पुनरुत्थान का प्रवाह ऐसा प्रचण्ड !
संसद में स्थापित हुआ ‘धर्म-दण्ड’ !!
अंग्रेजों के हाथों वर्ष 1927 में निर्मित नई दिल्ली के सेण्ट्रल असेम्बली हॉल में ही कालांतर बाद स्थापित हुई ‘भारत की संसद’ बीते वर्ष वर्ष-2023 की गणेश चतुर्थी को स्थानांतरित हो कर अब अपने नए भवन में कायम हो गई है । एडवीन लुटियन्स एवं हर्बर्ट बेकर्स नामक दो अंग्रेज अभियंताओं के हाथों निर्मित वह ब्रिटीशकालीन भवन अब ‘संविधान सदन’ के नाम से ऐतिहासिक भवन में तब्दील हो गया है, क्योंकि संविधान की रचना वहीं हुई थी । नए संसद भवन के नवनिर्माण और उसमें संसद के विराजमान होने का वैसे तो कोई विशेष अर्थ नहीं है ; किसी भी संस्थान के नए भवन का निर्माण आवश्यकतानुसार होते ही रहता है , किन्तु भारतीय संसद के इस प्रकरण का सीधा संबंध भारत-पुनरुत्थान से है । मैं ऐसा इस कारण कहा रहा हूं , क्योंकि इस नए भवन में विस्थापित-पुनर्वासित होने के साथ ही एक ओर ‘भारत की संसद’ का भारतीयकारण होता हुआ दिखने लगा है, तो दूसरी ओर संसद में राजसत्ता और धर्मसत्ता के बीच अब एक प्रकार का समन्वय कायम होता हुआ भी परिलक्षित हो रहा है, जैसा पुरातन भारत मे हुआ करता था ।
उल्लेखनीय है कि वैभवशाली प्राचीन भारत में राजसत्ता सर्वतोभावेन धर्म-सत्ता से नियंत्रित-निर्देशित हुआ करती थी; जबकि धर्म-सत्ता सदैव राज-सत्ता से ही पोषित-संरक्षित होती थी । धर्म व राज्य के बीच का यह पारस्परिक सम्बन्ध मानव-कल्याण व विश्व-कल्याण को प्रेरित हुआ करता था, जो अंग्रेजों-मुगलों की राजसत्ता स्थापित होने से पहले तक प्रायः तमाम भारतीय राज्यों-रियासतों में कायम रहा था । दरअसल भारतीय परिप्रेक्ष्य में तो राज्य की उत्पत्ति ही धर्म से हुई है और धर्म-पालन व धर्माचरण की सुव्यवस्था कायम करना ही राज्य के अस्तित्व का हेतु रहा है । भारत से बाहर की अभारतीय सभ्यताओं ने भी धर्म के स्थान पर धर्म-विरोधी रिलीजन-मजहब को अपना लेने के बावजूद इसी भारतीय व्यवस्था का अनुकरण अवश्य किया, लेकिन वहां राज्य और रिलीजन-मजहब के बीच का सम्बन्ध कल्याणकारी के बजाय विस्तारवादी रहा । रिलीजियस व मजहबी, दोनों ही सभ्यताओं में राज्य के साथ रिलीजन व मजहब का सम्बन्ध परस्पर विस्तार के उद्देश्य से ही कायम हुआ और आज भी इसी हेतु से इसी आधार पर कायम है । जबकि भारतीय राजसत्ता और धर्मसत्ता कभी भी विस्तारवादी नहीं रही है , बल्कि दोनों केवल और केवल सर्वकल्याणकारी ही रही हैं । अभारतीय सभ्यताओं में रिलीजन हो या मजहब, दोनों ने राजसत्ता का इस्तेमाल अपने-अपने विस्तार के लिए ही किया , तो वहां की राजसत्ता ने भी रिलीजन-मजहब का इस्तेमाल अपने साम्राज्य की सीमायें बढाने के लिए युद्धक हथियार के रुप में किया । फिर तो वे दोनों ही विस्तारवादी शक्तियां अपने-अपने मजहब-रिलीजन का विस्तार करती हुई दुनिया भर में किस कदर कहर बरपाती रही हैं, सो बताने की जरुरत नहीं है । परिणाम जगजाहिर है कि धर्म का भौगोलिक आकार घटते-घटते अब केवल भारत में सिमट कर रह गया और मुगलिया-बरतानिया शासन के दौरान राजसत्ता के संरक्षण से जो वंचित हुआ, सो सन १९४७ के बाद भी आज तक वंचित ही रहा । इतना ही नहीं, भारत की तो राजसत्ता भी धर्मसापेक्ष होने के बजाय ‘धर्मनिरपेक्ष’ हो गई (बना दी गई) । वस्तुतः होना तो यह चाहिए था कि मुगलिया-बरतानिया शासन का पतन और देश का मजहबी विभाजन होने के साथ ही भारत की राजसत्ता स्वभावतः धर्म-सापेक्ष हो जाती, किन्तु अंग्रेज-परस्ती की परीक्षा उत्तीर्ण कर विभाजन की शर्त पर भी सत्ता हासिल कर लेने वाले नेहरू की अतिशय अंग्रेज-भक्ति और भारतीय संस्कृति-परंपरा के प्रति उनकी अवांछित असहमति के कारण ऐसा हो नहीं सका । हालाकि सत्ता-हस्तांतरण के दौरान तत्कालीन ब्रिटिश हुक्मरान लॉर्ड माउण्ट बैटन की ओर से नेहरुजी को किसी ‘पारंपरिक रीतिपूर्वक’ सत्ता हासिल करने की सलाह दिए जाने और वैसी रीति-परिपाटी से अनभिज्ञ नेहरू द्वारा इस बावत पूछे जाने पर तत्कालीन कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व विचारक चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने इसकी पहल अवश्य की थी, किन्तु उस पहला की परिणति केवल प्रतीक बन कर ही रह गई थी और बाद में तो वह प्रतीक भी संग्रहालय की वस्तु बना दी गई थी । किन्तु नये भवन में संसद की प्रतिष्ठापना के अवसर पर वह प्रतीक एकबारगी ऐसे जीवंत हो उठा कि राजसत्ता बनाम धर्मसत्ता के परस्पर सम्बन्धों पर बहस छिड पडी , जिससे निःसृत संदेश तो भारत के पुनरुत्थान को ही इंगित करता है ; क्योंकि वह प्रतीक वास्तव में ‘धर्मदण्ड’ है, जो भारत की सर्वोच्च विधायी सभा में अध्यक्षीय आसन के पास ‘राजदण्ड’ के रुप में वैदिक-धार्मिक विधि-विधान के साथ स्थापित हो चुका है । नये संसद-भवन के उद्घाटन के दौरान दक्षिण भारत के तमिल-तंजौर से आये विशिष्ट संतों-महंतों साधुओं-योगियों के हाथों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को सौंपे गए ‘सेंगोल’ नामक जिस प्रतीक-चिह्न पर बहस छिडी हुई थी, वह ‘धर्मदण्ड’ का ही तमिल नाम है ।
मई’२०२३ में संसद में छिडी उस बहस के दौरान अतीत के अंधेरखाने से निकल कर एक ऐसा तथ्य सामने आया है , जो इतिहास के पन्नों पर स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना चाहिए था; किन्तु लिखना तो दूर , उसे कोई पन्ना ही मयस्सर नहीं हुआ और जिसके बावत लिखा जाना चाहिए था, उस प्रतीक-वस्तु अर्थात ‘धर्मदण्ड’ को एक संग्रहालय के कबाडखाने में डाल दिया गया था । वो तो भला हो ‘फ्रीडम ऐट मिडनाईट’ के लेखक लॉपियर एण्ड कॉलिंस का, ‘थॉट्स ऑन लिंग्विस्टिक स्टेट्स’ लिख देने वाले डॉ भीमराव अम्बेदकर का, ‘द इंडियन आइडियोलॉजी’ लिखने वाले पेरी एण्डरसन का तथा ‘ग्रेट पार्टिशन ; मेकिंग ऑफ इण्डिया एण्ड पाकिस्तान’ लिखने वाले यास्मिन खान का और अतीत की उस परिघटना का विवरण प्रकाशित करने वाली ‘टाईम’ पत्रिका एवं ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ अखबार के तत्कालीन सम्पादक-प्रकाशक महोदय का, जिनके तत्सम्बन्धी लेखों में १४-१५ अगस्त १९४७ की रात में हुए सत्ता-हस्तान्तरण की प्रक्रिया के तहत भारतीय धर्मसत्ता एवं उसे अभिव्यक्त करने वाले ‘धर्मदण्ड’ को ‘राजदण्ड’ के तौर पर धारण किये जाने की उस पूरी परिघटना का विवरण दर्ज है । इन पुस्तकों और अखबारों में दर्ज धर्मदण्ड की कथा-गाथा पुस्तकालयों से अचानक निकल कर शासनिक सचिवालयों तक जिस अप्रत्याशित घटनाक्रम से पहुंच गई , उसे भी एक दैवीय संयोग ही कहा जा सकता है । दरअसल हुआ यह कि ‘तुगलक’ नामक एक तमिल पत्रिका में इस बावत कांची मठ के महंत चंद्रशेखरेन्द्र स्वामी के संस्मरण पर आधारित-प्रकाशित लेख पढ़ कर प्रख्यात नर्तकी डॉ० पदमा सुब्रह्मण्यम ने प्रधानमंत्री-कार्यालय को जब यह सूचना दी कि सत्ता-हस्तांतरण का प्रतीक ‘दण्ड’ तो कहीं किसी संग्रहालय में सत्ता से उपेक्षा का दंश झेल रहा है, तब नरेंद्र भाई मोदी की पहल पर संस्कृति मंत्रालय एवं नेशनल आर्काइव ऑफ इंडिया के द्वारा अन्वेषण-मंथन किए जाने से इतिहास का यह धूल-धुसरित-विस्मृत पन्ना फड़फड़ाता हुआ सब कुछ बयां कर दिया । फिर तो इन पुस्तकों-प्रकाशनों के अलावे राजगोपालाचारी जी के पोता चक्रवर्ती आर० केशवन भी मीडिया के सामने अगस्त’ १९४७ में हुए सत्ता-हस्तातरण की प्रक्रिया के बावत अपने दादा से सुने संस्मरणों को साझा कर गए , तो उनके साथ ही उस प्रक्रिया के क्रियान्वयन हेतु ‘सेंगोल’ बनाने वाले स्वर्णकार ९६ वर्षीय वुम्मिडी इत्तिराजुलु एवं ८८ वर्षीय वुम्मिदी सुधाकर भी देश को यह बता गए कि किसके कहने पर और किस निमित्त बनाये थे वह ‘धर्मदण्ड’ । इस तरह से यत्र-तत्र विखरे पडे कथानकों-पात्रों को जोड कर पूरी पटकथा जब पुनर्निर्मित हो गई, तब भारत-सरकार की ओर से दूरदर्शन पर प्रसारित एक तत्सम्बन्धी डॉक्युमेण्टरी फिल्म प्रसारित कर समुचे देश को बताया गया कि वर्ष १९४७ में ब्रिटिश शासन को समेट लेने की तैयारी कर रहे लार्ड माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू से कहा था कि “सत्ता-हस्तांतरण एक ऐतिहासिक अवसर है, अतएव इसे महज सरकारी फाईलों के आदान-प्रदान से अथवा परस्पर हाथ मिला कर के सम्पन्न कर लेना उचित नहीं होगा ; बल्कि इस ऐतिहासिक मौके पर एक ऐसी रस्म आयोजित होनी चाहिए , जिसका अपना सांस्कृतिक महत्व हो और जो इस ऐतिहासिक पल को रेखांकित कर पाए ।” किन्तु किसी भी तरह से महज सत्ता हासिल कर लेने के लिए तैयार जवाहरलाल नेहरू तो ऐसी कोई तैयारी पहले से किये हुए थे नहीं, सो वे मौन ही रहे । लिहाजा, उन्हें इस बावत मोहलत लेनी पडी थी । गांधीजी उन दिनों दिल्ली से बाहर थे और सत्ता-हस्तान्तरण से इत्तर साम्प्रदायिक मामलों में उलझे हुए थे । ऐसे में नेहरु ने गांधीजी के सम्बन्धी एवं भारतीय संस्कृति-राजनीति के मर्मज्ञ व इतिहासविद नेता चक्रवर्ती राजगोपालाचारी से परामर्श मांगा । तब राजगोपालाचारी जी ने भारतीय राजाओं-रजवाडों के राज्याभिषेक-सम्बन्धी विभिन्न परम्पराओं का अध्ययन-अन्वेषण कर नेहरुजी को जो बताया, उसका आशय यही था कि भारत में धर्मसत्ता ही राजसत्ता को स्थापित करती रही है । इस परम्परा की अंतिम कडी, जो दक्षिण भारत के तंजोर (तमिल प्रदेश में) स्थित शैव मठ में विद्यमान थी, उसका हवाला देते हुए उन्होंने ‘सेंगोल’ , अर्थात ‘धर्मदण्ड’ के माध्यम से सत्ता-हस्तान्तरण की प्रकिया सम्पन्न कराना विधिसम्मत व शास्त्रानुकूल बताया था ।
यह बात मैं पहले ही बता चुका हूं कि प्राचीन भारत की अनेक विद्यायें-परम्परायें संस्कृत-रुप में यथावत अथवा तमिल भाषा में रुपान्तरित हो कर दक्षिण भारत के तंजोर स्थित एक शैव मठ में आज भी सुरक्षित-संरक्षित हैं, जो शेष भारत में विलुप्त हो चुकी हैं । तो भारत के उन्हीं राजवंशों में से सर्वाधिक पुराने व सबसे लम्बे समय तक रहे ‘चोल राजवंश’ में प्रचलित राज्यारोहन की एक रस्म ‘धर्मदण्ड प्रदानम’ का सुझाव राजगोपालाचारी ने दिया था, जो दक्षिण भारत के गौरवशाली ‘चोल राजवंश’(907-1310 ईस्वी) एवं विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ईस्वी) के राजाओं की परम्परा में प्रचलित थी ।
‘चोल’ राजवंश एवं विजयनगर साम्राज्य (1336-1646 ईस्वी) से पहले मौर्यवंश (322-185 ईसा पूर्व) और गुप्तवंश (320-550 ईस्वी) के शासनकाल में भी, जो भारत का स्वर्णकाल माना जाता है, तब के भारतीय साम्राज्यों में राजाओं अथवा उनके उत्तराधिकारियों का राज्यारोहण धार्मिक पुरोहितों के द्वारा धर्मदण्ड के माध्यम से ही होता था । उनसे पहले महाभारत-काल में व रामायण-काल में राज्यारोहण की परम्परा तो विशुद्ध धार्मिक थी ही । धर्मसत्ता के प्रतिनिधि के तौर पर राज-पुरोहित अथवा ऋषि-महर्षि, योगी-सन्यासी अपने हाथों से राजा को एक स्वर्णजडित दण्ड प्रदान करते थे, जो राजा के धारण करते ही ‘राजदण्ड’ हो जाता था और उसे धारण किये हुए राजा कहता था कि “अदण्ड्योस्मि…अदण्ड्योस्मि…अदण्ड्योस्मि” अर्थात, मैं अदण्ड्य हूं (मुझे दण्डित नहीं किया जा सकता है) । राजा के तीन बार ऐसा कहते ही राज-पुरोहित योगी-सन्यासी ऋषि-महर्षि उस पर तीन बार पलाश की एक छ्डी से प्रहार करते हुए कहते- राजन…! धर्म दण्ड्योऽसि… धर्म दण्ड्योऽसि… धर्म दण्ड्योऽसि ! अर्थात, ‘धर्म तुम्हें भी दण्डित कर सकता है राजन’…! इस प्रहार के साथ राजा उस राजदण्ड के अग्रभाग की पूजा करता था, तब वह ‘राजदण्ड’ धर्मसत्ता से युक्त हो ‘धर्मदण्ड’ में परिणत हो जाता था , जिसका अर्थ यह होता था कि राजा धर्मानुसार ही राज करेगा । उक्त राजदण्ड बनाम धर्मदण्ड की रचना भी उसे तरह की हुआ करती थी , जैसी वर्तमान ‘सेंगोल’ की है- शीर्ष पर कल्याणकर्ता-संहारकर्ता देवाधिदेव महादेव को समर्पित नंदी विराजित और नीचे की लंबाई में पालक-पोषक विष्णु के साथ सुख-समृद्धि प्रदायक धन वैभव की देवी लक्ष्मी चित्रित ! कितनी महान परम्परा एवं कैसी उदात राज-व्यवस्था थी हमारे भारत में, राज्यारोहण के समय ही राजा जन-कल्याणकारी न्यायपूर्ण शासन करने और स्वयं भी धर्म से शासित होते रहने अन्यथा दण्डित होने का बोध करा दिया जाता था धर्मसत्ता के द्वारा ।
जाहिर है- भारतीय परम्परा में धर्मसत्ता के नियामक ऋषियों-सन्यासियों गुरुओं-पुरोहितों के द्वारा ही राजा को प्रजा पर शासन के लिए धर्म-युक्त राजदण्ड प्रदान किया जाता था, जिसका अर्थ होता था- धर्मानुकूल शासन करना । जी हां, धर्मानुकूल शासन ; अर्थात शास्त्र-सम्मत सत्य, न्याय से पूर्ण और शांति-समृद्धि-सुरक्षा प्रदान करने वाली नीति से युक्त शासन । तमिल प्रदेश में वहां के शैव मठ- ‘थिरुवावदुथुराई’ के पुरोहित, जो ‘आदिनम’ कहे जाते थे, वे ही राजाओं को धर्मदण्ड प्रदान करने की परम्परा निष्पादित किया करते थे । चूंकि राजगोपाचारी जी तमिल प्रदेश के ही थे, इसी कारण उन्होंने इस निमित्त तंजौर (तंजाऊर)-स्थित शैव मठ को अधिकृत किया-कराया था , जिसके पश्चात उक्त मठ के २०वें गुरु-महंत महासन्निधानम श्री देसिगर स्वामी ने मद्रास के प्रसिद्ध जौहरी वुम्मिडी बंगारु से पारम्परिक सेंगोल बनवा कर अपने प्रतिनिधि-शिष्यों के हाथों एक विशेष विमान से नई दिल्ली भेजा था । वहां १४ अगस्त’१९४७ की रात को उक्त शैव मठ के प्रतिनिधि कुमार स्वामी थंबीरन के हाथों वह धर्मदण्ड पहले लॉर्ड माउण्ट बैटन को प्रदान किया गया था, जिसे वह अंतिम अंग्रेज-शासक जिज्ञासापूर्वक निहारता रहा था । उधर नेहरुजी को तंजोर नदी के जल से पवित्र कर उनके ललाट पर चन्दन व भस्म का लेप लगा कर उन्हें पीताम्बर से आवृत कर सत्ता हस्तगत करने के लिए तैयार किया जा चुका था । तत्क्षण उक्त ‘सेंगोल’ (धर्मदण्ड) को बैटन के हाथों से वापस ले कर गंगाजल से शुद्ध कर मठ-प्रतिनिधि कुमार थंबीरन स्वामी द्वारा ठीक पौने बारह बजे रात को वेद-विदित रीति के अनुसार मंत्रोच्चार के साथ उसे नेहरुजी के हाथों में सौंपे जाने से सत्ता-हस्तान्तरण की प्रक्रिया सम्पन्न हुई थी । उस मौके पर तमिल संत त्रिन्यानसमंदर-विरचित ‘कोलारपदिगम’ के श्लोकों का पाठ भी हुआ । उसके बाद ही अन्य सरकारी कागजी औपचारिकतायें सम्पन्न हुईं , जिसके पश्चात नेहरुजी का ‘भारत की नियति से साक्षात्कार’ वाला ऐतिहासिक भाषण हुआ था । उस पूरे कार्यक्रम में डॉ० राजेन्द्र प्रसाद सहित कांग्रेस के वे तमाम नेता उपस्थित थे, जो उसके पश्चात बने मंत्रिमण्डल में शामिल हुए थे । तत्कालीन मद्रास प्रांत के गवर्नर और तंजौर जिला के कलेक्टर भी उक्त समारोह में शामिल थे । यहां यह सब विवरण मैं इसलिए दे रहा हूं ; क्योंकि जिस ‘धर्मदण्ड’ के माध्यम से कांग्रेस-अध्यक्ष नेहरु ने राजसत्ता हासिल की थी, उसको बीतते समय के साथ ‘रिलीजन’ व ‘मजहब’ का अनुचित-अवांछित तुष्टिकरण करते-करते बिसार दिया गया और सत्ता को भी धर्मनिरपेक्ष अर्थात अधर्म के प्रति सापेक्ष बना दिया गया ; जबकि १९४७ की उस रात को तो बडे यत्नपूर्वक तमाम धार्मिक विधि-विधानों का पालन करते हुए पीताम्बर ओढ कर प्रधानमंत्री नेहरु ने उसे धारण किया था । सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में उसे धारण कर लेने के बाद उनने अपनी भावी राजनीति की प्रवृति के हिसाब १४-१५ अगस्त १९४७ की रात के उस सत्य को मिटा देना आवश्यक समझा और इसके लिए जाहिर है- असत्य का सहारा लिया । उस भूले-बिसरे धर्मदण्ड के बावत प्रधानमंत्री कार्यालय के निर्देश पर हुए अनुसंधान के तथ्यों और भारत सरकार के ततसंबंधी वेबसाईट पर प्रदर्शित सूचनाओं के अनुसार सत्तासीन हो जाने के बाद मुस्लिम-तुष्टिकरण की अपनी राजनीति पुष्ट करने की नीयत से नेहरु ने उसे ‘उपहार में मिली निजी सामग्री’ के तौर पर प्रयागराज के आनन्द भवन में भेज दिया था । वहां से कई वर्षों बाद वह धर्मदण्ड वहीं के संग्रहालय में कैद कर लिया गया, जहां उसे ‘नेहरु की वाकिंग स्टिक’ (टहलने की छडी) नाम दे कर उसकी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक-पहचान और भारत की महान राजनीतिक-शासनिक परम्परा का संवाहक होने की उसकी शान मिटा देने का पूरा इंतजाम कर दिया गया था । फिर तो सत्ता-हस्तान्तरण के उस मूर्त रुप की छाया भी किसी को न सेण्ट्रल असेम्बली में देखने को मिली और न ही प्रधानमंत्री-आवास-कार्यालय में । जाहिर है- ऐसा इस कारण, क्योंकि स्वयं को ‘एक्सीडेंटल हिन्दू’ कहने वाले नेहरु की सोच में पीताम्बर-भस्म-चन्दन अलंकृत उबकी छवि मुस्लिम तुष्टिकरण की उनकी राजनीति के हिसाब से उन्हें सुविधाजनक प्रतीत नहीं हो रही होगी । कदाचित इसी कारण धर्मदण्ड धारण के उस कार्यक्रम को सत्ता-हस्तांतरण समारोह के शासनिक-आधिकारिक रिकार्ड से भी बाहर निकाल दिया गया था तो इसी कारण ततसंबंधी इतिहास के पन्नों पर भी उसे दर्ज नहीं किया गया । यह तो पूरा देश जानता है कि भारत का इतिहास भी तो नेहरू-कांग्रेस की सुविधाजनक राजनीति का पोषण करने वाले और उस अवांछित राजनीति से पोषित होते रहने वाले दरबारी ढोलची-तबलची इतिहासकारों ने ही लिखा है ।
किन्तु सत्य तो कभी मिटता नहीं, अनुकूल समय आते ही किसी न किसी तरीके से प्रकट हो ही जाता है । ऐसा ही हुआ- दिल्ली में सम्पन्न धर्मसत्ता के हाथों ‘राजदण्ड धारण’ बनाम ‘सत्ता-हस्तारण’ के उक्त समारोह का एक छाया-चित्र जो तंजौर के शैव-मठ की दीवार पर टंगा हुआ था, उसकी कथा-गाथा बीते वर्ष २०२१-२२ में तमिल मीडिया के माध्यम से पुनः दिल्ली पहुंच गई- प्रधानमंत्री कार्यालय ; जहां बडी सिद्दत से ‘भारत-पुनरुत्थान’ के सरंजाम सजाये जा रहे थे, अर्थात भारत की अस्मिता के अनुरुप भारतीय संसद के नये भवन के निर्माण में वैदिकता धार्मिकता शास्त्रीयता के विम्ब बिछाये जाने के बावत खाका तैयार किये जा रहे थे । उस कथा-गाथा ने ‘सेंगोल’ का अर्थ अर्थात राजदण्ड बनाम धर्मदण्ड के ‘राज’ और ‘धर्म’ का खुलासा कर दिया, जिसे समझ-बूझ कर शासन भी सक्रिय हो गया, तो उस ऐतिहासिक-राजनीतिक प्रतीक धरोहर को खोज निकाल कर उसे उसके गौरवपूर्ण स्वाभाविक स्थान पर प्रतिष्ठित करने का निर्णय ले लिया गया । फिर तो भारत-पुनरुत्थान के इस दौर में संसद का नया भवन जब अश्व, गरुड, हंस, गज, शार्दूल, मगर आदि भारतीय प्रतीकों से युक्त छह द्वारों तथा समुद्र-मंथन सदृश विविध वैदिक-धार्मिक अवधारणाओं-मान्यताओं के भीतिचित्रों से सुसज्जित एवं सूर्य इन्द्र शिव शंकर महादेव गंगा लक्ष्मी-नारायण ब्रह्मा-विष्णु-महेश गणेश की दार्शनिक विशिष्टताओं से चित्रित हो कर प्रतिष्ठित हुआ, तब उसी दौरान (२८ मई’ २०२३ को) धर्मसत्ता के प्रतिनिधियों के हाथों वेद-विदित शास्त्र-सम्मत कर्मकाण्डों के साथ उस धर्मदण्ड को पुनः धारण कर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लोकसभाध्यक्ष के आसन के पार्श्व में स्थापित कर दिया । भारत की संसद के भवन का भारतीय स्थापत्य के अनुसार नवनिर्माण होना और उसमें धर्मदण्ड का स्थापित होना भारतीय राजनीति की एक युगान्तरकारी घटना है । आपको यह जान कर सुखद अनुभूति होगी कि आधुनिक भारत की संसद का यह भारत की अस्मिता एवं भारत के स्वत्व का बोध कराने वाले तत्वों से ही सुसज्जित हुआ है, जिसे देखने से ही भारत के पुनरुत्थान का बोध होने लगता है । अब भारत की संसद में जब धर्मदण्ड स्थापित हो चुका है, तब भारत का शासन भी ‘धर्मनिरपेक्षता’ के राष्ट्रघाती फंदे से मुक्त होकर धर्म सापेक्षता का वरण अवश्य करेगा, इस होतव्यता से इंकार नहीं किया जा सकता है । जाहिर है, भारत-पुनरुत्थान के प्रवाह में धर्मनिरपेक्षता नामक विष का स्राव करने वाले तमाम विषैले कीट-फतिंगे बह कर नष्ट हो जाएंगे । और, ऐसा होने का अर्थ है कि फिर शासन धर्म के अनुकूल होगा , अर्थात रिलीजन व मजहब के बजाय धर्म की ओर उन्मुख होगा जो भारत का अभीष्ट है और समस्त विश्व-वसुधा के कल्याणार्थ भी यही होना यथेष्ट है ।
//php// if (!empty($article['pdf'])): ?>
//php// endif; ?>