीय जन) की शिक्षा ईसाइयत के सभी रूपों के सामान्य सिद्धांतों व ईसाई मौलिकता के अनुसार व्यवहृत होनी चाहिये । यह शिक्षा (अंग्रेजी शिक्षा) उस मुख्य उद्देश्य की पूर्ति का एक उच्च व मूल्यवान साधन हो , जिसके लिये इस सरकार (ब्रिटिश) का अस्तित्व कायम हुआ है । निश्चय ही यह देश (भारत) ऐसा नहीं है , जहां ईसाइयत का प्रसार अधिक हुआ है ’’ । ध्यातव्य है कि ब्रिटिश-संसद में इस शिक्षा-पद्धति की वकालत करते हुए अपने भाषण में उसने कहा था कि “ भारत पर हम तभी लम्बे समय तक शासन कर सकते हैं, जब इसकी रीढ की हड्डी तोड दें , जो इसकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक विरासत है ” ।
ब्रिटिश योजना के तहत भारत के छात्र-छात्राओं को भारतीय राष्ट्रीयता के प्रतिकूल धर्मान्तरणकारी शिक्षा देने वाली अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति जब भारत पर (पहले बंगाल में) थोप दी गई , तब अपनी मंशा फलीभूत होते देख इसके मुख्य सूत्रधार थामस मैकाले नें हर्षित होकर अपनें पिता को जो पत्र लिखा उसका अनुवाद भी द्रष्टब्य है । उसने लिखा- “ मेरे प्रिय पिताजी ! हमारे अंग्रेजी स्कूल आश्चर्यपूर्वक उन्नति कर रहे हैं । हिन्दुओं पर इस शिक्षा का अद्भूत प्रभाव पडा है । अंग्रेजी शिक्षा-प्राप्त कोई भी हिन्दू ऐसा नही है, जो अपने धर्म से हार्दिक जुडाव रखता हो । कुछ लोग नीति के मामले में हिन्दू रह गए हैं , तो कुछ ईसाई बनते जा रहे हैं । मेरा यह विश्वास है कि अगर हमारी यह शिक्षण-पद्धति कायम रही तो, यहां की सम्मानित जातियों में आगामी तीस वर्षों के भीतर बंगाल के अंदर एक भी मूर्तिपूजक ( अर्थात हिन्दू ) नहीं रह जायगा । इनके धर्म में न्यूनतम हस्तक्षेप की भी आवश्यकता नहीं पडेगी । स्वाभाविक ही ज्ञान-बृद्धि की विचारशीलता से यह सब हो जायगा । इस सम्भावना पर मुझे हार्दिक प्रसन्न्ता हो रही है ।”
ऐसा ही हुआ भी, और आज भी हो रहा है । मैकाले-प्रणीत धर्मन्तरणकारी अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति का ही यह परिणाम है कि हमारी पीढियां न केवल दुनिया की सर्वाधिक प्राचीन व समृद्ध भाषा- संस्कृत से दूर हो गई हैं , बल्कि अपनी सांस्कृतिक जडों से भी इस कदर कटती जा रही हैं कि उनमें अंग्रेजियत अपनाने की होड मची हुई है । वर्ष-प्रतिपदा और विक्रम संवत के प्रति लोगों में जिज्ञाशा तक नहीं बची है, किन्तु इक्कतीस दिसम्बर व एक जनवरी को नववर्ष का जश्न मनाने लोग सडकों पर पशुवत आचरण करते देखे जाते हैं । बोल-चाल की मातृ-भाषा में भी अंग्रेजी की छौंक लगाने वाली यह प्रवृति पापा-मम्मी-डैडी से भी आगे बढ कर प्रथम-पूज्य गणेश को ‘गणेशा’ और जगतपिता शिव को .. मैकाले ने भारत की ‘रीढ’ तोड देने के लिये हमारा इतिहास शौर्य-स्वाभिमान-विहीनता के हिसाब से ऐसे लिखवाया और भारतीय धर्म-शास्त्रों व वैदिक ग्रंथों का ऐसा विकृत-प्रक्षेपित अनुवाद करवाया कि इन्हें पढनेवालों को सिर्फ हीनता के सिवाय कोई गर्व-बोध हो ही नहीं ; बल्कि ब्रिटिश उपनिवेशवादी सत्ता और ईसाई विस्तारवादी सभ्यता के प्रति प्रशस्ति व भक्ति का मानस निर्मित होता रहे । इस दूरगामी लक्ष्य-सिद्धि हेतु मैकाले ने एक तथाकथित योरोपीय विद्वान- मैक्समूलर को इस कार्य के सम्पादन हेतु आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में प्रतिनियुक्त करवा कर उससे अपनी योजनापूर्वक भारतीय इतिहास-लेखन तथा वेदादि भारतीय शास्त्रों-ग्रंथों का अर्थानुवादकरण कार्य शुरु करवाया । साथ ही इधर भारत भर में यह प्रचारित करवा दिया कि मैक्समूलर संस्कृत व अंग्रेजी का ऐसा प्रकाण्ड विद्वान है कि उसने वेदों-उपनिषदों का अंग्रेजी में जो अर्थानुवाद किया है, सो सर्वथा अदवितीय व प्रामाणिक है ।
उधर उस मैक्समूलर ने भारतीय साहित्य के अर्थानुवादन का काम कितनी प्रामाणिकतापूर्वक किया सो आप सिर्फ इतने ही से समझ सकते हैं कि उसके द्वारा लिखित-अनुदित पुस्तकों में भारतीयों को यह पढाया जाने लगा कि ‘आर्य’ भारत के निवासी नहीं हैं, बल्कि विदेशी आक्रमणकारी हैं और हिन्दू एक घिनौना व कायर मजहब है ; भारत कोई राष्ट्र नहीं है , बल्कि एक ऐसा महाद्वीप है , जिसमें अनेक देश व अनेक मजहबी संस्कृतियां रहती हैं ; और वेदों-उपनिषदों में अन्धविश्वासी किस्से-कहानियां लिखी हुई हैं , जिनके कारण ही भारत का पतन हुआ ; आदि-आदि । मैक्समूलर की ऐसी कुटिल करतूतों का आपको अगर विश्वास न होता हो , तो लीजिये उसी के एक मित्र रेवरेण्ड एडवर्ड, डाक्टर आफ डिविनिटी ने उसके उन कार्यों पर प्रसन्न होकर उसे जो पत्र लिखा था, उसका अनुवादित अंश देखिये , इससे आपको सहज ही यह विश्वास हो जायेगा ।
अर्थात, “ तुम्हारा काम (प्राचीन भारतीय ग्रंथों के अनुवाद का काम ) भारत को धर्मांतरित करने के प्रयासों में एक नये युग का निर्माण करेगा । तुमको अपने यहां स्थान देकर आक्सफोर्ड ने एक ऐसे काम में सहायता प्रादान की है , जो भारत को धर्मांतरित करने में प्रारम्भिक और चिरस्थाई प्रभाव उत्त्पन्न करेगा ।”
स्पष्ट है कि अंग्रेजों ने भारत पर अपनी राजनीतिक-धार्मिक प्रभुता-सत्ता की जडों को भारतीय समाज में गहराई तक जमाने के लिये न केवल भारत की प्राचीन गुरूकुलीय शिक्षण-पद्धति को ध्वस्त कर उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षण-पद्धति कायम की ; बल्कि भारतीय संस्कृति के संवाहक साहित्य में भी घुसपैठ कर इसे अपने जद में ले लिया । इतना ही नहीं, ब्रिटिश हूक्मरानों ने शिक्षण-संस्थानों से लेकर तमाम भाषिक-साहित्यिक-बौद्धिक संस्थानों तक में मैकाले-मैक्समूलरवादी असुरों की नियुक्ति कर हमारी संस्कृत भाषा से भी हमें विमुख कर उसकी जडों में मट्ठा डालने को तत्पर कर दिया । अंततः देश-विभाजन के पश्चात ‘ इण्डिया दैट इज भारत ’ की अंग्रेजी अवधारणा से युक्त हमारा गणतंत्र कायम होने के बावजूद ‘गण’ और ‘तंत्र’ , दोनों पर विलायती ‘इण्डिया’ का शासन कायम हो जाने के कारण शिक्षण-पद्धति वही की वही रह गई- अभारतीय और यूरोपीय । नतीजा यह हुआ कि आज यहां का थोडा शिक्षित व्यक्ति अपनी शिक्षा के कारण ज्ञान-विज्ञान के मूल स्रोत- वेद-वेदांग-पुराण-उपनिषद-सांख्य-सूत्र-रामायण-महाभारत-गीता को काल्पनिक-दकियानुसी मान भारतीय रीति-नीति-भाषा-संस्कृति को नकारते हुए युरोपीय-अंग्रेजों की हर चीज- कुरीति-कुनीति-असभ्यता-अपसंस्कृति-भषा-भूषा अपनाने को तत्पर है , तो ज्यादा शिक्षित व्यक्ति सर्वतोभावेन अंग्रेज बन जाने और भारत छोड कर यूरोपीय देशों में ही बस जाने को उन्मुख है ।
इस मैकाले शिक्षण-पद्धति को सर्वनाशकारी प्रमाणित करने वाले और भारतीय शिक्षण-पद्धति की पुनर्स्थापना का रचनात्मक आन्दोलन चला रहे उत्तमभाई जवानमल शाह का कहना बिल्कुल सही है कि “आज हमारे देश में जिसके पास जितनी बडी शैक्षणिक डिग्री है , वह उतना ही ज्यादा अंग्रेज है , उसके भीतर भारत एवं भारतीय भाषा-संस्कृत व संस्कृति के प्रति उतना ही ज्यादा तिरस्कार-भाव है ; किन्तु ड्रग-डांस-डिस्को-डायवोर्स वाली पश्चिमी आसुरी अपसंस्कृति से उसका उतना ही ज्यादा लगाव है” । मैकालासुर और मैक्समुलरासुर की संयुक्त साजिश-जनित इस आसुरी अपसंस्कृति के बढते प्रचलन के कारण आज एक ओर जहां भारतीय राष्ट्रीयता और सामाजिक नैतिकता का क्षरण हो रहा है, वहीं दूसरी ओर देश में भ्रष्टाचार व समाज में व्याभिचार बेतहाशा बढ रहा है । इसके मूल में है शिक्षा की अभारतीय भोगवादी शिक्षण-पद्धति, जिसके प्रवर्तक ‘मैकाले’ व ‘मैक्समूलर’ को भारतीय-सुर-संस्कृति-विरोधी ‘असुर’ कहना तनिक भी अतिश्योक्ति नहीं है । इन पश्चिमी असुरों के सामने रावण-महिषासुर भी बौने हैं, बौने । रावण-महिषासुर से हमारी संस्कृति, भाषा, व शिक्षा-पद्धति और हमारे ज्ञान-विज्ञान के स्रोत-सहित्य को कोई क्षति नहीं हुई थी, जबकि इन पश्चिमी असुरों की असुरता से हमें बहुविध क्षति हो चुकी है और लगातार हो रही है । बदलते समय के साथ हमें अपने वास्तविक शत्रुओं की पहचान करनी चाहिए । किन्तु हम तो आज कलयुग की २१वीं सदी में भी त्रेता युग के रावण और देवासुर-संग्राम वाले महिषासुर के पुतलों से ही लड रहे हैं , जबकि आक्रांत हैं हम उन मायावी असुरों की कलयुगी माया- अर्थात मैकाले-मैक्समूलर के छद्म बौद्धिक आक्रमण से ।
१४ अक्तुबर ’ २०१६