जनजातियों के ‘ख्रिस्तीकरण’ और ‘इस्लामीकरण’ को
‘धर्मान्तरण’ कहने की अनर्थकारी धूर्त्तता व मूर्खता
जनजातियों-वनवासियों के ‘ख्रिस्तीकरण’ (यीसाईकरण) अथवा ‘इस्लामीकरण’ को उनका धर्मान्तरण कहना षड्यंत्रकारी धूर्त्तता और घोर मूर्खता है ; क्योंकि जनजातीय-वनवासी (हिन्दू) समाज धर्मधारी होता है और ख्रिश्चियनिटी , अर्थात ‘यीसाइयत’ एक रिलीजन है, तो इस्लाम भी एक मजहब है । ‘रिलीजन’ और ‘मजहब’ नामक इन दोनों अवधारणाओं में से ‘धर्म’ कोई नहीं है , तो जाहिर है कि धर्मधारी लोगों को ‘रिलीजन’ या ‘मजहब’ में तब्दील कर देना उनके धर्म का उन्मूलन करना है ‘अंतरण’ तो कतई नहीं ; यह धर्मांतरण तो तब कहलाता, जब एक धर्म से दूसरे धर्म में ‘अन्तरण’ होता, अर्थात, ख्रिश्चियनिटी और इस्लाम भी कोई धर्म होता । धर्मान्तरण का शाब्दिक अर्थ होता है- धर्म का परिवर्तन होना , अर्थात व्यक्ति का एक धर्म से दूसरे धर्म में परिवर्तित होना । किन्तु, वह ‘दूसरा’ कोई ‘धर्म’ हो भी, तब तो । धर्म तो केवल धर्म है , वह न तो रिलीजन है और न ही मजहब है । रिलीजन व मजहब के जन्म से पहले भी धर्म कायम रहा है और चूंकि यह सृष्टि की प्रकृति व स्रष्टा की अभिव्यक्ति का पर्याय है , इसी कारण शाश्वत व सनातन है ; जबकि ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ किसी भी प्रकार से धर्म के पर्यायवाची अथवा समानार्थी कतई नहीं हैं ।
तब ऐसे में कोई भी हिन्दू जो धर्मधारी ही होता है, वह धर्म से विमुख हो कर रिलीजियस (ख्रिश्चियन) अथवा मजहबी (मुसलमान) बन जाता है , अर्थात ख्रिश्चियनिटी (रिलीजन) या इस्लाम (मजहब) अपना लेता है, तो उसका धर्म परिवर्तित नहीं होता है, अपितु उसकी धार्मिकता नष्ट हो जाती है; क्योंकि वह धर्म से इत्तर जिस धारणा को अपनाता है, वह धर्म है ही नहीं । जाहिर है- ऐसे में वह धर्मान्तरित नहीं , बल्कि ‘धर्मरहित’ या ‘धर्म-रिक्त’ अथवा ‘धर्म-भ्रष्ट’ या ‘धर्महीन’ हो जाता है । इस परिवर्तित स्थिति को धर्मान्तरित कहना और इस प्रक्रिया को धर्मान्तरण बताना सर्वथा अनुचित है ; क्योंकि इससे तो रिलीजन व मजहब को धर्म होने की मान्यता मिल जाती है ।
दरअसल इस ‘धर्मोंन्मूलन’ को ‘धर्मांतरण’ कहने-मानने की ऐसी धूर्तता व मूर्खता के मूल में ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ को ‘धर्म’ का समानार्थी मानने-समझने की अज्ञानतायुक्त उदारता सन्निहित है, जो औपनिवेशिक अंग्रेजी मैकाले शिक्षा से निर्मित मानस की राजनीतिक चोंचलेबाजियों से होती हुई अब अकादमिक-सामाजिक क्षेत्र में भी बौद्धिकता का रूप ले चुकी है । अंग्रेजी उपनिवेशवाद की पीठ पर सवार हो कर भारत आया हुआ ‘ख्रिस्तियन विस्तारवाद’ यहां अपनी जडें जमाने के लिए जिन बौद्धिक धूर्त्तताओं व षड्यंत्रों का सहारा लिया, उनमें से एक यह भी है । यह कि भारत के धर्मधारी हिन्दू समाज के बीच ख्रिश्चियनिटी फैलाने के निमित्त इसे एक ‘नया धर्म’ बताने हेतु उन रिलीजियस विस्तारवादियों ने अपने ‘येसु / यीसु’ को हमारे संस्कृत शब्द ‘ईश’ के सदृश ‘ईसा’ होना और ख्रिश्चियनिटी को ‘ईसाई धर्म’ होना प्रचारित किया-कराया, ताकि सामान्य जनमानस ख्रिश्चियनिटी को भी ‘ईश का’ अर्थात ‘ईश्वर द्वारा प्रतिपादित’ धर्म जान-मान सके । इस पैंतरेबाजी के कारण उन्हें ‘यीसु’ को ‘ईसा’ बना कर ‘ईश’ के अर्थ में प्रचारित करने से ‘यीसाइयत’ अर्थात ख्रिश्चियनिटी को ‘धर्म’ निरुपित कर देने और जन-सामान्य को उसे धर्म के तौर पर समझा देने की सुविधा कायम हो गई । फिर तो शिक्षा की ‘मैकाले पद्धति’ के अंग्रेजी स्कूलों से पढे-लिखे हिंदुओं ने ही ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम’ और ‘सब धर्म एक समान’ का राग आलापना शुरू कर दिया, तब उनका यह षड्यंत्र और आसानी से क्रियान्वित होने लगा । धीरे धीरे जब पूरी शिक्षा-व्यवस्था ही मैकाले-शिक्षा-पद्धति के अधीन हो कर चर्च-मिशनरियों की गिरफ्त में आ गई, तब स्कूलों-कॉलेजों में शिक्षार्थियों को ‘क्या पढ़ाना है’ यह भी वे ही तय करने लगे । उधर यीसाइयत और इस्लाम दोनों के झंडाबरदारों ने ‘पैगम्बरवादी’ और ‘एकल किताबवादी’ होने के आधार पर परस्पर मैत्री का हाथ मिला कर धर्म के विरुद्ध अघोषित मोर्चा खोल लिए ।
कालांतर बाद औपनिवेशिक शासन के सहारे शिक्षा व बौद्धिकता में रिलीजियस विस्तारवाद से युक्त अंग्रेजी सोच पूरी तरह से जब कायम हो गई , तब उन तथाकथित शिक्षाविदों ने धर्म के अधिष्ठाता ‘ब्रह्म’ के विरुद्ध ‘अब्रह्म’ अर्थात ‘अब्राहम’ का मीथक स्थापित करने और मोहम्मद व क्राईस्ट को राम-कृष्ण-विष्णु के समान सिद्ध करने के लिए इतिहास व समाजशास्त्र की पुस्तकों में ‘पैगम्बरवाद’ से ले कर ‘ऐकेश्वरवाद’ तक एक से एक अवधारणायें-स्थापनायें रच-गढ कर ‘बायबिल’ को ‘ज्ञान की इकलौती पुस्तक’, तो ‘कुरान’ को ‘आसमानी किताब’ होने की मिथ्या दावेदारी का वायरस फैला दिया, जो आज भी समूचे बौद्धिक वातायन को भ्रमित किये हुए है । इन दोनों पुस्तकों में ज्ञान का लेश मात्र भी नहीं होने के बावजूद रिलीजियस-मजहबी झण्डाबरदारों द्वारा उन्हें विज्ञान के आदि स्रोत- वेदों-पुराणों-उपनिषदों के अलावे रामायण व भग्वत गीता के समतुल्य बताने की हिमाकत की जाने लगी और आज भी की जा रही है । इस क्रम में उनने ‘गॉड’ और ‘खुदा’ को भी ‘ईश्वर’ का पर्याय के रूप में प्रचारित कर दिया । आप समझ सकते हैं कि जिस रिलीजन के अनुसार ‘गॉड’ को मात्र एक ही पुत्र हो ‘यीसु’ , वह भला समस्त चराचर जगत का रचइता व पालक-पोषक नियामक परमपिता कैसे हो सकता है ? इसी तरह से जिस मजहब के मुताबिक ‘निराकार’ ने यह हुक्म दे रखा हो कि ‘आकार’ की पूजा-भक्ति करने वालों से शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया जाना चाहिए, वह करुणासागर कृपानिधान दयानिधि परमात्मा कैसे हो सकता है ? लेकिन यह माना जा रहा है, या दूसरे शब्दों में कहें तो मनवाया जा रहा है कि ‘इकलौते पुत्र’ को जन्म दे कर पृथ्वी पर भेजने वाले ‘पिताजी’ और आकार की पूजा-भक्ति करने वालों का सफाया कर देने का फरमान जारी कर सातवें आसमान में कहीं विराज रहे ‘निराकार’ महोदय ; दोनों उस ‘परम ब्रह्म’ के पर्याय हैं, जिससे यह समस्त सृष्टि निःसृत हुई है । इन सब तथ्यहीन अवधारणाओं-मान्यताओं को जैसे-तैसे खींच-तान कर उन विस्तारवादियों द्वारा रिलीजन व मजहब को धर्म के सदृश परिभाषित-प्रदर्शित करने की कोशिशें लगातार की जाती रहीं, किन्तु वे सफल नहीं हो सके । कारण साफ है कि गड्ढों-कूपों का जल न कभी गंगा हो सकता है, न समुद्र । बावजूद इसके, धर्मधारी लोगों की अंग्रेजी शिक्षा से निर्मित और औपनिवेशिक राजनीति से संचालित बौद्धिकता ने ‘ईश्वर अल्ला तेरो नाम - सर्व धर्म एक समान’ का नारा देते हुए रिलीजन व मजहब को भी धर्म होने की भ्रांति फैला रखी है , जिसका परिणाम सामने है ।
किसी व्यक्ति को, या यों कहिए कि एक सनातनी / हिन्दू को धर्म से विमुख कर उस पर रिलीजन या मजहब थोप देने को यह कहा जा रहा है कि उसने ‘दूसरा धर्म’ अपना लिया और चूंकि धार्मिक स्वतंत्रता संविधान प्रदत मौलिक अधिकार है, इसलिए यह उचित भी है । जबकि, वास्तव में यह धर्मांतरण नहीं , बल्कि धर्मोन्मूलन है और इस कारण घोर अनुचित व आपराधिक कृत्य है । कोई हिन्दू अथवा धार्मिक व्यक्ति अगर स्वेच्छा से ऐसा करता है , तो उसके इस कृत्य को ‘धर्म-द्रोह’ कहा जाएगा और ऐसा करने वाले को ‘धर्म-द्रोही क्रिश्चियन’ अथवा ‘धर्मद्रोही मुस्लिम’ कहा जा सकता है, न कि धर्मांतरित ; क्योंकि धर्म तो केवल और केवल एक ही है । जबकि धर्म से इत्तर अधर्म है , चाहे वह रिलीजन हो या मजहब । धर्म से जबरिया (लोभ-लालच-भय-प्रलोभन के सहारे) विमुख कराया हुआ व्यक्ति ‘धर्म-भ्रष्ट’ या ‘धर्महीन’ और धर्म से स्वयं विमुख हुआ व्यक्ति ‘धर्मद्रोही’ कहला सकता है , मगर ‘धर्मांतरित’ तो कतई नहीं । इस संबंध में सबसे अचरज वाली बात यह है कि धर्मधारी व्यक्ति-समाज के यीसाईकरण (ख्रिस्तीकरण) या इस्लामीकरण का विरोध करते रहने वाले धार्मिक हिन्दू-संगठन भी उन्हीं रिलीजियस-मजहबी विस्तारवादियों की हां में हां मिलाते हुए रिलीजन व मजहब को ‘धर्म’ एवं ‘धर्मोन्मूलन’ अथवा ‘धर्म-विच्छेदन’ को धर्मांतरण ही समझते रहे हैं । किसी धार्मिक व्यक्ति (हिन्दू) अथवा धार्मिक समाज (हिन्दू समाज) को क्रिश्चियन (ख्रिश्चियन) अथवा मुसलमान बनाये जाने को धर्मान्तरण के बजाय उनका ‘ख्रिस्तीकरण’ या ‘इस्लामीकरण’ कहा जाना ही उचित व तर्कसंगत है ; न कि धर्मान्तरण । इसे धर्मान्तरण कहने-मानने से ख्रिश्चियनिटी नामक रिलीजन और इस्लाम नामक मजहब को भी धर्म समझ लिए जाने का अनर्थ हो जाता है ; जबकि धर्म न तो रिलीजन है, न मजहब है ; वह तो सनातन है ।
ऐसे में सरकार एवं न्यायालय दोनों को चाहिए कि वह तर्क, तथ्य व सत्य की कसौटी पर वस्तु-स्थिति की विवेचना कर ‘धर्मांतरण’ की भ्रांति को दूर करे और यह स्थापित करे कि रिलीजन व मजहब में से कोई भी ‘धर्म’ नहीं है, इसलिए ‘धर्म-विच्छेदन’ को धर्मांतरण कतई नहीं कहा जा सकता है; जबकि व्यक्ति-समाज के जिस ‘ख्रिस्तीकरण’ व ‘इस्लामीकरण’ को ‘धर्मांतरण’ कहा जा रहा है, सो वास्तव में ‘धर्मोन्मूलन’ है । कम से कम संघ-परिवार को तो इस अनर्थकारिता से बचना ही चाहिए ।
• जनवरी’ २०२५
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