‘वैदिक गणित’के भी युरोपीय संस्करण का इंतजार
भारतीय मेधा की कुंद होती धार
‘योग’ विद्या भारतवर्ष की प्राचीन विद्या रही है । इसकी उत्पत्ति भारत की मिट्टी से हुई है , यह पूरी दुनिया जानती और मानती है । कभी इसकी व्याप्ति भी यहां के जन-जन में थी । किन्तु अंग्रेजी मैकाले शिक्षण पद्धति से निर्मित जन-मानस की पश्चिम-परस्ती के कारण यहां का जन-साधारण इससे विमुख हो गया था । कालान्तर बाद अपने देश के योगियों-गुरुओं ने पश्चिमी देशों में जाकर इसका प्रचार व प्रदर्शन किया और वहां से यह विद्या ‘योगा’ बन कर भारत की मीडिया में प्रचारित हुई , तब यहां के लोग ‘घर का योगी जोगडा, आन गांव का सिद्ध’ कहावत के अनुसार अब इसकी ओर उन्मुख हो इसे अपनाने लगे हैं । और , इसके बाद से ही अपनी सरकारें भी इसके प्रचार-प्रसार में रुचि लेने लगी हैं । ठीक इसी तरह कम्प्युटर की गति से भी तेज गति से जोड-घटाव-गुणन-विभाजन के सवालों का हल प्रस्तुत करने वाला ‘वैदिक गणित’ भारतवर्ष के ज्ञान-विज्ञान का एक अभिन्न अंग रहा है । किन्तु , अपने देश में प्रचलित शिक्षा की मैकालेवादी जकडन के कारण आधुनिक शैक्षणिक पाठ्यक्रमों से यह आज भी दरकिनार ही है ।
मालूम हो कि पूरी दुनिया को गणितीय ज्ञान और पदार्थ विज्ञान की धुरी के समान ‘शून्य’ और ‘दश्मलव’ का उपहार देने वाले प्राचीन भारतीय वाङ्ग्मय , अर्थात वेद-पुराण-उपनिषद आदि के ज्ञान-महासागर में अनेक ऐसी-ऐसी सरितायें प्रवाहित हैं , जो पश्चिमी दुनिया की पहुंच से अभी भी काफी दूर हैं । ज्ञान के जिस महासागर ने दुनिया को गणितीय ज्ञान की धुरी ‘शून्य’ और ‘दश्मलव’ नामक उपहार प्रदान किया , उन ‘वेदों’ में समस्त सृष्टि का सम्पूर्ण गणित भी समाहित है । हालाकि यह वेद-विदित गणित ही दुनिया भर में प्रचलित समस्त गणितों का मूल है । प्रचलित गणित में ‘कैलक्युलेटर’ और ‘कम्प्युटर’ एक सीमा तक ही अंकों की गणना कर सकते हैं ; किन्तु वैदिक गणित में इसकी कोई सीमा नहीं है , जबकि इसमें बडी से बडी संख्याओं की गणना के लिए भी किसी कल्क्युलेटर की कोई जरूरत नहीं पडती । आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इसके विशिष्ट सूत्रों के सहारे कोई भी व्यक्ति बडी से बडी संख्याओं का जोड-घटाव-गुणन-विभाजन किसी लेखन-सामग्री का उपयोग किए बिना कल्क्युलेटर से भी कम समय में , मन ही मन कर सकता है । मान लें कि आपको 889 में 998 का गुणा करना है , तो प्रचलित तरीके से यह मौखिक रूप में आसान नहीं है । किन्तु वैदिक तरीके से उसे कुछ सेकेण्डों में ही ऐसे हल कर लेंगे कि दोनो संख्याओं के सबसे नज़दीकी पूर्णांक एक हज़ार में से उन्हें घटाने पर मिले क्रमशः 2 और 111के सहज गुणनफल- 222 को मन में ही दाहिने तरफ रख कर 889 में से उस 2 को घटा कर (जिसे 998 को एक हज़ार बनाने के लिए जोड़ना पड़ा था) मिले- 887 को मन ही में 222 के पहले बाएं तरफ रख देंगे तो 887222 , अंतिम व सही गुणनफल आ जाएगा । वैदिक गणित की ऐसी विविध सहज व मनोरंजक विधियों से बड़ी-बडी संख्याओं का जोड़-घटाव और गुणन-विभाजन ही नहीं, बल्कि बीजगणित के त्रिकोणमितीय-ज्यामितीय वर्ग व वर्गमूल और घन व घनमूल निकालना भी संभव है ।
उल्लेखनीय है कि वेदों के ज्ञान-महासागर से गणितीय ज्ञान के हीरे-मोती चुन-चुन कर उसे लिपिबद्ध करने का भागीरथ काम आद्य शंकराचार्य ने किया था , जो उनके किसी मठ में सुरक्षित था । किन्तु पश्चिमी आतताइयों के आक्रमण-शासन के दौरान मठों-मंदिरों-पुस्तकालययों-गुरुकुलों को नष्ट किये जाने के क्रम में वह ग्रन्थ भी धूल-धुसरित हो गया था , जिसे कालान्तर बाद २०वीं शताब्दी में झाड़-पोंछ कर सामने लाया- पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारती कृष्णतीर्थजी महाराज ने । वे न केवल संस्कृत व दर्शनशास्त्र के विद्वान थे , बल्कि गणित और इतिहास के अलावे सात विषयों में मास्टर्स (MA) की डिग्री से विभूषित थे । उन्होंने पुराने ग्रंथों और बची-खुची सम्बन्धित पांडुलिपियों का मंथन कर इस ‘वैदिक गणित’ के 16 मूल सूत्रों की व्याख्या करने वाली 16 पुस्तकों की पांडुलिपियाँ लिखीं, जो अंकगणित ही नहीं, बीजगणित और भूमिति-ज्यामिति सहित गणित की हर शाखा से संबंधित थे। किन्तु दैव दुर्योग से वे पाण्डुलिपियां भी नष्ट हो गईं । तब उन्होंने इस वेद-विदित ज्ञान को दुबारा लिपिबद्ध करना शुरू किया , किन्तु वे एक ही सूत्र की व्याख्या लिख सके , उसी दौरान उनका निधन हो गया । बाद में उनकी उसी व्याख्या के आधार पर उनके शिष्यों ने सन 1965 में ‘वेदिक मैथमेटिक्स’ नाम से एक पुस्तक अंग्रेजी में प्रकाशित करायी । उस पुस्तक की एक प्रति जब किसी तरह से लन्दन पहुंच गई , तब वहां के जाने-माने गणितज्ञ भी उसके सूत्रों-समीकरणों को देख-समझ कर चकित रह गये । तभी से पश्चिमी देशों में वैदिक गणित को मान-सम्मान मिलना शुरू हो गया । सबसे पहले लंदन के सेंट जेम्स स्कूल ने अपने वहां इस ‘वैदिक गणित’ की पढ़ाई शुरू की । आज इसकी पढाई इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के सरकारी और निजी स्कूलों में हो रही है , किन्तु हमारे अपने देश की सरकार तथाकथित धर्मनिरपेक्षता के नाम पर ज्ञान-विज्ञान का यह अमृत यहां के नवनिहालों को सुलभ कराने में आना-कानी ही करती रही है ।
बावजूद इसके , इस गणित के ज्ञान की सुगंध से अपने देश के कतिपय वेदानुरागी शिक्षार्थी-विद्यार्थी सुवासित होते रहे हैं । अहमदाबाद, गुजरात के हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला नामक ‘गुरूकुल’ का १४ वर्षीय छात्र तुषार विमलचन्द तलावट मात्र ०३ मिनट ३० सेकण्ड में ७० सवालों को हल कर एक राष्ट्रीय प्रतियोगिता में ५,३०० प्रतिभागियों को पराजित कर प्रथम स्थान प्राप्त किया हुआ है । विगत २६-२७ दिसम्बर’ २०१५ को ‘ मेन्टल कैलकुलेशन इण्डिया कप ’ की चेन्नई में आयोजित राष्ट्रीय प्रतियोगिता में देश भर से शामिल १९ राज्यों के ४,३०० प्रतिभागियों में सबसे कम उम्र का यह बालक छह अंकों के जोड-घटाव और तारीख-सम्बन्धी ७० सवालों के जवाब कम्प्युटर से भी तीव्र गति से मात्र ३ मिनट १० सेकण्ड में देकर अपने देश के मैकालेवादियों की आंखों में उंगली डाल चुका है । इतना ही नहीं , २६-२७ दिसम्बर’२०१५ को उसी चेन्नई शहर में ‘हिन्दुस्तान मैथ्स ओलम्पियाड’ की ओर से आयोजित प्रतियोगिता में सभी १,७०० प्रतिभागियों को पछाडते हुए मात्र ३ मिनट १५ सेकण्ड में ही १०० सवालों का हल प्रस्तुत कर प्रथम स्थान प्राप्त कर लेने के बाद यह बालक गत २४ जुलाई’ २०१६ को इण्डोनेशिया में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय गणित प्रतियोगिता में सम्पूर्ण भारत देश का प्रतिनिधित्व करते हुए विजेता बन कर लौटा है, जिससे अहमदाबाद में मेरी मुलाकात हुई तो, उसके मुख से वैदिक गणित के तत्सम्बधी एक से एक सूत्रों को जान-सुन कर मुझे विस्मय भी हुआ और दुःख भी ।
दुःख इस कारण क्योंकि इंग्लैंड, अमेरिका या ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के स्कूलों में बच्चों को वैदिक गणित सिखाया जा रहा है , जबकि हमारे देश की सरकारों को या तो यह भय सताता है कि इस विलक्षण ज्ञान की पढाई से वेद-विरोधी सम्प्रदाय के वोटों का उन्हें नुकसान उठाना पड सकता है , अथवा इन्हें ‘योग’ की तरह इसके भी पश्चिमी संस्करण की प्रतीक्षा है । तुषार तलावट को गुजरात सरकार के मुख्यमंत्री ने प्रशस्ति-पत्र भी दे रखा है । परन्तु , विडम्बना देखिए कि इस ‘वैदिक गणित’ को स्कूली पाठ्यक्रमों में शामिल करने के नाम पर सभी सरकारों को सांप सुंघ जाता है और यहां के बुद्धिजिवी भी पश्चिम की ओर निहारने लगते हैं । इसके प्रति ऐसी उदासीनता से ऐसा प्रतीत होता है कि ‘योग’ के ‘योगा’ हो कर पश्चिम से वापस भारत आने की तरह इसके भी ऐसे ही किसी पश्चिमी संस्करण का इंतजार कर रहे हैं , यहां के शैक्षिक नीति-निर्धारक । किन्तु इस अनुचित व अनावश्यक इंतजार से हमारे भारतीय बच्चों की मेधा-प्रतिभा की धार लगातार कुंद हो रही है । पश्चिम का पीछलग्गू और नकलची बनाये जाते रहने के कारण वे ज्ञान-विज्ञान के विविध विषयक शोध-अनुसंधान में आगे तो कभी निकल ही नहीं पाएंगे, अलबत्ता उनकी अपनी मौलिक प्रतिभा भी पश्चिम से ‘बोली लगाये जाने’ का मोहताज बनी रहेगी ।
- जुलाई , २०१६
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