पाक से विस्थापित आबादी की भूमि पर दावा ठोंके भारत
भारत-विभाजन के पश्चात पकिस्तान में गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक लोगों की
आबादी वहां की कुल आबादी का २०% थी । वे लोग भारत इस कारण से नहीं आये थे कि उन्हें कांग्रेसी नेताओं के साथ-साथ भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल
नेहरु और उधर पाकिस्तान के गवर्नर जनरल मोहम्मद अलि जिन्ना, दोंनों की ओर
से यह आश्वस्त किया गया था कि पाकिस्तान में उनके साथ कोई भेदभाव नहीं
होगा, उन्हें सभी प्रकार के मौलिक अधिकार समान रुप से प्राप्त होंगे; अतएव
उन्हें पाकिस्तान से बाहर जाने अथवा भारत आने की कोई जरुरत नहीं, वे अपने
स्थान पर ही रहें । जिन्ना ने तो यह भी कहा था कि पाकिस्तान एक
धर्मनिरपेक्ष राज्य होगा, जहां हिन्दुओं की धार्मिक स्वतंत्रता पर कभी कोई
आंच नहीं आएगी । फलतः उनकी बातों पर विश्वास कर वे लोग वहीं रह गये । किन्तु , हुआ ठीक उसके उलट । मुसलमानों का जिहादी आतंक हिन्दुओं को इस कदर आतंकित प्रताडित करने लगा कि और तो और विभाजन के समर्थन में ‘मुस्लिम-दलित भाई-भाई’ का नारा लगाते हुए पाकिस्तान जा कर जिन्ना की कृपा से वहां का प्रथम कानून मंत्री बने जोगिन्द्रनाथ मण्डल को
भी महज कुछ ही महिनों बाद इस्तीफा दे कर अपनी जान बचाने के लिए भारत भाग
आना पडा । लेकिन, तब तक बहुत देर हो चुकी थी । पूरी की पूरी
हिन्दू-आबादी जिहादियों की नाकेबन्दी से इस कदर घिर चुकी थी कि उन सब का
वहां से निकल भागना मुश्किल हो गया था । जबकि भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के मुसलमानों को इस बावत पूरी आजादी रही कि वे जहां चाहें वहां अपना बसाव बना लें ।
सन १९४७ से लगभग बीस वर्षों तक पाकिस्तान के मुसलमान भारत और भारत के मुसलमान पाकिस्तान आते-जाते रहे । उनमें लाखों लोग ऐसे भी थे जिनके
परिवार के आधे लोग भारत रह गए और आधे लोग पाकिस्तान चले गए । कई ऐसे भी थे, जिनके वाणिज्य-व्यापार दोनों देशों में कायम रहे । वे सभी एकदम
सुरक्षित हालातों में एक-दूसरे से मिलते-जुलते रहे और अपनी सुविधानुसार
यहां-वहां अपना बसाव बदलते भी रहे । ऐसा कहना अतिश्योक्ति नहीं कि
मुसलमान ‘दोनों हाथों में लड्डू’ का लाभ लेते रहे । मुस्लिम स्वामित्व
वाली ‘हमदर्द’ कम्पनी का कारोबार दोनों में फैलता रहा और उसके मुस्लिम
कारिन्दे भरत में भी इत्मीनान फरमाते रहे । किसी मुस्लिम इस्लामाबादी के
नाम पाकिस्तन की किसी कोर्ट से वारंट निर्गत हुआ तो वह इत्मीनान से भारत आ
कर यहां रह-बस गया । साहित्यकार कुर्रतुल ऐन हैदर को तो भारत का पूरा साहित्यिक महकमा जानता है, जिन्होंने विभाजन की त्रासदी पर ‘आग का दरिया’ नामक उपन्यास लिखा, तो लाहौर से उसका प्रकाशन होते ही पाकिस्तान के मुस्लिम कठमुल्लाओं की जमात ऐसे भडक उठी कि उस उपन्यासकार को सन १९५९ में भारत आ कर भारतीय बनना पडा और यहां के सहिष्णु समाज से लेकर धर्मनिरपेक्षी शासन तक ने उसे सम्मानित किया । किन्तु उसी वर्ष भारत से जोश मलीहाबादी नामक एक शायर भारत से पाकिस्र्तान चले गए तो, उन्हें अपने इस निर्णय के लिए ताउम्र पछताते रहना पडा ; जैसा कि उनकी आत्मकथा- ‘यादों की बारात’ में भी वर्णित है ।
दरअसल पाकिस्तानी मुस्लिम समाज में कट्टरपंथी मौलानाओं की अलग
अन्तर्धारा चलती रहती है, जो समाज और शासन दोनों को नियंत्रित-निर्देशित
करती है ; इस कारण उसके समक्ष सामान्य मुसलमान ही नहीं, अपितु वहां का शासन-प्रशासन भी विवश हो जाता है । यही कारण
है कि इस्लाम के नाम पर भारत का विभाजन हो जाने के बावजूद पाकिस्तान से
भारी संख्या में मुसलमान भारत आ कर बसते रहे हैं । संगीतकार के तौर पर
बडी ख्याति अर्जित कर चुके गुलाम अली खां भी पाकिस्तान से ही भारत आ कर स्थापित हुए ।
किन्तु ऐसी सुविधा केवल मुसलमानों को ही उपलब्ध रही कि वे जब जहां चाहे वहां रह-बस गए । जबकि, विभाजन के वक्त पाकिस्तान की सीमा से बाहर नहीं निकल सके गैर-मुस्लिमों को ऐसी आजादी मय्यसर नहीं हो सकी; क्योंकि जिन्ना के मरते ही पाकिस्तान बकायदा इस्लामिक स्टेट बन गया ; और भारत-पाकिस्तान, दोनों देशों के बीच आब्रजन के लिए
‘पासपोर्ट-वीजा’ की अनिवार्यता कायम हो गई । तब भी भारत की
धर्मनिरपेक्ष सरकार तो मुसलमानों को यहां से वहां और वहां से यहां
आने-जाने की सुवुधायें उपलब्ध कराने के प्रति उदार बनी रही, किन्तु
हिन्दुओं को तो पाकिस्तान से सही-सलामत निकल भागने की सरकारी सुविधाओं
से भी वंचित हो कर वहीं रहना-मरना-खपना उनकी नियति बन गई । वहां की मजहबी-इस्लामी सरकार उन्हें पास्पोर्ट निर्गत करने के प्रति भेदभावपूर्वक उदासीन ही रही । इसी कारण भारत से कोई हिन्दू बसने के लिए पाकिस्तान कभी नहीं गया ; जबकि विभाजन के बाद लाखों मुसलमान पाकिस्तान से आ कर भारत बस चुके हैं । पाकिस्तान से कभी-कभार इक्का-दुक्का कोई
हिन्दू भारत में आया भी, तो वहां अपनी जमीन-जायदाद सब कुछ गंवा कर ही आ सका ।
मालूम हो कि विभाजन के वक्त पाकिस्तान में ही रह गए हिन्दुओं की
आबादी लगभग ढाई करोड थी और उनमें से कोई भी परिवार भूमिहीन नहीं था ।
किन्तु आज वहां जितने भी (कुछ लाख ही) हिन्दू बचे हुए हैं, उनमें शायद ही कोई परिवार किसी भूखण्ड का मालिक हो । पर्यटन-वीजा पर भारत आये हिन्दुओं के एक समूह से दिल्ली में हुई मुलाकात के दौरान उनने बताया कि शासनिक संरक्षण में
वहां के कठमुल्लाओं ने उन्हें उनकी जमीन से बेदखल कर दिया । विभाजन से
पहले वहां जो हिन्दू-परिवार जमीनदार था, वह आज मजदूर बना हुआ है । उनकी आबादी भी घट-मिट कर महज कुछ लाख बच गई है । अधिकतर लोग मार डाले गए या बलात मुसलमान बना लिए गए । इसी कारण वहां से जैसे-तैसे भारत आये वे लोग पाकिस्तान वापस जाने से इंकार करते हुए दिल्ली में दर-ब-दर भटक रहे थे और
भारत की नागरिकता मांग रहे थे ।
अब भारत-सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम कायम कर उन्हें भारतीय नागरिकता हासिल करने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है तो जाहिर है कि पाकिस्तान से जिहादी आतंक-पीडित हिन्दुओं की बची-खुची आबादी अगले दिनों भारत आ कर बसेगी ही । भारत के लोगों को उनका स्वागत करना ही चाहिए . करेंगे ही । लेकिन तब एक सवाल यह उठता है और भारत
सरकार को अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर यह सवाल उठाना भी चाहिए कि पाक-सरकार
की नाइंसाफी के कारण पाकिस्तान छोड कर भारत में आ बसने वाले उन हिन्दुओं
के स्वामित्व वाली वहां की जमीन का क्या होगा ? यहां यह उल्लेखनीय है कि
हिन्दू-मुस्लिम नामक दो पृथक-पृथक धर्म व मजहब के आधार पर एक देश का हुए
विभाजन के दौरान आबादी-अनुपात के अनुसार ही पाकिस्तान का भौगोलिक आकार गढा गया था और तदनुसार भारत की तमाम सम्पत्तियों का भी बंटवारा हुआ था । पाकिस्तान को जिस अनुपात में जो भूमि और सम्पत्ति मिली थी, उसमें वहां रह गए उन हिन्दुओं का भी हिस्सा समाहित है, जो विभाजन के वक्त जिन्ना-जवाहर के
आश्वासनों पर विश्वास कर वहां रह गए थे ; किन्तु अब वहां के इस्लामिक
शासन से प्रताडित होते रहने के कारण भारत आ कर बस रहे हैं या बसने वाले
हैं , तो अब पाकिस्तान की एक बडी आबादी का भारत में आ बसने पर भारत को
उनके हिस्से की पाकिस्तानी भूमि क्यों नहीं मिलनी या लेनी चाहिए ? पाकिस्तान से विस्थापित बडी आबादी केवल हिन्दुओं की ही नहीं है . बल्कि इस आबादी में तो सन १९४७ से आज तक भारत आ-आ कर बसते रहने वाले मुसलमान भी शामिल हैं । अतएव भारत-सरकार को चाहिए कि वह पाकिस्तान के अस्तित्व में आ जाने और विभाजन की सारी प्रक्रिया पूरी हो जाने के बाद वहां से यहां आये लोगों की आबादी का लेखा-जोखा प्रस्तुत कर उस अनुपात में उतनी जमीन पाकिस्तान की सीमा से काट कर भारत की सीमा में जोडने का अपना दावा और कहीं नहीं तो कम से कम संयुक्त राष्ट्र संघ व अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय के के समक्ष जरूर पेश करे । यहां यह भी गौरतलब है कि सन १९४७ में ही पाकिस्तान का गठन किये जाने के दौरान उसे उसकी आबादी के अनुपात में नाजायज तरीके से अधिक भूमि उसे मिली हुई थी, जिस पर तब कांग्रेस के ही कई नेताओं ने आपत्ति जतायी थी । बावजूद इसके बाद में वहां की आबादी विस्थापित हो कर भारत में स्थापित होती रही , तो यह भारत की आबादी के साथ एक प्रकार का अन्याय ही है । ऐसे में पाकिस्तान का क्षेत्रफल तदनुसार घटाये जाने की बात अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भारत-सरकार को अवश्य उठाना चाहिए ।
• जनवरी’२०२३
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