साम्यवाद के प्रवर्तक पुरुष- कार्ल मार्क्स का कथन यह नहीं है कि ‘धर्म अफीम है’ ; अपितु उन्होंने यह कहा है (था) कि ‘रिलीजन (अर्थात मजहब) अफीम’ है । किन्तु धर्म-प्राण राष्ट्र भारत में यहां के वामपंथी विचारक मार्क्स के हवाले से धर्म के प्रति नकारात्मकता फैलाते रहे हैं । वे मार्क्सवाद के नाम पर वास्तव में भारतीय जनता को बरगलाते रहे हैं । वे मार्क्स के इस कथ्य का जो हवाला देते हैं, सो वस्तुतः आधा-अधुरा है । पूरा तथ्य यह है, जो मार्क्स ने कहा था कि “Religion is the sigh of the oppressed creature, the heart of a heartless world, and the soul of soulless conditions. It is the opium of the people.” अर्थात ‘रिलीजन’ उत्पीड़ित प्राणी की आह है, एक हृदयहीन दुनिया का हृदय है, और आत्माहीन परिस्थितियों की आत्मा है । यह लोगों की अफीम है” । स्पष्ट है- मार्क्स ने केवल और केवल रिलीजन को अफीम कहा है, धर्म को नहीं । रिलीजन जो है, सो कहीं से भी ‘धर्म’ नहीं है । वह मजहब तो है, किन्तु धर्म कतई नहीं है । धर्म का अंग्रेजी अनुवाद भी नहीं है, रिलीजन । धर्म केवल धर्म है , जो सनातन है और भारत राष्ट्र की राष्ट्रीयता भी है ।
मालूम हो कि कार्ल मार्क्स को धर्म से साक्षात्कार ही नहीं हुआ था कभी । धर्म जिस भारत राष्ट्र की राष्ट्रीयता है, उस भारत की भूमि पर कार्ल मार्क्स का कभी आगमन ही नहीं हुआ था । इतना ही नहीं, धर्म को अभिव्यक्त करने वाले वेदों-शास्त्रों का भी मार्क्स ने अध्ययन किया हो , ऐसा कहीं कोई उल्लेख या संदर्भ नहीं मिलता है । अब जो व्यक्ति गूड कभी चखा ही नहीं हो और गूड बनने-बनाने की विधि-प्रक्रिया भी नहीं जानता हो, वह एकबारगी ऐसा बयान जारी कर दे कि ‘गूड तो एक प्रकार की मिर्ची है’, तो वह कितना विश्वसनीय होगा ? मैं मार्क्स की धर्म-विषयक बौद्धिकता और तत्सम्बन्धी उक्ति की विश्वसनीयता पर सवाल नहीं उठा रहा हूं । क्योंकि, मार्क्स ने धर्म के सम्बन्ध में तो ऐसा कुछ कहा ही नहीं है । कहते भी कैसे ? वे तो जीवन-पर्यंत रिलीजन व मजहब की हवा में ही सांस लेते रहे । जर्मनी में जन्मे और ब्रिटेन में मृत्यु को प्राप्त हुए ; तो धर्म को कहां से जान-समझ लिए थे, जो ऐसा कहते । जाहिर है, उन्होंने ऐसा कहा ही नहीं है ; अपितु उनका जो कथ्य है, सो रिलीजन-मजहब के प्रति है; क्योंकि वे रिलीजन व मजहब की विडम्बनाओं को जीवन भर देखते-समझते और युरोपियन-अमेरिकन प्रजा को उससे उत्पीडित-प्रताडित होते देखते रहे थे । जैसा कि उन्होंने उसे- ‘हृदयहीन दुनिया का हृदय , और आत्माहीन परिस्थितियों की आत्मा’ कहा हुआ है ।
किन्तु वामपंथियों के अनर्गल प्रलाप के कारण बीते कई दशकों से देश भर में रिलीजन व मजहब को धर्म कहने-मानने और समझ लेने की मान्यता अनायास ही कायम हो गई है । यह एक बहुत बडी बौद्धिक धूर्त्तता की परिणति है, जो तेजी से फैलती गई और आम जनमानस ही नहीं, बल्कि सामान्य बुद्धि-सम्पन्न लोग भी इस मान्यता को सहज ही स्वीकार कर लेने की मूर्खता करते रहे हैं । जबकि सच यह है कि रिलीजन व मजहब कहीं से भी धर्म के निकट तक नहीं हैं । क्योंकि, धर्म तो समस्त विश्व-वसुधा के कल्याणार्थ मानवोचित कर्तव्यों का समुच्चय है और सृष्टिकर्ता-ब्रह्म से निःसृत है । जबकि, रिलीजन एक पैगम्बर (तथाकथित ईश्वरीय दूत) के प्रति ‘फेथ’ (विश्वास) की अभिव्यक्ति और पूरी पृथ्वी पर श्वेतरंगी मनुष्यों के कल्पित-लक्षित आधिपत्य की कूटनीति है; तो मजहब हजरत मोहम्मद साहब (कथित अंतिम पैगम्बर) के अरबी साम्राज्य के विस्तार व सुरक्षा की रणनीति है । ये दोनों ही ब्रह्म से उलट काल्पनिक ‘अब्रह्म’ (अब्राह्म/अब्राहम) से अभिप्रेरित हैं । रिलीजन व मजहब दोनों धर्म-विरोधी, ब्रह्म विरोधी और वेदविरोधी हैं; इस कारण दोनों ‘अधर्म’ हैं । ये दोनों तो लगभग एक समान हैं, किन्तु इन दोनों में से कोई भी, किसी भी कोण से धर्म का पर्याय कतई नहीं है । अब इसे ऐसे समझिए कि राजधर्म व राष्ट्रधर्म शब्द से जो अर्थ अभिव्यक्त होता है, उस अर्थ को अभिव्यक्त करने वाला अन्य कोई भी शब्द विश्व की किसी भी भाषा में उपलब्ध नहीं है । राजधर्म का अर्थ होता है- राज्य का धर्म, राजा का धर्म ; अर्थात राज्य का कर्तव्य या राजा का कर्तव्य । यहां धर्म का जो अर्थ प्रकट हो रहा है , सो ‘रिलीजन’ या ‘मजहब’ से प्रकट नहीं होता है । इसी कारण ‘राजरिलीजन’ और ‘राजमजहब’ नाम का कोई शब्द न किसी रिलीजियस भाषा-साहित्य में है, न किसी मजहबी भाषा-साहित्य में । ठीक इसी प्रकार से राष्ट्रधर्म अर्थात राष्ट्र के प्रति धर्म को अभिव्यक्त करने में रिलीजन व मजहब सर्वथा असमर्थ है ; तभी तो ‘राष्ट्ररिलीजन’ व ‘राष्ट्रमजहब’ अथवा ‘नेशनरिलीजन’ और ‘नेशनमजहब’ नाम के शब्द भी किसी भाषा-साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं । इसी प्रकार से ‘पितृधर्म’ व ‘पुत्रधर्म’ शब्द से पिता-पुत्र के जिस कर्तव्य-धर्म का बोध होता है, उसे अभिव्यक्त करने में भी रिलीजन व मजहब सर्वथा असमर्थ हैं । इस तथ्य से यह सत्य स्वयं सिद्ध हो जाता है कि रिलीजन व मजहब किसी भी हालत में धर्म के समानार्थी या पर्यायवाची कतई नहीं हैं । अंग्रेजी भाषा के ‘रिलीजन’ शब्द का अर्थ अंग्रेजी डिक्शनरी में भी ‘धर्म’ नहीं है; जबकि धर्म को अंग्रेजी में अभिव्यक्त करने वाला शब्द ‘धर्मा’ है, न कि रिलीजन ।
धर्म कभी भी किसी के प्रति वैर-वैमनस्यता की प्रेरणा कतई नहीं देता, अपितु वह तो विश्व-कल्याण की भावना भरता है तथा सभी मनुष्यों को परमात्मा की संतान बताते हुए वसुधैव कुटुम्बकम का बोध कराता है और तदनुसार जीवन जीने का आचार विचार संस्कार युक्त कर्तव्य का क्रियान्वयन सुनिश्चित करता है । जबकि रिलीजन, जो निश्चित रुप से क्रिश्चियनिटी ही है, सो जिसस क्राईस्ट को ‘गॉड’ का इकलौता पुत्र होने का दावा करते हुए उसके अनुयायियों को ही सम्पूर्ण पृथ्वी का स्वामी बताते हुए गैर-क्रिश्चियन एवं मूर्ति-पूजक प्रजा को उनकी दासता-अधीनता में रहने के लिए अभिषप्त करार देता है । उधर उस मजहब की तान तो और ही विचित्र है, जो निश्चित ही इस्लाम है , सो गैर-इस्लामियों को शत्रु-कूफ्र-काफीर मानते हुए उनकी हत्या को वाजीब ठहराता है और उनकी स्त्रियों-सम्पत्तियों को माल-ए-गनीमत मानता है । इन दोनों में से कोई भी समस्त विश्व-वसुधा का कल्याण कतई नहीं चाहता है, जबकि दोनों ही सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिकार अवश्य चाहते हैं और केवल चाहते ही भर नहीं है , बल्कि ऐसा दावा भी करते हैं और गैर-मजहबियों को मिटा देना अपना रिलीजियस-मजहबी कर्तव्य मानते हैं । अब ऐसे में इन दोनों में किसी को भी धर्म कैसे कहा जा सकता है, कैसे माना जा सकता है ? धर्म तो मानवेत्तर प्राणियों के प्रति भी दया भाव जगाता है- गायों को मातृवत सम्मान देता है तथा सर्पों की भी पूजा करता है ; जबकि रिलीजन और मजहब अन्य प्राणियों के मांसाहार के साथ-साथ गौमांस-भक्षण को भी वाजीब करार देता है । व्यष्टि से ले कर समष्टि तक सब के कल्याणार्थ जो मानवोचित आचरण है सो धर्म है ; किन्तु रिलीजन व मजहब इस भाव से सर्वथा शून्य हैं, तब भी उन्हें धर्म कहना बौद्धिक मूर्खता या धूर्त्तता नहीं तो और क्या है ? यह बौद्धिक मूर्खता विश्वास और आस्था के तर्क पर टिकी हुई बतायी जाती है, तो ठीक है आप विश्वास और आस्था को रिलीजन और मजहब कहिए , किन्तु उसे धर्म तो मत कहिए ; क्योंकि धर्म केवल विश्वास और आस्था मात्र नहीं है, अपितु विज्ञान-सम्मत विश्वास व श्रद्धाजनित आस्था से युक्त सर्वकल्याणकारी मानवोचित नैतिक आचरण एवं कर्त्तव्य की अवधारणा है धर्म, जो दस तत्वों से निर्धारित-परिभाषित हुआ है- सत्य, संयम, क्षमा, अहिंसा, तप, दान, शौच, शांति, अस्तेय, ब्रह्मचर्य । इनमें से कोई एक भी तत्व न रिलीजन में है, न मजहब में । धर्म धारण किये जाने वाले गुणों कर्तव्यों एवं वर्जनाओं का समुच्चय है , दूसरों पर थोपे जाने वाले निजी ‘फेथ’ या आस्था-विश्वास का पिटारा नहीं है ।
बावजूद इसके, राजनीति की पाठशाला के वामपंथी शब्दकोश में रिलीजन व मजहब को भी धर्म का अर्थ जबरिया प्रदान कर दिया गया है और अधर्म को अभिव्यक्त करने वाले रिलीजन व मजहब को धर्म का समानार्थी-पर्यायवाची बताया जा रहा है । यह तो एक प्रकार का बौद्धिक व्याभिचार है , जिसके लिए दुनिया भर में कुख्यात रहे हैं वामपंथी । किसी झूठ को हजार-हजार मुखों से उच्चारित-प्रचारित करवा कर उसे सच नहीं तो कम से कम सच के सच के समान सिद्ध कर देना और झूठे-झूठे आख्यान रच-गढ कर सच को ही झूठ घोषित कर देना वापपंथियों का शगल रहा है । उनके ऐसे-ऐसे कारनामों के कारण कम से कम अपने भारत में तो अनेक अनर्थकारी समस्यायें उत्पन्न हो चुकी हैं और हो रही हैं । मसलन यह कि रिलीजन व मजहब की कारगुजारियों से धर्म यों ही बदनाम हो जा रहा है । रिलीजन व मजहब के भीतर की दुष्प्रवृतियों कुप्रथाओं को भी धर्म की अवांछनीयतायें करार दे दी जाती हैं; जबकि धर्म उनसे (तलाक, हिजाब, हलाला आदि से) अछुता है । रिलीजन-मजहब के झण्डाबरदारों की काली करतूतों के लिए भी धर्म ही लोगों के कोपभाजन का शिकार होता है ।
• जुलाई’ २०२५
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