शौर्य की नींव पर खडी भारतीय साहित्य की अट्टालिका


किसी भी भाषा का साहित्य एक ओर जहां मानव जीवन और समाज के उच्च आदर्शों-मूल्यों , परम्पराओं व मान्यताओं का संवाहक होता है, वहीं दूसरी ओर साहित्य की उस संवहन-क्षमता का विकास उन्हीं आदर्शों-मूल्यों-परम्पराओं-मान्यताओं के आधार पर ही होता है / साहित्य के निर्माण में देश-काल की जो परिस्थितियां सहायक होती हैं , उन सबके मूल में ये ही तत्व समाहित होते हैं / जिस देश-राष्ट्र-समाज-संस्कृति में जिन तत्वों की प्रधानता-व्याप्तता होती है, वहां के साहित्य में उन्हीं तत्वों की व्याप्ति होती है / अपने देश का ‘भारत’ नामकरण ऋषि-आश्रम में जन्में शकुन्तला-पुत्र जिस भरत नामक प्रतापी राजा के नाम पर हुआ है वे भरत अपने बाल्यकाल में सिंह-शावक के साथ खेलते थे और खेल-खेल में उसके दांत भी गीन लिया करते थे /
ऐसे जन्मजात शूर-वीर प्रतापी राजा भरत से नामित अपना भारतवर्ष प्राचीनकाल से ही आत्म-ज्ञान के अन्वेषण में रत ऋषियों-तत्ववेताओं तथा असत्य पर सत्य की विजय स्थापित करते रहने वाले देवताओं-योद्धाओं व शूर-वीरों का देश रहा है , जिनकी भाषा संस्कृत रही है / इसी कारण संस्कृत साहित्य में ज्ञान-विज्ञान के तत्व सर्वाधिक परिमाण में भरे-पडे होने के बावजूद शूरता-वीरता के कथ्यों-कथानकों की भी पर्याप्त प्रचुरता हैं / यहां ‘दुर्गा-सप्तशती’ से लेकर ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ ही नहीं ‘रामचरित मानस’ और ‘हनुमान चालिसा’ तक तमाम काव्यों-महाकाव्यों में शौर्य ही शौर्य भरे पडे हैं / ऐसे शौर्य, जो विश्व में अन्यत्र दुर्लभ ही हैं / शौर्य , अर्थात शूरता-वीरता / किन्तु भारतीय साहित्य और विशेष कर संस्कृत साहित्य व हिन्दी साहित्य में सत्य-शील-नीति-न्याय-धर्म युक्त आदर्शों की अक्षुण्णता के लिए असत्य-अशील-अनीति-अन्याय-अधर्म युक्त अवांछनीयताओं से सोद्देश्य लडने-भिडने वाले सुरों की शूरता-वीरता का ही महिमा-मण्डन हुआ है , जबकि इसके ठीक विपरीत उद्देश्यों के लिए लडने वाले असुरों की सूरता-वीरता का भी वर्णन है /
सप्तशति में अभिहित देवी दुर्गा के विभिन्न रूप और सौन्दर्य वास्तव में शौर्य की ही अभिव्यक्ति हैं / दुनिया की किसी भी भाषा के किसी भी साहित्य में किसी स्त्री का सौन्दर्य शौर्य के रूप में अभिहित नहीं हुआ है / किन्तु यह भारतीय साहित्य ही है , जिसमें स्त्री एक तरफ अनुपम सौन्दर्य से सम्पन्न अबला भी हैं , तो दूसरे तरफ अप्रतीम शौर्य से सम्पन्न अतिबला भी / वह शक्ति है शक्ति , आदि शक्ति और महा शक्ति, जिसकी पूजा ‘रामायण’ जैसे शौर्य महाकाव्य के महानायक ‘राम’ भी अपने शौर्य की विजय के लिए करते हैं / रामायण और महाभारत, दोनों वास्तव में एक शौर्य ग्रन्थ है / इस कारण इन्हें शौर्य महाकाव्य ही कहा जाना चाहिए / रामायण के राम के शौर्य का आज भी ऐसा प्रताप है कि चोर-उचक्का, डाकू-डकैत , गुण्डा-लखैरा, आतंकी-सनकी, अजगर-विषधर, बाढ-भूकम्प किसी से भी किसी का सामना होने पर उस आपदा-विपदा से ग्रस्त कमजोर से कमजोर व्यक्ति भी ‘रामरक्षा-स्त्रोत’ पढ लेता है तो उसमें इतनी शक्ति व आश्वस्ति जरूर आ जाती है कि वह उन आपदाओं-विपदाओं को झेलने योग्य तो बन ही जाता है / और , इसके दूसरे प्रमुख नायक- हनुमान जी तो ऐसे ‘महावीर विक्रम बजरंगी’ हैं कि “संकट कटै मिटै सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलवीरा” / हनुमान चालिसा यद्यपि कुछ पंक्तियों का ही काव्य है, किन्तु वह किसी सामान्य महाकाव्य से कई गुणा ज्यादा शौर्य-सम्पन्न है / उसकी प्रत्येक पंक्ति शौर्य से भरी हुई है / वह इतना लोकप्रिय है कि उच्च-शिक्षितों से लेकर अनपढ गंवारों तक में उसकी खास अहमियत है / उसके पाठ मात्र से “भूत-पिशाच निकट नहीं आवे, महावीर जब नाम सुनावे” / साहित्य में शौर्य की यह तो पराकाष्ठा ही है समझिए / रामायण में जितने भी पात्र हैं , सब के सब शौर्य के अद्भूत उदाहरण हैं / दशरथ, राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न , वशिष्ठ, विश्वामित्र, परसुराम, सुग्रीव, जामवन्त, अंगद, हनुमान, रावण, विभीषण, इन्द्रजीत, मेघनाद आदि सुर-असुर ही नहीं, गिलहरी जैसे तुच्छ जीव से लेकर गरूड जैसे पक्षी और रीक्ष बानर भालू तक सब के सब अद्भूत शौर्य से सम्पन्न हैं, जिनके अपने-अपने धर्म और अपने-अपने आदर्श हैं / सुर , असुर ; दोनों पक्ष अपने-अपने उद्देश्यों के लिए प्राणपन से लड रहे हैं / आर्य संस्कृति के लिए सुर , तो अनार्य अपसंस्कृति के लिए असुर / दोनों पक्षों में एक से एक शौर्य-सम्पन्न वीर हैं , जिनकी शूरता-वीरता के बखान में कहीं कोई भेद-भाव नहीं हुआ है, परन्तु सुरों के शौर्य ही वन्दनीय और वरेण्य हैं / असुरों की शूरता का वर्णन जरूर है, किन्तु वन्दनीय व वरेण्य रूप में नहीं, क्योंकि मानव जीवन, मानव समाज और मानव संस्कृति के लिए वह कल्याणकारी नहीं है /
‘महाभारत’ में तो भीष्म, द्रोण, अर्जुन, भीम, अभिमन्यु , सुयोधन, कर्ण, अश्वत्थामा, घटोत्कच्छ आदि एक से एक ऐसे-ऐसे दिल-दहलाऊ अगड्धत शूर-वीर पात्र हैं , जिनके शौर्य की कथा-गाथा सुन-सुन कर सिहरन होने लगती है , रोमांच हो उठता है / सुनने-सुनाने वालों को भी पसीने चलने लगते हैं / इन तमाम शूर-वीरों के शौर्य आज भी मिथक बने हुए हैं / महाभारत के सबसे बडे शूरवीर तो योगेश्वर कृष्ण हैं कृष्ण, जो सम्पूर्ण महाभारत के , अर्थात दुनिया के सबसे भीषणतम युद्ध के महानायक हैं, किन्तु स्वयं अश्त्र-शस्त्र नहीं उठाते हैं कभी / कृष्ण का शौर्य सम्पूर्ण दुनिया का अद्वितीय शौर्य है , क्योंकि दुनिया में ऐसा कोई भी उदाहरण किसी भी साहित्य में नहीं है / रामायण और महाभारत दोनों के महानायकों, क्रमशः राम और कृष्ण के शौर्य मानव-कल्याणार्थ और धरती पर धर्म-संस्कृति-शांति के स्थापनार्थ हैं / तभी तो रामायण में राम “ निशिचर हीन करऊं महि, भुज उठाये प्रण किन्ह” को क्रियान्वित करते हैं और महाभारत में कृष्ण कहते हैं कि “यदा यदा ही धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ! अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानम सृज्यांहम !!”
चूंकि सभी भारतीय भाषाओं की उत्पति संस्कृत से ही हुई है, इस कारण संस्कृत-साहित्य की तरह समस्त भारतीय साहित्य और विशेष कर हिन्दी साहित्य में भी शौर्य की व्यापकता है / हिन्दी साहित्य का तो उद्भव ही हुआ है शौर्य-गाथा, अर्थात वीरों की गाथा से / तभी तो हिन्दी साहित्य के सर्वमान्य इतिहास में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने इसका जो काल-विभाजन किया है, उसमें इसके सबसे आरम्भिक काल को ‘वीर-गाथा काल’ कहा है / वीर गाथा काल, अर्थात हिन्दी साहित्य की उस प्रवृति का काल जो राजाओं-योद्धाओं की शूरता-वीरता सम्बन्धी काव्यों के लिए प्रसिद्ध है /
भारत के राजनीतिक इतिहास में यह वह समय था जबकि मुसलमानों के हमले उत्तर-पश्चिम की ओर से लगातार होते रहते थे । उन हमलों की मार प्रायः भारत के पश्चिमी प्रांत के निवासियों को ही सहने पड़ते थे, जहाँ हिंदुओं के बड़े-बड़े राज्य प्रतिष्ठित थे । गुप्त साम्राज्य के ध्वस्त होने पर हर्षवर्धन (मृत्यु संवत् 704) के उपरांत भारत का पश्चिमी भाग ही भारतीय सभ्यता और बल वैभव का केंद्र हो चुका था । कन्नौज, अजमेर, अन्हलवाड़ा आदि बड़ी-बड़ी राजधानियाँ उधर ही प्रतिष्ठित थीं । उधर की भाषा ही शिष्ट भाषा मानी जाती थी और कवि-चारण आदि उसी भाषा में रचना करते थे । प्रारंभिक काल का जो साहित्य हमें उपलब्ध है उसका आविर्भाव उसी भू-भाग में हुआ । अत: यह स्वाभाविक है कि उसी भू-भाग की जनता की चित्तवृत्ति की छाप उस साहित्य पर हो । उन दिनों युद्ध किसी आवश्यकतावश ही नहीं होते थे , बल्कि कभी-कभी तो शौर्य प्रदर्शन मात्र के लिए यों ही मोल ले लिए जाते थे । बीच-बीच में मुसलमानों के भी हमले होते रहते थे । सारांश यह कि जिस समय से हमारे हिन्दी साहित्य का उद्भव हुआ, वह लड़ाई-भिड़ाई का समय था, वीरता के गौरव का समय था । शेष प्रवृतियां पीछे पड़ गई थीं ।
उन युद्दों का वर्णन फारसी तवारीखों में नहीं मिलता, पर कहीं-कहीं संस्कृत ऐतिहासिक काव्यों में मिलता है। साँभर (अजमेर) का चौहान राजा दुर्लभराज द्वितीय मुसलमानों के साथ युद्ध करने में मारा गया था । अजमेर बसानेवाले अजयदेव ने मुसलमानों को परास्त किया था । अजयदेव के पुत्र अर्णोराज (आना) के समय में मुसलमानों की सेना फिर पुष्कर की घाटी लाँघकर उस स्थान पर जा पहुँची जहाँ अब आनासागर है । अर्णोराज ने उस सेना का संहार कर बड़ी भारी विजय प्राप्त की । वहाँ म्लेच्छ मुसलमानों का रक्त गिरा था, इससे उस स्थान को अपवित्र मानकर वहाँ अर्णोराज ने एक बड़ा तालाब बनवा दिया जो 'आनासागर' कहलाया ।
आना के पुत्र बीसलदेव (विग्रहराज चतुर्थ) के समय में वर्तमान किशनगढ़ राज्य तक मुसलमानों की सेना चढ़ आई , जिसे परास्त कर बीसलदेव आर्यावर्त से मुसलमानों को निकालने के लिए उत्तर की ओर बढ़ा । उसने दिल्ली और झाँसी के प्रदेश अपने राज्य में मिलाए और आर्यावर्त के एक बड़े भू-भाग से मुसलमानों को निकाल दिया । इस बात का उल्लेख दिल्ली में अशोक लेखवाले शिवालिक स्तंभ पर खुदे हुए बीसलदेव के वि. संवत् 1220 के लेख से पाया जाता है । शहाबुद्दीन गोरी की पृथ्वीराज पर पहली चढ़ाई (संवत् 1247) के पहले भी गोरियों की सेना ने नाड़ौल पर धावा किया था, पर उसे हारकर लौटना पड़ा था । इसी प्रकार महाराज पृथ्वीराज के मारे जाने और दिल्ली तथा अजमेर पर मुसलमानों का अधिकार हो जाने के पीछे भी बहुत दिनों तक राजपूताने आदि में कई स्वतंत्र हिंदू राजा थे जो बराबर मुसलमानों से लड़ते रहे । इसमें सबसे प्रसिद्ध रणथंभौर के महाराज हम्मीरदेव हुए हैं , जो महाराज पृथ्वीराज चौहान की वंशपरंपरा में थे । वे मुसलमानों से निरंतर लड़ते रहे और उन्होंने उन्हें कई बार हराया था / सारांश यह कि पठानों के शासनकाल तक हिंदू बराबर स्वतंत्रता के लिए लड़ते रहे थे /
राजा भोज की सभा में खड़े होकर राजा की दानशीलता का लंबा-चौड़ा वर्णन करके लाखों रुपये पाने वाले कवियों का समय बीत चुका था / राजदरबारों में शास्त्रर्थों की वह धूम नहीं रह गई थी / पांडित्य के चमत्कार पर पुरस्कार का विधान भी ढीला पड़ गया था / उस समय तो जो भाट या चारण किसी राजा के पराक्रम, विजय, शत्रुकन्याहरण आदि का अत्युक्तिपूर्ण आलाप करता या रणक्षेत्रों में जाकर वीरों के हृदय में उत्साह की उमंगें भरा करता था, वही सम्मान पाता था /
ऐसी स्थिति में काव्य या साहित्य के और भिन्न-भिन्न अंगों की पूर्ति और समृद्धि का सामूहिक प्रयत्न कठिन था / उस समय तो केवल वीरगाथाओं की रचना ही संभव थी इस वीरगाथा को हम दो रूपों में पाते हैं - मुक्तक के रूप में और प्रबंध के रूप में भी / तब के प्रबन्ध काव्यों की वीरगाथाओं में युद्ध के साथ प्रेम-श्रींगार भी हुआ करते थे / किसी राजा की कन्या के सौन्दर्य का संवाद पाकर दलबल के साथ चढ़ाई करना और प्रतिपक्षियों को पराजित कर उस कन्या को हरकर लाना वीरों के गौरव और अभिमान का काम माना जाता था / इस प्रकार इन काव्यों में श्रृंगार का भी थोड़ा मिश्रण रहता था, पर गौण रूप में; प्रधान रस वीर ही रहता था। श्रृंगार केवल सहायक के रूप में रहता था /जहाँ राजनीतिक कारणों से भी युद्ध होता था, वहाँ भी उन कारणों का उल्लेख न कर किसी रूपवती स्त्री को ही कारण के रूप में कल्पित करके रचना की जाती थी / जैसे शहाबुद्दीन के यहाँ से एक रूपवती स्त्री का पृथ्वीराज के यहाँ आना ही लड़ाई की जड़ लिखी गई है / हम्मीर पर अलाउद्दीन की चढ़ाई का भी ऐसा ही कारण कल्पित किया गया है / इस प्रकार इन काव्यों में प्रथानुकूल शौर्य की घ्टनाओं के बीच कल्पित प्रेम-प्रसंगों की बहुत अधिक योजना रहती थी।
ये वीरगाथाएँ भी दो रूपों में मिलती हैं- प्रबंधकाव्य के साहित्यिक रूप में और वीरगीतों के रूप में / साहित्यिक प्रबंध के रूप में जो सबसे प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध है, वह है ‘पृथ्वीराजरासो’/ वीरगीत के रूप में हमें सबसे पुरानी पुस्तक 'बीसलदेवरासो' मिलती है, यद्यपि उसमें समयानुसार भाषा के परिवर्तन का आभास मिलता है / जो रचना कई सौ वर्षों से लोगों में बराबर गाई जाती रही हो, उसकी भाषा अपने मूल रूप में नहीं रह सकती / इसका प्रत्यक्ष उदाहरण ‘आल्हा’ है , जिसके गानेवाले प्राय: समस्त उत्तरी भारत में पाए जाते हैं /
जिस प्रकार चंदबरदाई ने महाराज पृथ्वीराज को कीर्तिमान किया है , उसी प्रकार भट्ट केदार ने कन्नौज के सम्राट जयचंद का गुण गाया है / भट्ट केदार ने 'जयचंदप्रकाश' नाम का एक महाकाव्य लिखा था, जिसमें जयचंद के प्रताप और पराक्रम का विस्तृत वर्णन था / इसी प्रकार का 'जयमयंकजसचंद्रिका' नामक एक बड़ा ग्रंथ मधुकर कवि ने भी लिखा थ / पर दुर्भाग्य से दोनों ग्रंथ आज उपलब्ध नहीं हैं / केवल इनका उल्लेख सिंघायच दयालदास कृत ‘राठौड़ाँ री ख्यात’ में मिलता है , जो बीकानेर के राजकीय पुस्तक-भांडार में सुरक्षित है /
इतिहासज्ञ इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि विक्रम संवत की तेरहवीं शताब्दी के आरंभ में उत्तर भारत में दो प्रधान साम्राज्य थे / एक था गहरवारों (राठौरों) का विशाल साम्राज्य, जिसकी राजधानी कन्नौज थी और जिसके अंतर्गत प्राय: सारा मध्य देश, काशी से कन्नौज तक था ; तो दूसरा चौहानों का जिसकी राजधानी दिल्ली थी और जिसके अंतर्गत दिल्ली से अजमेर तक का पश्चिमी प्रांत था / कहने की आवश्यकता नहीं कि इन दोनों में गहरवारों का साम्राज्य अधिक विस्तृत, धन-धान्य-संपन्न और देश के प्रधान भाग पर था / गहरवारों की दो राजधानियाँ थीं कन्नौज और काशी / इसी से कन्नौज के गहरवार राजा काशिराज कहलाते थे / जिस प्रकार पृथ्वीराज का प्रभाव राजपूताने के राजाओं पर था, उसी प्रकार जयचंद का प्रभाव बुंदेलखंड के राजाओं पर था / कालिंजर या महोबे के चंदेल राजा जयचंद के मित्र या सामंत थे , जिसके कारण पृथ्वीराज ने उन पर चढ़ाई की थी / चंदेल कन्नौज के पक्ष में दिल्ली के चौहान पृथ्वीराज से बराबर लड़ते रहे /
ऐसा प्रसिद्ध है कि कालिंजर के राजा परमार के यहाँ जगनिक नाम के एक भाट थे, जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था, जो इतना लोकप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमश: सारे उत्तरी भारत में विशेषत: उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे हो गया / जगनिक के काव्य का आज कहीं पता नहीं है, पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिन्दी भाषा भाषी प्रांतों के गाँव-गाँव में सुनाई पड़ते हैं / ये गीत 'आल्हा' के नाम से प्रसिद्ध हैं और प्रायः बरसात में गाए जाते हैं / गाँवों में जाकर देखिए तो मेघगर्जन के बीच में किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह वीर हुंकार सुनाई देगी /-
बारह बरिस लै कूकर जीऐं, औ तेरह लै जिऐं सियार।
बरिस अठारह छत्री जीऐं, आगे जीवन के धिक्कार।
इस प्रकार साहित्यिक रूप में न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की वीर दर्पपूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है / इस दीर्घ कालयात्रा में उसका बहुत कुछ कलेवर बदल गया है / देश और काल के अनुसार भाषा में ही परिवर्तन नहीं हुआ है, तो विषय- वस्तु में भी बहुत अधिक परिवर्तन होता आया है / बहुत-से नए अस्त्रों, (जैसे बंदूक, किरिच), देशों और जातियों (जैसे फिरंगी) के नाम सम्मिलित हो गए हैं और बराबर होते जाते हैं / यदि यह ग्रंथ साहित्यिक प्रबंध पद्धति पर लिखा गया होता , तो कहीं न कहीं राजकीय पुस्तकालयों में इसकी कोई प्रति रक्षित मिलती / पर यह गाने के लिए ही रचा गया था / इस कारण पंडितों और विद्वानों के हाथ इनके संरक्षण की ओर नहीं बढ़े, जनता ही के बीच इनकी गूँज बनी रही पर , यह गूँज मात्र है, मूल शब्द नहीं / आल्हा का प्रचार यों तो सारे उत्तर भारत में है, पर बैसवाड़ा इसका केंद्र माना जाता है, वहाँ इसके गाने वाले बहुत अधिक मिलते हैं / बुंदेलखंड में विशेषत: महोबे के आसपास भी इसका चलन बहुत है / इन गीतों के समुच्चय को सर्वसाधारण लोग 'आल्हाखंड' कहते हैं , जिससे अनुमान होता है कि आल्हा संबंधी ये वीरगीत जगनिक के रचे उस बड़े काव्य के एक खंड के अंतर्गत थे, जो चंदेलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया होगा / आल्हा और ऊदल परमाल के सामंत थे और बनाफर शाखा के क्षत्रिय थे / इन गीतों का एक संग्रह 'आल्हखंड' के नाम से छपा है / फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर मि. चार्ल्स इलियट ने पहले पहल इन गीतों का संग्रह करके छपवाया था।
इसी तरह कवि श्रीधर ने संवत् 1454 में ‘रणमल्ल छंद’ नामक एक काव्य रचा, जिसमें राठौर राजा रणमल्ल की उस विजय का वर्णन है ,जो उसने पाटन के सूबेदार जफर खाँ पर प्राप्त की थी /
चन्दवरदाई जो हिन्दी साहित्य के प्रथम कवि माने जाते हैं, उनकी रचना ‘चन्दरवरदाई रासो’ लगभग ढाई हजार पृष्ठों का विशाल महाकाव्य है / उसमें तत्कालीन भारत के शूर-वीर सम्राट पृथ्वीराज की शूरता-वीरता और उनकी युद्धशीलता का जबर्दस्त बखान है / ये ऐसे कवि थे जो जीवन-पर्यन्त पृथ्वीराज के साथ ही रहे / इसे आश्चर्यजनक संयोग ही कहा जाएगा कि राजा पृथ्वीराज और कवि चन्दवरदाई, दोनों का जन्म भी एक ही दिन हुआ और निधन भी एक ही दिन, एक ही स्थान पर एक ही साथ /
किन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं है कि उस काल के बाद का हिन्दी साहित्य शौर्य से रहित है / बल्कि, सच तो यह है कि शौर्य की प्रधानता वाले उस काल के बाद के हिन्दी साहित्य में भी शौर्य एक स्थाई तत्व के रूप में समाहित है /
मोटे हिसाब से वीरगाथा काल महाराज हम्मीर के समय तक ही समझा जाता है / उसके उपरांत मुसलमानों का साम्राज्य भारत में स्थिर हो गया और हिंदू राजाओं को न तो आपस में लड़ने का उतना उत्साह रहा, न मुसलमानों से / जनता की चित्तवृत्ति बदलने लगी तो साहित्यकार भी धर्म की ओर उन्मुख हो गए / अर्थात, मुसलमानों के न जमने तक तो उन्हें हटाकर अपने धर्म की रक्षा का वीर प्रयत्न होता रहा, पर मुसलमानों के जम जाने पर अपने धर्म के उस व्यापक और हृदयग्राह्य रूप के प्रचार को प्राथमिकता दी गई, जो सारी जनता को आकर्षित रखे और धर्म से विचलित न होने दे /
इस प्रकार परिस्थितियों के साथ-ही-साथ भावों तथा विचारों में भी परिवर्तन होता गया। पर इससे यह न समझना चाहिए कि हम्मीर के पीछे किसी वीरकाव्य की रचना ही नहीं हुई / समय-समय पर इस प्रकार के अनेक काव्य लिखे गए / हिन्दी साहित्य के इतिहास की एक विशेषता यह भी रही है कि एक विशिष्ट काल में किसी रूप की जो काव्यसरिता पूरे वेग से प्रवाहित हुई, वह यद्यपि आगे चलकर मंद गति से बहने लगी, किन्तु सैकडों वर्षों के हिन्दी साहित्य के इतिहास में हम उसे कभी सर्वथा सूखी हुई नहीं पाते /