इन दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति के व्यापारिक मामलों के सलाहकार पिटर केण्ट नवारो भारत के ब्राह्मण समुदाय पर अनुचित एवं ओछी टिप्पणी कर के दुनिया भर की सुर्खियों में छाये हुए हैं । चालु रुस-युक्रेन युद्ध के दौरान भारत चूंकि रुस के बाजार से कच्चा तेल अमेरिकी मनाही के बावजूद खरीद रहा है, इसलिए संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारतीय निर्यातों पर 50 % का जो ‘टैरिफ’ लगा रखा है, उसका औचित्य सिद्ध करते हुए नवारो ने कहा है कि “रुसी तेल से भारतीय लोगों की कीमत पर ‘ब्राह्मण’ मुनाफा कमा रहे हैं, जिसे रोकने की जरुरत है” । अर्थात, इसी हेतु अमेरिका ने यह आर्थिक आक्रमण किया है, ताकि इस दबाव में आ कर भारत वहां से तेल खरीदना बन्द कर दे और व्यापार की अन्य अमेरिकी शर्तों को भी स्वीकार कर ले । लेकिन बात अगर सिर्फ युद्ध व शांति की और अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारिक लोकाचार की ही है , तो ऐसे में भारत के ब्राह्मण समुदाय को क्यों लांछित किया जा रहा है ? जाहिर है, अमेरिकी राष्ट्रपति के ‘ट्रेड ऑफिस’ से जारी उक्त बयान का निहितार्थ कुछ और ही है । तभी तो अमेरिका-अथित विभिन्न हिन्दू संगठनों ने नवारो के उक्त बयान की भर्त्सना करते हुए उसे ‘हिन्दूफोबिक’ करार दिया है । हिन्दू संगठनों की ओर से जारी विज्ञप्ति में कहा गया है कि “ नवारो की टिप्पणी सिर्फ एक सांस्कृतिक हिंसा ही नहीं है, बल्कि एक लापरवाह प्रोपेगेंडा भी है, जो 100 करोड़ से ज्यादा हिन्दुओं की गरिमा को खतरे में डालता है ।” ब्राह्मणों से जुड़े नवारे के उक्त बयान को हिन्दू संगठनों ने ‘औपनिवेशिक हथियार’ बताते हुए उसे ‘हिन्दू समाज को नीचा दिखाने की कोशिश’ कहा है । हिन्दूपैक्ट के कार्यकारी अध्यक्ष अजय शाह ने कहा है कि “अमेरिकी राष्ट्रपति-मुख्यालय द्वारा “हिन्दुओं को औपनिवेशिक स्क्रिप्ट के जरिए बांटने की कोशिश की जा रही है ।” अमेरिकी हिन्दू-संगठनों का यह भी कहना है कि नवारो ने भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केसरिया वस्त्रों में ध्यान लगाए हुए फोटो पोस्ट कर के भी एक मान्य ‘हिन्दू प्रैक्टिस’ (हिन्दू आध्यात्मिकता) का मज़ाक उड़ाया है ।” संगठन का कहना है कि ‘प्रार्थना प्रचार नहीं है’ और पुछा है कि ‘नवारो उस पोस्ट के जरिए क्या साबित करना चाहते हैं’ ? हिन्दूपैक्ट की अध्यक्ष दीप्ति महाजन ने कहा है कि “अगर निशाने पर हिन्दू धर्म था, तो यह समस्त हिन्दुओं की धार्मिक निष्ठा का अपमान है. अगर निशाना भारतीय नेतृत्व था, तो यह कूटनीतिक लापरवाही है और एक गंभीर उल्लंघन है ।” सच भी यही है , क्योंकि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है । अमेरिकी भारत-नीति आरम्भ से ही, बल्कि यों कहिए कि संयुक्त राज्य अमेरिका के गठन के पहले से ही उसे ‘डिस्कवर’ करने और आकार देने वाले रिलीजियस औपनिवेशिक विस्तारवादी शक्तियों के निशाने पर भी यहां के ब्राह्मण ही रहे हैं ।
मालूम हो कि वर्ष 1498 में ‘क्रिश्चियनिटी’ नामक रिलीजन (धर्म नहीं) के सर्वोच्च ऑथोरिटी (प्राधिकारी) अर्थात ‘पोप’ द्वारा जारी आदेश-पत्र ले कर सारी दुनिया को क्रूस के अधीन कर लेने के मिशन पर निकले रिलीजियस विस्तारवादियों को अमेरिका में तो नहीं, किन्तु भारत में एक ऐसे बौद्धिक प्रतिरोध का सामना करना पडा, जिससे वे आज तक उबर नहीं सके हैं । वे अपने रिलीजन को धर्म के समान आंकने-दिखाने और फैलाने की तमाम कोशिशों के बावजूद आज तक भारत को जीत नहीं पाये हैं, क्योंकि ब्राह्मण तभी से अजेय अवरोध बन कर खडे हैं, जब 16वीं सदी के आरम्भ (1506-1552) में ही जेसुइट मिशनरी फ्रांसिस ज़ेवियर भारत के गोवा-तट पर धर्म के बरअक्स रिलीजन की रेवडियां बांटते फिर रहा था । उसकी योजना यह थी, जैसा कि अन्य मिशनरियों ने अन्य देशों में आजमाया था कि पहले समाज के अग्रगण्य लोगों को क्रिश्चियन बनाओ, तो अन्य सारे लोग स्वतः स्वीकार कर लेंगे क्रिश्चियनिटी ; इसीलिए वह सबसे पहले ब्राह्मणों को ही लक्षित किया था । उस दौरान तिरिचेंदूर में मुरुगण मंदिर के ब्राह्मणों से जब उसका सामना हुआ, तो उसे यह विश्वास हो गया था कि वह उन्हें कभी नहीं बना पायेगा क्रिश्चियन । तब झख मार कर वह कोरोमंडल तट के मछुवारों की ओर ध्यान आकर्षित किया, लेकिन उससे पहले उसने उन ‘धर्मवाहक’ ब्राह्मणों के प्रति खूब खीझ व निंदा व्यक्त की, जिनने उसके रिलीजन को धर्म मानने से ही इंकार कर दिया था । अन्ततः उसने रोम स्थित जेसुइट चर्च-मुख्यालय को पत्र लिखा- “इन इलाकों में मूर्तिपूजकों के बीच ‘ब्राह्मण’ नामक एक वर्ग है, जो इतने विकृत व दुष्ट हैं , जितने कहीं और नहीं मिल सकते । उन पर बाइबिल के भजन संहिता की यह पंक्ति लागू होती है कि ‘ हे प्रभु, मुझे इस अपवित्र जाति और दुष्ट तथा धूर्त लोगों से बचाओ’ । अगर ये ब्राह्मण न होते, तो सभी मूर्तिपूजक हमारे रिलीजन (क्रिश्चियनिटी) को अपना लिए होते ।” फिर तो उसने पुर्तगाली राजसत्ता कायम हो जाने के बाद समस्त गोवा भर में अपना रिलीजन फैलाने के लिए राजकीय संरक्षण में कैसे-कैसे अमानुषिक अत्याचार किये उसकी अलग ही कहानी है । पुर्तगालियों के बाद आये अंग्रेज यीसाई-मिशनरियों को भी ब्राह्मणों के प्रति ऐसा ही अनुभव रहा । जाहिर है- रिलीजियस (यीसाई) विस्तारवाद के तमाम झण्डाबरदारों के निशाने पर आरम्भ से ही सदैव ब्राह्मण ही रहे ।
यीसाइयों का यह ‘ब्राह्मण-विरोध’ उनके पारम्परिक ‘यहूदी-विरोध’ से भी बढ कर अब तो घृणा की हद तक पहुंच चुका है । कारण सिर्फ यही है कि ब्राह्मण समुदाय न केवल हिन्दू धर्म-समाज का संवाहक व मार्गदर्शक है, बल्कि वह धर्म-विरोधी किसी भी रिलीजन-मजहब को एकबारगी ‘अधर्म’ ही सिद्ध कर देने के तत्वज्ञान से सम्पन्न है । भारतीय धर्म-दर्शन के विविध शास्त्रों, यथा- वेद, उपनिषद, स्मृति , आरण्यक आदि ब्राह्मण-गन्थों से जब इस ‘रिलीजन’ और इसके तथाकथित ‘ज्ञान की इकलौती पुस्तक’- ‘बाइबिल’ का सामना होता है, तब उनके समक्ष यह टिक ही पाती है कहीं । बडे-बडे प्रशिक्षित यीसाई-पादरी भी यीसाइयत की श्रेष्ठता तो दूर इसकी धार्मिकता भी सिद्ध नहीं कर पाते हैं । कलकता के एक ब्रह्म-समाजी- राजा राममोहन राय को यीसाई बनाने हेतु सिरमपुर से गया ‘लन्दन मिशन सोसाइटी’ का रेव. विलियम एडम नामक पादरी-प्रचारक उनसे धर्म-रिलीजन विषयक वाद-विवाद करते-करते थक-हार कर उनसे इस कदर प्रभावित हुआ कि रिलीजन (यीसाइयत) छोड कर स्वयं ही धर्म धारण कर लिया (‘ब्रह्म-समाजी’ हिन्दू बन गया) । तो इस कारण से भी हिन्दू समाज के शिक्षक-मार्गदर्शक ब्राह्मण सदैव ही आज भी चर्च-मिशनरियों के निशाने पर हुआ करते हैं । ऐसे में एक सोची-समझी साजिश के तहत उनने ब्राह्मणों को लांछित-कलंकित करने तथा उन्हें शेष हिन्दू-समाज का शत्रु-शोषक-उत्त्पीडक बताने और इस आधार पर हिन्दू-समाज को विखण्डित करने का एक व्यापक अभियान उसी दौर से चला रखा है- रिलीजियस विस्तारवादियों ने । एक प्रसिद्ध युरोपियन दर्शनशास्त्री और क्रिश्चियनिटी के आधिकारिक विचारक-लेखक डॉ. कोएनराड एल्स्ट ने ठीक ही लिखा है- “यहूदी-विरोध के अलावा, ईसाई मिशनरियों द्वारा शुरू किया गया ब्राह्मण-विरोधी अभियान विश्व इतिहास का सबसे बड़ा बदनामी अभियान है।” तो इस अभियान के तहत उनने सबसे पहले तो अपने रिलीजियस विस्तारवादी औपनिवेशिक हितों के हिसाब से भारतीय धर्म-शास्त्रों का अंग्रेजीकरण-यीसाइकरण करने हेतु भाडे के एक तथाकथित विद्वान मैक्समूलर से अनुबंध किया, जिसने अपनी पत्नी- जोर्जिना मैक्समूलर को लिखे पत्र में तत्सम्बन्धी अपनी मंशा स्पष्ट करते हुए कहा था- “…this edition of mine and the translation of the Veda will hereafter tell to a great extent on the fate of India, and on the growth of millions of souls in that country. It is the root of their religion, and to show them what that root is, I feel sure, is the only way of uprooting all that has sprung up from it during the last three thousand years.” अर्थात, “वेदों का अनुवाद आज के बाद भारत के भविष्य और इस देश के मनुष्यों के विकास को बहुत सीमा तक प्रभावित करेगा । वेद उनके धर्म का मूल है और वह मूल क्या है, इसे उन्हें दिखाने के लिए मैं आश्वस्त हूं ; सिर्फ एक रास्ता है कि पिछले तीन हजार वर्षों के भीतर जो कुछ भी इससे निकला है, उसे उखाड दिया जाये ।” तो इस उद्देश्य से भारत में अंग्रेजी शिक्षा-नीति क्रियान्वित कराने वाले थॉमस बिविंग्टन मैकॉले की सिफारिश से ऑक्सफोर्ड के जिस बॉर्डेन चेयर पर मैक्समूलर को स्थापित किया गया था, उसका लक्ष्य तो और स्पष्ट था- “ संस्कृत-ग्रन्थों के अंग्रेजी-अनुवाद को प्रोत्साहन देना, ताकि उनके देशवासी (युरोपियन) भारत के मूलवासियों (हिन्दुओं) को क्रिश्चियनिटी में परिवर्तित करने की दिशा में आगे बढने के योग्य बन सकें । जब ब्राह्मणवाद के सशक्त किले की दीवारों को घेर लिया जाएगा, दुर्बल कर दिया जाएगा और सलीब के सिपाहियों द्वारा अंततः धावा बोल दिया जाएगा, तब यीसाइयत की विजय-पताका अवश्य ही लहरायेगी और यह अभियान पूरा हो जाएगा ।” इस उद्देश्य के तहत मैक्समूलर ने तुलनात्मक भाषा विज्ञान के आधार पर सबसे पहले ‘आर्य आव्रजन/आक्रमण सिद्धान्त’ गढ कर “गोरी चमडी वालों के आर्य होने तथा इंद्र जैसे युद्धप्रिय देवताओं की सहायता से भारत पर आक्रमण कर वहां से काली चमडी वाले मूल आदिवासियों को दक्षिण की ओर खदेड़ने एवं उनके ‘द्रविड’ होने का आख्यान रचा और फिर आर्य-द्रविड’ नामक दो नस्लों के पारस्परिक संघर्ष के रुप में वैदिक साहित्य की मनमानी व्याख्या करते हुए ऋग्वेद का अनुवाद किया।” फिर उसने आर्य-द्रविड के बीच कृत्रिम विभाजन पैदा किया तथा वर्ण-व्यवस्था में तीन ही वर्णों को शामिल कर चौथे वर्ण को मूल निवासी के तौर पर ‘शूद्र’ घोषित करते हुए भारतीय समाज की सभी बुराइयों के लिए ब्राह्मणों को दोषी ठहराया । देखिए तत्सम्बन्धी उसकी व्याख्या के अंश “…लेकिन केवल पुजारियों को ही इन गीतों (मंत्रो) का जाप करने की अनुमति थी, वे ही इन्हें सिखा सकते थे, और उनने सामान्य लोगों पर यह विश्वास बिठा दिया था कि शब्दों के उच्चारण में ज़रा सी भी हुई गलती भगवान के क्रोध को भड़का देगी । इस प्रकार वे सभी धार्मिक अनुष्ठानों के स्वामी, लोगों के शिक्षक और राजाओं के मंत्री बन गए । एक धर्मपरायण, लेकिन भोली-भाली जाति ने उनका पक्ष लिया, उनके क्रोध से भयभीत हुई । ... लंबे समय तक, तीनों वर्ण लोग स्वयं को एक ही जाति मानते रहे, और सभी ने चौथी जाति अर्थात- ‘शूद्र’ से अलग, आर्य की उपाधि धारण किये रखा ।" फिर तो उसकी हां में हां मिलाने और उसकी इन अटकलों को खींचतान कर किसिम-किसिम के ज्ञान बघारने वाले युरोपियन विद्वानों (कॉल्ड्वेल,विल्हेम, रेनान, पिक्टेट, ग्राऊ, गोबिनों, रिस्ले) का एक गिरोह ही खडा हो गया, जो प्राच्य-संस्कृति के बडे जानकार ‘प्राच्यवादी’ कहे जाने लगे । जी हां, पूर्वी देशों-राष्ट्रों की संस्कृतियों का पश्चिमी रिलीजियस विस्तारवादी औपनिवेशिक हितों के हिसाब से अध्ययन-विश्लेषण करने और प्राच्य पर पश्चिम की श्रेष्ठता-प्रभुता स्थापित करने हेतु शैक्षणिक-अकादमिक छल-प्रपंच रचने का बौद्धिक व्याभिचार ‘प्राच्यवाद’ (ऑरिएण्टलिज्म) कहलाया और उसे फैलाने वाले बुद्धिबाज ‘प्राच्यवादी’ विशेषण से विभूषित होने लगे । संस्कृत के अध्ययन से युरोप में जन्में ‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’ के निहायत अप्रामाणिक आधार पर विशप कॉल्ड्वेल ने “दक्षिण भारत के अल्पसंख्यक ब्राह्मणों को आर्य एवं बहुसंख्यक गैर-ब्राह्मणों को द्रविड घोषित कर उनके बीच नस्लीय भाषाई विभेद खडा कर दिया । उसने ब्राह्मणों को द्रविडों का नस्ली ‘पराया’ बना कर द्रविडों के ‘सार’ की स्थापना कर दी और यह दावा किया कि दक्षिण में संस्कृत केवल उन ब्राह्मणों के वंशजों द्वारा पढी जाती थी, जो उपनिवेशवादी थे । इस दांव-पेंच के माध्यम से ब्राह्मणों को उपनिवेशवादी (विदेशी) बना दिया गया, जबकि कॉल्ड्वेल जैसे असली उपनिवेशवादियों को तमिलों (द्रविडों) के मुक्तिदाता के रुप में प्रस्तुत किया गया ।” उसने तो उन प्राच्यवादियों ने वेद-विदित ‘आर्य’ शब्द को ‘नस्ल’ में तब्दील कर ‘वर्ण-व्यवस्था’ के चार घटकों में से ‘शूद्र’ को अलग-थलग कर शेष तीन वर्णों को ‘कास्ट’ (जाति) का पदानुक्रम निर्धारित कर ब्राह्मण वर्ण को सबसे ऊपर एवं अन्य वर्णों के शोषक-उत्त्पीडक के तौर पर स्थापित किया और यह प्रचारित करते रहे कि ब्राह्मणों ने स्वयं के निजी लाभ हेतु वर्ण-व्यवस्था एवं ऊंची-नीची जातियों का निर्माण किया हुआ है । किन्तु उनका वह दुष्प्रचार भी निष्प्रभावी रहा, क्योंकि उस काल में वर्ण-व्यवस्था के भीतर जातियां कास्ट-अर्थी नहीं, बल्कि पेशागत क्षैतिज हुआ करती थीं , न कि ऊंच-नीच के पदानुक्रमानुसार । हालांकि, इतिहासकारों का कहना है कि “जाति के औपचारिक भेद भारतीयों के लिए सीमित महत्व के थे, सामाजिक पहचान बहुत अधिक लचीली थी और लोग आसानी से एक जाति से दूसरी जाति में आ-जा सकते थे । नए शोध से तो यह भी पता चलता है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों द्वारा कठोर सीमाएं निर्धारित की गई थीं, जिन्होंने जाति को भारत की परिभाषित सामाजिक विशेषता बना दिया था, जब उन्होंने जाति-प्रणाली को सरल (अपने अनुकूल) बनाने के लिए जनगणना का उपयोग किया । वर्ष 1871 में ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा भारत के वृहतर हिन्दू समाज को विखण्डित करने के उद्देश्य से जाति-आधारित जनगणना करायी गई थी । उस जनगणना में भी उन्हें हिन्दू समाज के भीतर जातीय ऊंच-नीच का भेद-भाव जैसा पदानुक्रम नहीं दिखा, तब उनने वर्ष 1872 ई में M A Sheering नामक एक ईसाई मिशनरी को यह कार्य सौंपा । उसने बडे यत्नपूर्वक “हिंदू ट्राइब एंड कास्ट (Hindu Tribe And Caste)” नामक तीन खण्डों में एक पुस्तक प्रकाशित की, जिसमें उसने मैक्समूलर एवं रिस्ले की स्थापनाओं को आगे बढाते हुए वर्णों व जातियों का सामाजिक पदानुक्रम निर्धारित करते हुए ब्राह्मणों को सबसे ऊपर निशाने पर और अन्य समस्त जातियों को ‘लोअर कास्ट’ नाम से चिन्हित किया । उस पुस्तक में उसने यह झूठ प्रतिपादित किया कि “ब्राह्मणों ने ही गैर-ब्राह्मणों को शोषित करने के लिए जाति-व्यवस्था का निर्माण किया था, ब्राह्मण कपटी ,स्वार्थी, अत्याचारी हैं, आदि-आदि ।” साथ ही यह भी कि “वह आशा करता है कि हम भारतीयों (हिन्दू समाज) में बदलाव ला सकते हैं, लेकिन इसके लिए बहुत ही प्रभावी ‘ब्राह्मण विरुद्ध’ भावना उत्पन्न करना पड़ेगा । हम सब को जगायेंगे और बताएंगे कि वे सब भी उतने ही शिक्षित, सक्षम और बुद्धिमान हैं ,जितने ब्राह्मण हैं ।” वह आगे कहता है कि “हम बड़े पैमाने पर हिन्दू समाज पर एक ऐसा गहरा प्रभाव डालेंगे कि वे सब ब्राह्मण की जड़-शाखा को समूल नष्ट (Annihilate) कर सकेंगे ।” अब आप समझ सकते हैं कि अमेरिकी राष्ट्रपति के व्यापारिक सलाहकार पिटर केण्ट नवारो ने ब्राह्मणों के सम्बन्ध में जो कहा है, उसका सूत्र कहां से और कैसे जुडा हुआ है ।
मालूम हो कि उपनिवेशवाद के अवसान के बाद से संयुक्त राज्य अमेरिका ही तमाम रिलीजियस (यीसाई) विस्तारवादियों का सरगना बना हुआ है, जो नेपथ्य से विभिन्न सरकारी-गैर-संस्थाओं (एन०जी०ओ०) के जरिये हिन्दू समाज के विखण्डन और समस्त भारत के यीसाइकरण की अनेकानेक षड्यंत्रकारी परियोजनायें भी संचालित करता रहा है । आय दिनों भारत में कभी ‘असहिष्णुता’ का ग्राफ ऊपर की ओर बढ जाता है और कभी ‘दलितों की सुरक्षा’ का ग्राफ नीचे की ओर घटा हुआ बताया जाता है , उसके पीछे भी ऐसी ही अमेरिकी परियोजनायें एवं तत्सम्बन्धी मिशनरी संस्थायें काम कर रही होती हैं । ये संस्थायें भिन्न-भिन्न प्रकृति और प्रवृति की हैं । कुछ शैक्षणिक-अकादमिक होती हैं , जो शिक्षण-अध्ययन की आड में भारत के विभिन्न मुद्दों पर तरह-तरह का शोध-अनुसंधान करती रहती हैं ; तो कुछ संस्थायें ऐसी हैं , जो इन कार्यों के लिए अनेकानेक संस्थायें खडी कर उन्हें साध्य व साधन मुहैय्या करती-कराती हुई विश्व-स्तर पर उनकी नेटवर्किंग भी करती हैं । ‘डी०एफ०एन०’ (दलित फ्रीडम नेटवर्क) संयुक्त राज्य अमेरिका की एक ऐसी ही संस्था है , जो भारत में दलितों के अधिकारों की सुरक्षा के नाम पर उन्हें भडकाने के लिए विभिन्न भारतीय-अभारतीय संस्थानों का वित्त-पोषण और नीति-निर्धारण करती है । इसका प्रमुख कर्त्ता-धर्ता डॉ० जोजेफ डिसुजा नामक अंग्रेज है, जो ‘ए०आई०सी०सी०’(ऑल इण्डिया क्रिश्चियन कॉउंसिल) का भी प्रमुख है । डी०एफ०एन० के लोग खुद को भारतीय दलितों की मुक्ति का अगुवा होने का दावा करते हैं । इस डी०एफ० एन० की कार्यकारिणी समिति और सलाहकार बोर्ड में तमाम वैसे ही लोग हैं , जो हिन्दुओं के धर्मान्तरण एवं भारत के विभाजन के लिए काम करने वाली विभिन्न ईसाई मिशनरियों से सम्बद्ध हैं । वस्तुतः धर्मान्तरण और विभाजन ही डी०एफ०एन० की दलित-मुक्ति परियोजना का गुप्त एजेण्डा है , जिसके लिए यह संस्था भारत में दलितों के उत्पीडन की इक्की-दुक्की घटनाओं को भी बढा-चढा कर दुनिया भर में प्रचारित करती है , तथा दलितों को सवर्णों के विरूद्ध विभाजन की हद तक भडकाने के निमित्त विविध विषयक ‘उत्त्पीडन साहित्य’ के प्रकाशन-वितरण व तत्सम्बन्धी विभिन्न कार्यक्रमों का आयोजन करती-कराती है । डी०एफ०एन० और इससे जुडी संस्थाओं के दलित-मुक्ति कार्यक्रमों की सफलता का आलम यह है कि इनका नियमित पाक्षिक प्रकाशन- ‘दलित वायस’ भारत में पाकिस्तान की तर्ज पर एक पृथक ‘दलितस्तान ’ राज्य की वकालत करता रहता है । डी०एफ०एन० को अमेरिकी सरकार का ऐसा वरदहस्त प्राप्त है कि वह अमेरिका-स्थित दलित-विषयक विभिन्न सरकारी आयोगों के समक्ष भारत से दलित आन्दोलनकारियों को ले जा-ले जा कर भारत-सरकार के विरूद्ध गवाहियां भी दिलाता है । अखिल भारतीय अनुसूचित जाति-जनजाति संगठन महासंघ के अध्यक्ष उदित राज ऐसे ही एक दलित नेता हैं , जो डी०एफ०एन० के धन से राजनीति करते हुए भारत सरकार के विरूद्ध विभिन्न अमेरिकी आयोगों व मंचों के समक्ष गवाहियां देते रहने के बावजूद एक बार भाजपा से सांसद भी बने चुके हैं, किन्तु अब कांग्रेस में हैं और पिटर नवारो के उपरोक्त ब्राह्मण-विरोधी वक्तव्य के समर्थन में बयानबाजी करते रहे हैं । डी०एफ०एन० दलितों को भडकाने वाली राजनीति करने के लिए ही नहीं , बल्कि भारत के बहुसंख्य समाज के विरूद्ध दलित-उत्त्पीडन और उसके निवारणार्थ विभाजन की वकालत-विषयक शोध-अनुसंधान के लिए शिक्षार्थियों व शिक्षाविदों को भी फेलोशिप और छात्रवृत्ति प्रदान करता है । इसने कांचा इलैया नामक एक तथाकथित दलित चिंतक को उसकी एक पुस्तक- ‘ह्वाई आई एम नॉट ए हिन्दू ’ के लिए पोस्ट डॉक्टोरल फेलोशिप प्रदान किया हुआ है , जिसमें अनुसूचित जातियों-जनजातियों-यीसाइयों और पिछडी जाति के लोगों को ब्राह्मणों-सवर्णों के विरूद्ध सशस्त्र युद्ध के लिए भडकाया गया है । इसी प्रकार चर्च-मिशनरियों से वित्त-पोषित एक और शोधार्थी-लेखक हैं- एम० देइवनयगम, जिसने ‘इण्डिया इन थर्ड मिलेनियम’ नामक अपनी पुस्तक में यह दावा किया है कि “आर्यों का अपना कोई धर्म ही नहीं है । विदेशी ब्राह्मणों और ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने एक दुष्टट संयुक्त षड्यंत्र के रुप में हिन्दू धर्म का जन्म हुआ है । आर्य-ब्राह्मण और अंग्रेज , दोनों ही विदेशी हैं ; इन दोनों ने मिलकर भारत के लोगों के विरुद्ध षड्यंत्र किया है” ।
भारत के भीतर और बाहर समय-समय पर दलितों के कथित उत्पीडन एवं ब्राह्मणों के विरुद्ध विष-वमन के जो मामले सामने आते रहते हैं , उनके पीछे यीसाई-विस्तारवाद की उपरोक्त विखण्डनकारी योजनाओं के साथ अमेरिका-संपोषित विभिन्न संस्थाओं की भूमिका सक्रिय हुआ करती हैं । वाशिंगटन से जारी पिटर नवारो के बयान से पहले दिल्ले में भी जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जे०एन०यु०) की दीवारों पर एक बार वहां के शोधार्थियों की बहकी हुई बौद्धिकता “ब्राह्मण-बनिया भारत छोडो” नारा के साथ प्रदर्शित हुई थी । उस नारा में ‘बनिया’ को तो केवल इस कारण जोड दिया गया था कि इसी समुदाय से सम्बद्ध नरेन्द्र मोदीकी राजनीतिक सत्ता उन विस्तारवदी रिलीजियस मजहबी शक्तियों को तब अजेय प्रतीत होने लगी थी, जो अब भी हो रही है ; तभी तो उनकी वैदेशिक नीति ब्राह्मणों को लाभ देने वाली बतायी जा रही है ।
* सितम्बर’ २०२५
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