‘धर्म’ नहीं, ‘अधर्म’ हैं- ‘रिलीजन’ और ‘मजहब’

‘संस्कृत’ समस्त भारतीय भाषाओं की जननी है और ‘अ-अनुदितीय’(Non-translatable) भाषा है; अर्थात संस्कृत-शब्दों का अन्य भाषाओं में ठीक-ठीक अनुवाद नहीं किया जा सकता है । कुछ विशिष्ट संस्कृत-शब्दों का तो किसी भी प्रकार से अनुवाद सम्भव ही नहीं है, विशेष कर अभारतीय विदेशी भाषाओं में । अंग्रेजी भाषा में तो संस्कृत के कुछ खास पदों-शब्दों को अनुदित करने की क्षमता का घोर अभाव है । फिर भी उन्हें जबरिया अनुदित किया जाता है, तो उनके अर्थ न केवल बदल जाते हैं, अपितु संकुचित भी हो जाते हैं । ‘धर्म’ और ‘अधर्म’ ऐसे ही शब्द हैं, जिनके अंग्रेजी अनुवाद अनर्थकारी हैं । दरअसल, संस्कृत की गैर-अनुवादनीयता (Non-translatability) की प्रकृति एवं अंग्रेजी भाषाविदों की प्राच्यवादी दृष्टि के कारण उनके द्वारा किये गए अनुवादों से प्रायः अनेक भ्रांतियां भी उत्त्पन्न होती रही हैं । एडवर्ड सईद के अनुसार, पश्चिम का ‘प्राच्यवाद’ (orientalism) पूर्वी संस्कृति (भारतीय संस्कृति) पर स्वघोषित पश्चिमी सांस्कृतिक श्रेष्ठता की दृष्टि से शोध करने की पश्चिमी शैक्षणिक प्रथा है, ताकि पूर्व (वृहतर भारत) को जीता या सुधारा जा सके (पश्चिम के अनुकूल किया जा सके) । किन्तु प्राच्यवादी पद्धतियों ने कभी-कभी (या प्रायः) संस्कृत के अध्ययन में भारतीय ज्ञान-परंपराओं को गलत तरीके से प्रस्तुत किया । जटिल व गूढ संस्कृत-शब्दों-सिद्धांतों का पश्चिमी (अभारतीय) भाषाओं और विचार-प्रणालियों में अनुवाद करने से अक्सर जाने-अनजाने में विकृतियाँ पैदा होती ही रही हैं । प्राच्यवादियों ने उपनिवेशित संस्कृतियों का अध्ययन उन पर पश्चिम का प्रभुत्व स्थापित करने के एक साधन के तौर पर किया । सामान्य रूप से प्राच्यवाद का उद्देश्य, “पूर्व के ज्ञान को एकत्रित करना, उसे घेरना, उसे पालतू बनाना और इस प्रकार उसे यूरोपीय शिक्षा के एक अंग में बदलना” था । ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों ने भारतीय ज्ञान-परम्परा के संवाहक गुरुकुलों को मिटा कर उनके स्थान पर मैकॉले प्रणीत अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति कायम कर ऐसा ही किया भी । तब से आज तक पीढी-दर-पीढी भारतीय बौद्धिक मानस को संस्कृत-शब्दो के अनुपयुक्त अंग्रेजी-अर्थ रटाये जाते रहे हैं ।
औपनिवेशिक दौर से ही धर्म को ‘रिलीजन’ और ‘मजहब’ को भी ‘धर्म’ कहने-मानने-समझने तथा ‘सर्व धर्म एक समान’ के तराने गाने का जो एक बौद्धिक ‘फैशन’ सा चल पडा है, सो इसी विकृति और अंग्रेजी-शिक्षापद्धति की देन है । दुसरे शब्दों में कहें कि यह फैशन धर्मधारी भारत राष्ट्र एवं हिन्दू समाज के विरुद्ध रिलीजियस-मजहबी विस्तारवादियों की सुनियोजित प्राच्यवादी बौद्धिक धूर्त्तता की परिणति है, जो तेजी से फैलती जा रही है । फलतः आम हिन्दू-जनमानस ही नहीं, बल्कि बुद्धि-सम्पन्न सनातनी भी इस मान्यता को सहज ही स्वीकार कर लेने की मूर्खता करते देखे जा रहे हैं ।
जबकि, सच यह है कि ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ कहीं से भी ‘धर्म’ के निकट तक नहीं हैं । क्योंकि, धर्म तो समस्त विश्व-वसुधा के कल्याणार्थ मानवोचित कर्मों-कर्तव्यों का समुच्चय है और सृष्टिकर्ता-ब्रह्म से ही निःसृत है । जबकि, ‘रिलीजन’ एक पैगम्बर (तथाकथित ईश्वरीय दूत) के प्रति ‘फेथ’ (विश्वास) की अभिव्यक्ति और पूरी पृथ्वी पर श्वेतरंगी मनुष्यों के कल्पित-लक्षित आधिपत्य की कूटनीति है ; तो ‘मजहब’ हजरत मोहम्मद साहब (कथित अंतिम पैगम्बर) के अरबी साम्राज्य के विस्तार एवं उसकी सुरक्षा की रणनीति है । इन दोनों का उद्भव-स्रोत एक ही है और ये दोनों ही ‘ब्रह्म’ से उलट काल्पनिक ‘अब्रह्म’ (अब्राह्म/अब्राहम) से अभिप्रेरित हैं । रिलीजन व मजहब दोनों धर्म-विरोधी, ब्रह्म-विरोधी और वेद-विरोधी हैं; इस कारण ये दोनों ‘अधर्म’ हैं । ये दोनों परस्पर एक समान तो हैं, किन्तु इन दोनों में से कोई भी, किसी भी कोण से धर्म का पर्याय कतई नहीं है । आप इसे ऐसे समझिए कि ‘राजधर्म’ व ‘राष्ट्रधर्म’ शब्द से जो अर्थ अभिव्यक्त होता है, उस अर्थ को अभिव्यक्त करने वाला अन्य कोई भी शब्द विश्व की किसी भी भाषा में उपलब्ध नहीं है । राजधर्म का अर्थ होता है- राज्य का धर्म, राजा का धर्म ; अर्थात राज्य का कर्तव्य या राजा का कर्तव्य । यहां धर्म का जो अर्थ प्रकट हो रहा है , सो ‘रिलीजन’ या ‘मजहब’ से प्रकट नहीं होता है । इसी कारण ‘राजरिलीजन’ एवं ‘राजमजहब’ नाम का कोई शब्द न किसी रिलीजियस भाषा-साहित्य में है, न किसी मजहबी भाषा-साहित्य में ; धार्मिक भाषा-साहित्य में तो हो ही नहीं सकता । ठीक इसी प्रकार से राष्ट्रधर्म अर्थात राष्ट्र के प्रति धर्म को अभिव्यक्त करने में रिलीजन व मजहब सर्वथा असमर्थ हैं ; तभी तो ‘राष्ट्ररिलीजन’ व ‘राष्ट्रमजहब’ अथवा ‘नेशन-रिलीजन’ और ‘नेशनमजहब’ नाम के शब्द भी किसी भाषा-साहित्य में उपलब्ध नहीं हैं । इसी प्रकार से ‘पितृधर्म’ व ‘पुत्रधर्म’ शब्द से पिता-पुत्र के जिस कर्तव्य का बोध होता है, उसे अभिव्यक्त करने में भी रिलीजन व मजहब सर्वथा असमर्थ हैं । इस तथ्य से यह सत्य स्वयं सिद्ध हो जाता है कि रिलीजन व मजहब किसी भी हालत में धर्म के समानार्थी या पर्यायवाची कतई नहीं हैं । अंग्रेजी भाषा के ‘रिलीजन’ शब्द का अर्थ अंग्रेजी शब्दकोश में भी ‘धर्म’ नहीं है; जबकि धर्म को अंग्रेजी में अभिव्यक्त करने वाला शब्द ‘धर्मा’ है, न कि ‘रिलीजन’ । यहां एक और तथ्य ध्यातव्य है कि जिस प्रकार से ‘धर्म’ का विलोम शब्द-अर्थ ‘अधर्म’ है, उसी प्रकार से ‘रिलीजन’ और ‘मजहब’ का विलोम शब्द-अर्थ ‘नॉन-रिलीजन’ और ‘अ-मजहब’ नहीं है । इससे भी यह सिद्ध होता है कि रिलीजन व मजहब शब्द किसी भी कोण से ‘धर्म’ के समानार्थी नहीं हैं ।
धर्म कभी भी किसी के प्रति वैर-वैमनस्यता की प्रेरणा कतई नहीं देता, अपितु वह तो विश्व-कल्याण की भावना भरता है तथा सभी मनुष्यों को परमात्मा की संतान बताते हुए वसुधैव कुटुम्बकम का बोध कराता है और तदनुसार जीवन जीने का आचार-विचार-संस्कार युक्त कर्तव्य का क्रियान्वयन सुनिश्चित करता है । जबकि रिलीजन, जो निश्चित रुप से क्रिश्चियनिटी है, सो गॉड को सृष्टि का निर्माता एवं जिसस क्राईस्ट को ‘गॉड’ का इकलौता पुत्र होने का दावा करती है तथा इस आधार पर उसके अनुयायियों को ही सम्पूर्ण पृथ्वी का उतराधिकारी करार देती है और गैर-क्रिश्चियन एवं मूर्ति-पूजक प्रजा को उनकी दासता-अधीनता में रहने के लिए अभिशप्त बताती है । उधर उस मजहब की तान तो और ही विचित्र है, जो निश्चित ही इस्लाम है , सो गैर-इस्लामियों को शत्रु-कूफ्र-काफीर मानते हुए उनकी हत्या को वाजीब ठहराता है और उनकी स्त्रियों-सम्पत्तियों को ‘माल-ए-गनीमत मानता है । इन दोनों में से कोई भी समस्त विश्व-वसुधा का कल्याण कतई नहीं चाहता है, जबकि दोनों ही सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना आधिपत्य अवश्य चाहते हैं और केवल चाहते ही भर नहीं हैं , बल्कि ऐसा दावा भी करते हैं और इस बावत गैर-क्रिश्चियनों एवं गैर-मजहबियों को मिटा देना अपना रिलीजियस-मजहबी फर्ज मानते हैं ।
धर्म के मौलिक तत्वों से सर्वथा वंचित हैं रिलीजन-मजहब- धर्म तो मानवेत्तर प्राणियों के प्रति भी दया भाव जगाता है- गायों को मातृवत सम्मान देना तथा सर्पों की भी पूजा करना सिखाता है ; जबकि रिलीजन और मजहब तो अन्य प्राणियों के साथ-साथ गौमांस-भक्षण को भी वाजीब करार देता है । व्यष्टि से ले कर समष्टि तक सब के कल्याणार्थ, जो मानवोचित आचरण है, सो धर्म है ; किन्तु रिलीजन व मजहब इस भाव से सर्वथा शून्य हैं, तब भी उन्हें धर्म कहना बौद्धिक मूर्खता या सोची-समझी धूर्त्तता नहीं तो और क्या है ? यह बौद्धिक मूर्खता एक खास विश्वास और आस्था के तर्क पर टिकी हुई बतायी जाती है । कोई किसी विश्वास व आस्था को रिलीजन और मजहब कहे , इस पर कोई आपत्ति नहीं ; किन्तु उसे ‘धर्म’ कहना घोर आपत्तिजनक है । क्योंकि, धर्म केवल विश्वास और आस्था मात्र नहीं है, अपितु विज्ञान-सम्मत विश्वास व श्रद्धाजनित आस्था से युक्त सर्वकल्याणकारी मानवोचित नैतिक आचरण, सर्वकल्याणकारी चिन्तन एवं मानवीय कर्त्तव्यों की अवधारणा है धर्म, जो इन दस तत्वों से निर्धारित-परिभाषित हुआ है- सत्य, संयम, क्षमा, अहिंसा, तप, दान, शौच, शांति, अस्तेय, ब्रह्मचर्य । इनमें से एक-आध को छोड, अधिकतर तत्व न रिलीजन में हैं, न मजहब में ; तो उन्हें धर्म कैसे कहा जा सकता है ? ‘धर्म’ तो मानवीय जीवन-मूल्यों, कर्त्तव्यों, नैतिकताओं, वर्जनाओं का समुच्चय है । व्यष्टि से ले कर सृष्टि तक व पिण्ड से ले कर ब्रह्माण्ड तक सर्वत्र व्याप्त गोचर-अगोचर परम नियामक सत्ता को जानने-समझने एवं उससे एकाकार होने और जन्म-मरण-पुनर्जन्म के बन्धन से मुक्त होने व मोक्ष को प्राप्त होने की आध्यात्मिक विद्या के अभ्यास-क्रम का मर्म है धर्म । दूसरे शब्दों में कहें तो यह कि नर से नारायण होने की आध्यात्मिक यात्रा का मार्ग है धर्म, जो सनातन है और जैन-बौद्ध-सिक्ख-शैव-शाक्त-वैष्णव आदि कतिपय पंथों-सम्प्रदायों से युक्त है । ‘सर्वधर्म एक समान’ की भारतीय दृष्टि इन्हीं धार्मिक पंथों-सम्प्रदायों के परिप्रेक्ष्य में है, क्योंकि ये सब धर्म के मूल तत्वों से युक्त हैं और पुनर्जन्म से मुक्ति एवं मोक्ष की प्राप्ति के ही ‘पथ’ (पंथ) हैं । जबकि, ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ का ‘पुनर्जन्म’ व ‘मोक्ष’ से कोई वास्ता नहीं है । ये दोनों तो अध्यात्म विद्या से सर्वथा रहित हैं और मानव-मानव के बीच भेद सहित गैरों पर प्रभुत्व स्थापित करने के प्रपंच मात्र हैं । ‘धर्म’ धारण किये जाने योग्य गुणों-कर्तव्यों-आदर्शों-नियमों का समुच्चय है , दूसरों पर थोपे जाने वाले निजी ‘फेथ’ या ‘अंध-विश्वास’ का पिटारा नहीं है ।
धर्म सर्वकल्याणकारी, किन्तु रिलीजन-मजहब हैं विभाजनकारी- धर्म तो समस्त मानव एवं मानवेत्तर प्राणियों सहित सम्पूर्ण विश्व-वसुधा के लिए भी कल्याणकारी है । नदी, पर्वत, वन, आकाश, अन्तरिक्ष, भूमि, अग्नि, वायु, सूर्य, चन्द्र, तारा, ब्रह्माण्ड, सबके प्रति कृतज्ञता-बोध का सूचक-प्रेरक है धर्म । किन्तु रिलीजन-मजहब तो मानव-मानव के बीच विभाजनकारी है; क्योंकि वे नॉनरिलीजियस-एवं गैर-मजहबियों के साथ सह-अस्तित्व को नकारते हैं । धर्म सहज स्वीकार्य है, जबकि रिलीजन-मजहब जबरिया विस्तार पाते हैं । इन दोनों का विस्तार इनके प्रति ‘फेथ’ करने एवं इन पर ‘ईमान’ लाने वालों के द्वारा गैरों पर जबरिया थोपने से हुआ है । क्रिश्चियनिटी नामक रिलीजन और इस्लाम नामक मजहब ; ये दोनों वैश्विक प्रभुत्व कायम करने के उपकरण हैं , क्योंकि वे अधार्मिक व अब्राह्मिक अवधारणा से निर्मित हुए हैं । इसके लिए वे हिंसा-आतंक-अत्याचार बरपाते रहे हैं , जिन्हें रिलीजन की भाषा में ‘क्रूसेड’ एवं मजहब की भाषा में ‘जिहाद’ कहा जाता है । वे लोग अपनी-अपनी रिलीजियस-मजहबी आसमानी किताब क्रमशः- ‘बाइबिल’ व ‘कुरान’ के आधार पर उस ‘क्रूसेड’ व ‘जिहाद’ को उचित भी बताते रहे हैं (जस्टिफाई करते हैं) । जाहिर है- रिलीजन ‘क्रूशेड’ को प्रेरित करता है और मजहब ‘जिहाद’ को, जिसके द्वारा नॉन-रिलीजियस एवं गैर-मजहबी और मूर्तिपूजक धार्मिक लोग लूट-मार , हत्या-बलात्कार , दंगा-फसाद के शिकार होते रहे हैं । ‘Jesus Christ: An Artifice for Aggression’ के लेखक स्व.सीताराम गोयल ने यहूदियों के व्यापक नरसंहार को रिलीजियस विस्तारवाद से ही प्रेरित सिद्ध किया है । वे लिखते हैं- “ यहूदियों को ‘शैतान की औलाद’ बता कर उनका सामूहिक संहार सिर्फ इसीलिए किया गया, क्योंकि वे लोग यीसु को ‘मसीहा’ मानने से इंकार कर दिये थे । बाद के ईसाई-साहित्य ने उनको ‘यीसु के हत्यारे’ के तौर पर स्थायी अपराध-भाव से भर दिया । यहूदियों को सारे यूरोप में सदियों तक गैर-नागरिक बनाए रखा गया और उन्हें लगातार विभिन्न हत्याकाण्डों का शिकार बनाया जाता रहा ।” फ्रांसिसी लेखक और दार्शनिक वोल्तेयर ने क्रिश्चियनिटी नामक रिलीजन के इतिहास और चरित्र का अध्ययन करने के बाद टिप्पणी की हुई है- “क्रिश्चियनिटी विश्व पर थोपा गया सबसे हास्यास्पद, ‘एब्सर्ड’ और रक्तरंजित रिलीजन है । हर संवेदनशील व्यक्ति को इस रिलीजन से डरना चाहिए । ईसाइयत ने काल्पनिक सत्य के लिए धरती को रक्त से नहला दिया ।” उनकी यह बात शत-प्रतिशत खरी है । इस प्रसंग में सबसे खास बात यह है कि हिंसा और घृणा का यह क्रूसेड-अभियान सदैव ही सम्बन्धित राज-सत्ता से संपोषित रहा है ।
इस्लाम का विस्तार भी कमोबेस ऐसे ही खौफनाक तरीकों और सैन्य जिहादों से हुआ है । स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में “ ऐसा कोई अन्य मजहब नहीं, जिसने इतना अधिक रक्तपात किया हो और गैर-मजहबियों के लिए इतना क्रूर हो । मजहबियों की मान्यता है कि जो ‘कुरान’ को नहीं मानता, उसका कत्ल कर दिया जाना चाहिए । उसको मार डालना, उस पर दया करना है । विख्यात अंग्रेजी लेखक-आलोचक विलियम म्यूर ने तो यहां तक कहा है कि “ मोहम्मद का मजहब और ‘कुरान’ सभ्यता, स्वतन्त्रता और सत्य के सबसे घातक शत्रु हैं। जाहिर है- ये दोनों ही अधार्मिक-अब्राह्मिक अवधारणायें समस्त विश्व-वसुधा के लिए कल्याण्कारी कतई नहीं हैं । विश्वकवि रविन्द्र नाथ ठाकुर के शब्दों में- “विश्वभर में दो ऐसे रिलीजन हैं, जो गैरों के विरुद्ध विशेष शत्रुता रखते हैं । ये दोनों हैं-क्रिश्चियनिटी और इस्लाम । वे केवल अपने मतानुसार अपना जीवन व्यतीत करने में ही सन्तुष्ट नहीं होते हैं ,बल्कि ‘नॉन-रिलीजियस एवं गैर-मजहबियों को नष्ट करने के लिए कटिबद्ध रहते हैं” । इन दोनों अब्राह्मिक अवधारणाओं की विस्तारक शक्ति उनसे सम्बद्ध राज-सत्ता की साम्राज्यवादी राजनीति है ; इस्लाम अरब-साम्राज्यवाद की परिणति है , तो श्वेत-अश्वेत नस्लभेदी औपनिवेशिक साम्राज्यवाद की संवाहक है- क्रिश्चियनिटी । लेकिन धर्म किसी के द्वारा किसी पर थोपा नहीं गया है आज तक और न ही यह किसी प्रचार-प्रसार के लिए किसी हिंसक अभियान का मोहताज रहा है कभी । यह न किसी एक पुस्तक से नियण्त्रित है , न किसी एक मैसेन्जर-पैगम्बर से निर्देशित है । धर्म का दर्शन अनेक पुस्तकों-शास्त्रों-ग्रन्थों में अनन्त विस्तारित है और यह किसी व्यक्ति के द्वारा स्थापित नहीं है, अपितु समस्त ब्रह्माण्ड के सृजेता-ब्रह्म से ही निःसृत है । धर्म को पूर्णरुपेन धारण कर साध चुका एक-एक साधक-सन्त-महात्मा-ऋषि-मुनि-योगी-तपस्वी ‘परकायाप्रवेश’ की शक्ति से सम्पन्न और अतिन्द्रीय क्षमताओं का स्वामी होने के कारण रिलीजन-मजहब के संस्थापकों-विस्तारकों पर सर्वतोभावेन भारी हुआ करता है । बावजूद इसके रिलीजन व मजहब को भी धर्म घोषित कर ‘सर्व धर्म एक समान’ की परिधि में स्थापित कर देना सर्वथा अनुचित है । यह पश्चिम के प्राच्यवादियों द्वारा प्रतिपादित प्रपंच की परिणति और अंग्रेजी औपनिवेशिक शिक्षा-पद्धति की निष्पति है । इसे आप पश्चिम के रिलीजियस-विस्तारवाद की राजनीति के नियन्ताओं की धूर्त्तता और भारत के औपनिवेशिक मानस वाले बुद्धिबाजों की बौद्धिक मूर्खता भी कह सकते हैं । यह आख्यान एक प्रकार का बौद्धिक मनोरंजन है, न कि भाषिक-धार्मिक शास्त्रियों-अध्येताओं द्वारा व्याख्यायित कोई दर्शन । वास्तविकता यह है कि धर्म केवल ‘धर्म’ है; यह न तो रिलीजन है और न ही मजहब है ; जबकि रिलीजन व मजहब स्पष्टतः ‘अधर्म’ हैं ।
ऐसे में अब यह आवश्यक हो गया है कि ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ को ‘धर्म’ कहने पर कानूनन प्रतिबंध लगाया जाये । जिस तरह से शराब को दूध बता कर बेचना या किसी को धोखे से पिलाना अपराध है, उसी तरह से रिलीजन-मजहब को धर्म बताने वाली बौद्धिकता और धार्मिक लोगों को भ्रमित करने की इस धूर्त्तता को भी आपराधिक कृत्य माने जाने का कानून बनाया जाए । अन्यथा, वैश्विक रिलीजियस मजहबी शक्तियों के द्वारा उनके विस्तारवादी षड्यंत्र के तहत कायम की गई इस धूर्त्तता के व्यापक प्रभाव से धर्म का जिस कदर ह्रास होता जा रहा है और बचे-खुचे धर्म को भी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर शासन जिस तरह से रिलीजन-मजहब के खूनी जबडे में धकेलने पर आमदा है, उससे तो धर्म का अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा ।
भारत के एक जाने-माने अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय ने रिलीजन व मजहब को धर्म कहने-मानने पर घोर आपत्ति जताते हुए दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर कर यह मांग की है कि इसे अलग-अलग परिभाषित करते हुए अन्तर स्पष्ट किया जाये । याचिकाकर्ता ने न्‍यायालय से भारत सरकार एवं सभी राज्य सरकारों को यह निर्देश देने की मांग की है, कि वे सरकारी अभिलेखों-पत्रों-दस्तावेजों में हिन्दू-क्रिश्चियन-मुस्लिम के लिए क्रमशः ‘धर्म’ एवं ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ का अलग-अलग प्रावधान करें । क्योंकि, ऐसा नहीं करने से बहुत बडा अनर्थ हो रहा है । इसके साथ ही उन्‍होंने न्यायालय से यह भी मांग की है कि सरकारें प्राथमिक-माध्यमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम में ‘धर्म और रिलिजन-मजहब’ नाम से एक अध्याय शामिल करें, ताकि इस संबंध में कायम भ्रम की स्‍थ‍िति दूर हो सके । यह सुखद है कि न्यायालय ने न केवल उस याचिका को स्वीकार कर लिया है , अपितु उस पर सुनवाई भी शुरु कर चुका है । हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सतीश चंद्र शर्मा एवं न्यायमूर्ति तुषार राव गेडेला की खंडपीठ ने इस बावत भारत सरकार और दिल्ली सरकार से जवाब मांगा हुआ है, परन्तु यह दुःखद है कि एक वर्ष बीत जाने के बाद भी दोनों सरकारों की ओर से अब तक जवाब नहीं दिया गया है । यह और भी निराशाजनक है कि जब न्यायालय भी इस अनर्थ को सुधारने के प्रति गम्भीर है, तब दिल्ली सहित अन्य राज्यों के साथ-साथ केन्द्र में भी कायम भाजपा-मोदी सरकार ही इसके प्रति उदासीन है, जिसे सनातन धर्म-पोषक एवं हिन्दुत्ववादी कहा जाता है ।
• मनोज ज्वाला ; सितम्बर’ २०२५