सहिष्णुता पर एक शायर के बयान की सप्रसंग व्याख्या
देश भर में पिछले कई महीनों से ‘सहिष्णुता’ और ‘असहिष्णुता’ पर चाय-पान की दुकानों से लेकर सत्ता के गलियारों तक बौद्धिक बहस-विमर्श जारी है / देश की मायानगरी के रंगमंच भी इस मुद्दे को लेकर बदरंग हो चुके हैं / संसद में भी दो दिनों तक पक्ष-विपक्ष के बीच काफी हंगामा हुआ / कांग्रेस के सांसदों ने सत्तासीन भाजपा को असहिष्णु होने और उसके शासन से देश में असहिष्णुता बढ जाने की बात को प्रमाणित करने के लिए एक तरह से कहिए तो आसमान सिर पर उठा लेने का प्रयास किया , किन्तु तब भी इस बौद्धिक बहस-विमर्श का निष्कर्ष निकलना अब तक बाकी ही है / इस बीच साहित्य अकादमी को पुरस्कार वापस करने का अभियान आयोजित कर इस बहस को जन्म देने वाले साहित्यकारों की पंक्ति में शामिल एक मशहूर शायर का एक ऐसा बयान आया, जिससे एक नयी बहस देश भर में छिड सकती है , किन्तु सहिष्णुता की वकालत करने वालों ने या तो उस पर ध्यान ही नहीं दिया या जानबूझ कर उस ओर से मुंह मोड कर मौन धारण कर लिया /
मालूम हो कि एक सार्वजनिक कार्यक्रम में देश के मशहूर शायर मुन्नवर राणा ने साफ-साफ शब्दों में यह कह दिया है कि “ कांग्रेस अगर सहिष्णु होती तो भारत का विभाजन ही नहीं होता ”/ राणा सहब का यह बयान उस कांग्रेस के सम्बन्ध में है, जो खुद को सहिष्णुता की पैरोकार बताने और भाजपा के शासन से असहिष्णुता बढ जाने की बात प्रमाणित करने के लिए वह सब कुछ कर रही है, जो कर सकती है और वह सब कुछ भी कर रही है , जो उसे नहीं करना चाहिए / राणा साहब ने देश-विभाजन के लिए कांग्रेस की असहिष्णुता को जिम्मेवार ठहरा कर कांग्रेस के अतीत को बेनकाब कर दिया है / शायर मुन्नवर ने एक बहुत बडी बात कह दी है / इस पर देश भर में और हो सके तो संसद में भी बहस होनी ही चाहिए कि देश-विभाजन आखिर क्यों हुआ, क्या सचमुच कांग्रेस की असहिष्णुता के कारण ही हुआ ?
ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि जवाहरलाल नेहरू १९४२-४५ में जब अहमदनगर जेल में थे , तब उन्होंने अपनी ही डायरी में लिखा था –“ मैं सहज वृति से ऐसा सोचता हूं कि यदि हम चाहते हैं कि जिन्ना को भारतीय राजनीति से दूर रखना है तथा भारत की समस्याओं में उसके अव्यवस्थित व घमण्डी दिमाग के निरन्तर हस्तक्षेप से बचना है, तो हमें पाकिस्तान अथवा ऐसी किसी भी चीज को स्वीकार कर ही लेना बेहतर होगा ” / स्पष्ट है कि वास्तव में नेहरु भारत की राजनीति में जिन्ना को बर्दाश्त करने के लिए ही तैयार नहीं थे / वे बार-बार राजनीतिक-बैचारिक टकराव करते रहने वाले जिन्ना को पाकिस्तान देकर उसे सदा के लिये भारत की राजनीति से दूर कर देने को तत्पर थे, ताकि उनका राजनीतिक मार्ग एकदम निष्कण्टक हो जाये /
मालूम हो कि सन १९३६ के बाद की कांग्रेस पर नेहरू पूरी तरह से हावी हो चुके थे / १९३७ में उन्होंने जिन्ना को भारतीय राजनीति से हटा-मिटा देने के लिए देश भर के मुसलमानों से सम्पर्क-सरोकार विकसित-संगठित करने हेतु कांग्रेस में एक अलग विभाग शुरू किया और व्यापक सम्पर्क अभियान चलाया / उनके उस अभियान से मुसलमान तो कांग्रेस के साथ नहीं जुडे, किन्तु तब तक कांग्रेस के साथ सहयोग का रूख रख रहे जिन्ना पूरी तरह से कांग्रेस के शत्रु और मुस्लिम लीग के सशक्त नेता बन गए / स्वतंत्रता सेनानी इतिहासकार वी०एन० नाईक ने अपनी पुस्तक में लिखा है- “जिन्ना को घोर साम्प्रदायिकतावादी बनाने का काम भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने किया / कांग्रेस ने सब कुछ ले लेने का ऐसा रास्ता चुना, जिसने भारत की राष्ट्रीय एकता-अखण्डता को नष्ट करने में सहायता की” / के० एम० मुंशी ने भी लिखा है – “ १९३७ तक भी जिन्ना कांग्रेस के साथ रहने के लिए तैयार थे, परंतु कांग्रेस के नेता जिन्ना को समायोजित करने के लिए तैयार नहीं थे ”/
गौरतलब है कि मो० अली जिन्ना एकता-समानतावादी घोर राष्ट्रवादी कांग्रेसी थे, जो कांग्रेस से इस कारण अलग-थलग कर दिये गये थे क्योंकि वे कांग्रेस की साम्प्रदायिक मुस्लिम-तुष्टिवादिता का विरोध करते रहते थे / जिन्ना ही वह कांग्रेसी थे , जो मुसलमानो के लिए ‘पृथक निर्वाचक-मण्डल’ व साम्प्रदायिक आरक्षण की अंग्रेज-परस्त कांग्रेसी नीति को भारत की अखण्डता के लिये घातक बताते हुए लम्बे समय तक उसका विरोध करते रहे थे / मुसलमानो के मजहबी मामले को लेकर कांग्रेस द्वारा चलाये जा रहे “ खिलाफत आंदोलन ” को “ साम्प्रदायिक उन्माद ” का नाम देते हुए जिन्ना ने यह कहकर उसका प्रबल विरोध किया था कि इससे भारतीय मुसलमानों की राष्ट्रवादिता कमजोर होगी / इन वैचारिक विरोधों के कारण ही कांग्रेस से अलग-थलग कर दिये गये थे जिन्ना / कांग्रेस से अलग हो जाने के बावजूद मुस्लिम-आरक्षण विषयक ‘पृथक निर्वाचक मण्डल’ का विरोध ही करते रहे थे जिन्ना और अन्ततः राजनीति छोड वे इंग्लैन्ड में बस कर वकालत करने लगे / इधर कांग्रेस की मुस्लिम-तुष्टिवादिता के कारण कालान्तर में जिन्ना की भविष्यवाणी जब सच हो गयी, अर्थात् भारत की अखण्डता पर आघात होने लगा - पाकिस्तान की मांग उठ कर जोर पकडने लगी, तब १९३४ में लिगी नेता- लियाकत अली के आग्रह पर मुस्लिम लीग को नेतृत्व देने, या यों कहिये कि उसके लिये वकालत करने तथा कांग्रेस को उसकी साम्प्रदायिक तुष्टिकरणवादी नीतियों का खामियाजापूर्ण सबक सिखाने लन्दन से भारत वापस आ गये थे जिन्ना / तब भी कई वर्षों तक लीग के प्रस्तावित पाकिस्तान के लिए राजनीतिक वकालत करने के बजाय वे भारत की स्वतंत्रता-अखण्डता के लिये संयुक्त मोर्चा कायम करने हेतु कांग्रेस व लीग में मेल-मिलाप कराने में ही लगे रहे /
१९३७ के विधानसभा-चुनावों के बाद कांग्रेस मंत्रिमण्डलों के गठन और उनकी कार्य-प्रणाली ने जिन्ना को कांग्रेस का घोर विरोधी बना दिया / दर-सल हुआ यह कि उन प्रान्तीय विधानसभाओं के चुनाव कांग्रेस और मुस्लिम लीग दोनो साथ-साथ लडे थे / चुनाव के दौरान दोनों की नीतियों और उनके घोषणा-पत्रों में कोई खास अंतर नहीं था / देश भर में और विशेष कर उतरप्रदेश में एक मौन सहमति कायम हुई थी कि चुनाव के बाद संयुक्त मंत्रिमण्डल बनेगा / किन्तु दैव-योग से कांग्रेस ने जब पूर्ण बहुमत हासिल कर लिया तब उसने उस पूर्व-सहमति की उपेक्षा-अवहेलना कर दी / कांग्रेस के उस मंत्रिमण्डल में किसी भी मुसलमान को शामिल नहीं किया गया / इस सम्बन्ध में नेहरू के ही एक अच्छे मित्र और कांग्रेसी नेता मौलाना अबुल कलाम ने अपनी पुस्तक- ‘इण्डिया वींस फ्रीडम’ में लिखा है- “ यदि उतरप्रदेश में लीग के सहयोग-प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया गया होता तो मुस्लिम लीग व्यावहारिक रूप से कांग्रेस में समाहित हो गई होती / किन्तु नेहरू-कांग्रेस की असहिष्णुता के कारण जिन्ना ने अपमानित, विषादग्रस्त और निराश महशूस किया ” / सरोजिनी नायडू ने कांग्रेस की उस कार्रवाई को ‘पाप’ की संज्ञा देते हुए कहा था कि “ हमने कांग्रेस के साथ न्यायसंगत व्यवहार नहीं किया / कांग्रेस मंत्रिमण्डलों की कार्यप्रणाली तथा स्वार्थपूर्ण अडियल रवैयों ने जिन्ना को और अधिक कटू बना दिया / १९३७-३९ के उस दौर में ही जिन्ना ने ऐसा नकारात्मक रूख अपनाया कि वे साम्प्रदायिकतावादी हो गए / उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता-समानता की अपनी ही राष्ट्रवादिता में विश्वास खो दिया / एक व्यक्ति जिसे कभी कांग्रेसी होने में गर्व का अनुभव होता था, वह उसी संगठन का घोर दुश्मन हो गया / ”
देश-विभाजन के प्रत्यक्षदर्शी स्वतंत्रता-सेनानी सी०एच० सीतलवाड ने अपनी पुस्तक- “इण्डिया डिवाइडेड” में साफ-साफ लिखा है कि “ …..नंगी सच्चाई को यह कह कर छिपाना व्यर्थ है कि परिस्थितिजन्य मजबुरियों ने भारत का विभाजन स्वीकार करने के लिये कांग्रेस को विवश कर दिया था तथा उसे अपरिहार्य कारणों के समक्ष समर्पण करना पडा था / वास्तव में वे परिस्थितियां तो कांग्रेस द्वारा बनाई गई थीं / जो चीज (विभाजन) एक बार रोकी जा चुकी थी, उसे उसके (कांग्रेस के) कारनामों ने ही अपरिहार्य बना दिया था / हृदय में संजोया हुआ ‘संयुक्त भारत’ –‘अखंण्ड-भारत’ का वरदान उसकी गोद में आ पडा था , परन्तु कांग्रेस ने स्वएं के राजनीतिक स्वार्थ के कारण उसे बाहर फेंक दिया और अपनी पहुंच से दूर कर दिया / मुस्लिम-लीग अर्थात जिन्ना ने तो कैबिनेट-मिशन योजना को स्वीकार कर पाकिस्तान की मांग ही वापस ले ली थी , परन्तु कांग्रेस ने समस्या (विभाजन की मांग) को हमेशा के लिये समाप्त करने का अवसर ही खो दिया / जिन्ना ने तो १९४७ में भी पाकिस्तान की मांग पर इतनी गम्भीरता से कभी विश्वास नही किया था कि कांग्रेस उन्हें सिर्फ सत्ता से दूर करने के लिये सचमुच देश-विभाजन को भी तैयार हो जायगी ”/
मालूम हो कि सन-१९४५ में जिना ने मुस्लिम-लीग की कार्यसमिति की एक बैठक में बाजाब्ता एक प्रस्ताव पारित करा कर कैबिनेट-मिशन की योजना स्वीकार करते हुये पाकिस्तान की मांग वापस ले ली थी और घोषणा कर दी थी कि उन्होंने ‘सम्प्रभुता-सम्पन्न राज्य-पाकिस्तान की मांग का बलिदान कर दिया है ’ / “ द पार्टीशन आफ इण्डिया-लिजेन्ड एण्ड रियलिटी ” नामक पुस्तक में तत्कालीन इतिहासकार एम० एच० सिरचई ने भी लिखा है- “ यह बात प्रामाणिक रुप से स्पष्ट है कि वह कांग्रेस ही थी , जो विभाजन चाहती थी ; जबकि जिन्ना जो थे, सो विभाजन के खिलाफ थे / उन्होंने (जिन्ना ने) उसे द्वितीय वरीयता के रुप में स्वीकार किया ” /
किन्तु , जैसा कि ऊपर बता चुका हूं , जिन्ना को बर्दाश्त न कर पाने की असहिष्णुतावश नेहरु-कांग्रेस ने अपने मार्ग से उन्हें सदा-सर्वदाके लिए दूर कर देने हेतु खुद ही उन्हें पाकिस्तान परोस दिया / इस तथ्य की पुष्टि करते हुये प्रख्यात राजनीतिक लेखक धनंजय कीर ने अपनी पुस्तक “महात्मा गांधी-पोलिटिकल सेंट एण्ड अनार्म्ड प्रोफेट” में यह निष्कर्ष प्रतिपादित किया है कि “ चूंकि हिन्दू-मुस्लिम एकता के दूत को देय व्यवहार- सम्मान नहीं दिया गया, इसी कारण उसने अपनी भूमिका का परित्याग कर दिया तथा धीरे-धीरे कांग्रेस एवम उसकी नीतियों का घोर विरोधी हो गया ” /
अब ऐसे में आप समझ सकते हैं कि शायर मुन्नवर का बयान कितना सही है, कितना गलत और साथ ही यह भी कि कांग्रेस कितनी सहिष्णु है और भाजपा कितनी असहिष्णु ?
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