‘गणतंत्र’ नामक शासनिक विधान ; विश्व को भारत का अवदान
📅 प्रकाशित: 2025-06-08
‘गणतंत्र’ नामक संस्था और यह शब्द अंग्रेजी भाषा के ‘रिपब्लिक’ शब्द का अनुवाद नहीं है । गण और तंत्र की संधि से बना यह शब्द संस्कृत व हिन्दी का पद है, जो प्राचीन भारत की शासनिक सुव्यवस्था को परिभाषित करता है और इसका अर्थ है- ‘गण से शासित राज्य’ या ‘शासन का ऐसा तंत्र, जो गण से संचालित हो’ । जी हां, गण से शासित-संचालित राज्य । गण अर्थात विशिष्ट जनों का समूह । गण शब्द समूहवाचक अवश्य है, किन्तु भीडवाचक नहीं है । गण का तात्पर्य सामान्य जन-संकूल से नहीं, अपितु उसके भीतर के विशिष्ट जन-समूह से है । जैसे- देवगण, आचार्यगण, राजागण, पुरोहितगण आदि । ऐसे में स्पष्ट है कि विशिष्ट जन-समूह के द्वारा सामान्य जन-संकूल को, या यों कहिए कि सामान्य जनता को शासित-अनुशासित करने वाला तंत्र ‘गणतंत्र’ हुआ । संस्कृत का यह ‘गण’ शब्द वेद-विदित शब्द है । ऋग्वेद में गण शब्द का उल्लेख ४६ बार एवं अथर्ववेद में नौ बार और ब्राह्मण ग्रंथों में अनेकानेक बार हुआ है । पाणिनि के अष्टाध्यायी में वेदोत्तर शासन के लोकसत्तात्मक रुप का अस्तित्व भलि-भांति सिद्ध हुआ है ।
भारत में गणतंत्र की प्राचीनता इतिहास से भी प्रचीन है ; अर्थात इतिहास से परे ‘पौराणिक’ है । पौराणिक, अर्थात पुराणों में वर्णित । भारतीय सभ्यता-संस्कृति को निरुपित करने वाले पुराणों में गणेश नामक देवता भी हैं, जो प्रथमपूज्य हैं और वे गणपति व गणाधिपति ; अर्थात गणों के स्वामी भी कहे जाते हैं । स्पष्ट है कि ‘गणतंत्र’ किसी भी कोण से ‘रिपब्लिक’ शब्द का अनुवाद या समानार्थक नहीं है । सच तो यह है कि विश्व-राजनीति में जब ‘रिपब्लिकन स्टेट’ का उदय भी नहीं हुआ था, तब भारत में अनेक महान गणतंत्र कायम थे ।
जिस कालखण्ड में हमारा यह भारत राष्ट्र ‘जम्बूद्वीप’ कहलाया करता था, उस दौर में अर्थात उत्तर-वैदिक काल (लगभग ६०० वर्ष ईसापूर्व) में यह दस गणराज्यों में बसा हुआ था, जिन्हें ‘महाजनपद’ भी कहा जाता था । महाजनपद ; अर्थात वृहत राज्य, महान राज्य । राज्य उन दिनों जनपद ही कहे जाते थे । नेपाल वर्मा भूटान अफगानिस्तान तक फैले तब के भारत में महाजनपदों की संख्या १६ थी, जिनमें से छह राजतंत्री राज्य थे, जबकि दस गणतंत्री । वे महाजनपद उत्तर वैदिक काल में कायम विभिन्न जनपदों के एकीकरण से उभरे थे , इस कारण संघ भी कहलाते थे । उनके नाम इस प्रकार हैं- (१) कलिपवस्तु के ‘शाक्य’ गणराज्य (२) वैशाली का ‘लिच्छवी’ गणराज्य, (३) पावापुरी का ‘मल्ल’ गणराज्य (४) कुशीनगर का मल्ल गणराज्य (५) रामग्राम का ‘कोलीय’ गणराज्य (६) सूर्यशामगिरि का ‘भग्ग’ गणराज्य (७) पीपलिवन का ‘मौर्य’ गणराज्य (८) अलकप्प का ‘बुली’ गणराज्य (९) मिथिला का ‘विदेह’ गणराज्य (१०) केसपुत्त का ‘कलाम’ गणराज्य । बौद्ध ग्रंथ ‘मझ्झिम निकाय’ से ज्ञात होता है कि बुद्ध के काल में लिच्छवी, मल्ल, विदेह आदि राज्य गणतांत्रिक थे, जो पडोसी नृपतांत्रिक राज्यों से अपनी सुरक्षा के लिए परस्पर मिल कर एक संघ बना लिए थे । ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ ग्रंथ में यह उल्लेख है कि उत्तरकुरुओं एवं उत्तरमदों के राज्य में शासन के लिए समस्त समुदाय का अभिषेक किया जाता था और उन्हें ‘वैराज्य’ कहा जाता था, जिसका तात्पर्य राज्य के बल से था । हॉलाकि उस युग के महान व्याकरणाचार्य पाणिनि के साहित्य में २२ महाजनपदों का उल्लेख हुआ है ।
महाभारत युग में भी कई गणतंत्रात्मक संघ (महाजनपद) विद्यमान थे, जिनमें से एक- ‘अंधकवृष्णि’ संघ के अध्यक्ष वासुदेव कृष्ण थे । गणतंत्र से शासित राज्य अर्थात गणराज्य का राजा ‘गणाध्यक्ष’ या ‘गणपति’ कहलाता था, जो वंशानुगत नहीं, निर्वाचित हुआ करता था और जनता की प्रतिनिधि-संस्थाओं के माध्यम से शासन किया करता था । गणतंत्र से शासित गणराज्यों का उद्भव वैदिक युग में ही हो चुका था । ऋगवेद व अथर्ववेद में इसके अनेक संदर्भ भरे पडे हैं । वैदिक युगीन गणतंत्र की जनप्रतिनिधि-संस्थायें- ‘विदथ’, ‘सभा’ और ‘समिति’ कहलाती थीं । नीतिगत मुद्दों व सैन्य मामलों एवं अन्य महत्वपूर्ण मसलों पर बहस-विमर्श के लिए ‘विदथ’ (विद्वत परिषद) के आयोजन का उल्लेख ऋगवेद में शताधिक बार हुआ है , जिसमें स्त्री-पुरुष दोनों शामिल होते थे । इन संस्थाओं की सदस्यता जन्म से निर्धारित नहीं होती थी, बल्कि उत्त्कृष्ट कर्मों से विशिष्ट्ता-प्राप्त लोग ही इनके सदस्य हुआ करते थे । जाहिर है- वर्तमान आधुनिक द्विसदनीय विधायिका प्रणाली के बीज हमारे वेदों-पुराणों में ही हैं , जिनसे ज्ञात होता है कि वैदिकयुगीन शासनिक सत्ता का संचालन ‘समिति’ के माध्यम से होता था, जो ‘सभा’ के प्रति उत्तरदायी हुआ करती थी और वह ‘सभा’ प्रायः सामान्य जनों से निर्मित हुआ करती थी । उत्तर वैदिक युग में भी गणतंत्र का लगभग यही रुप कायम रहा , किन्तु महाभारत काल में नृपतंत्र से प्रभावित होता रहा ।
“महाभारत” के ‘शांति पर्व’ में भीष्म पितामह का कथन है- “गणराज्य के निवासियों में एकता होती है तो वह गणराज्य शक्तिशाली बनता है तथा उसके लोग समृद्ध बनते हैं और उसका विनाश केवल आंतरिक संघर्षों के कारण होता है” । ‘सभापर्व’ में गणाधीन शासन की विवेचना हुई है जिससे ज्ञात होता है कि गण से शासित राज्य के प्रत्येक परिवार में एक-एक राजा होता था । (गृहे गृहेहि राजान: स्वस्य स्वस्य प्रियंकरा: , सभापर्व, १४,२) । साथ ही यह भी कहा गया है कि गण के भीतर दलों का संगठन होता था । दल के सदस्यों को पक्ष्य अथवा गृह्य कहा जाता था । गणसभा में गण के समस्त प्रतिनिधियों को सम्मिलित होने का अधिकार था, किंतु सदस्यों की संख्या चूंकि कई सहस्त्रों तक होती थी, अतएव विशेष अवसरों को छोड़कर प्राय: उपस्थिति परिमित ही रहती थी । शासन के लिये अंतरंग अधिकारी नियुक्त किए जाते थे । किंतु नियमनिर्माण का पूरा दायित्व गणसभा पर ही था । गणसभा में नियमानुसार प्रस्ताव (ज्ञप्ति) रखा जाता था । उसकी तीन वाचना होती थी और शलाकाओं द्वारा मतदान किया जाता था । इस सभा में राजनीतिक प्रश्नों के अतिरिक्त और भी अनेक प्रकार के सामाजिक, व्यावहारिक और धार्मिक प्रश्न भी विचारार्थ आते रहते थे ।
‘गण’ के निर्माण की इकाई ‘कुल’ (कुटुम्ब) थी । प्रत्येक कुल का एक एक व्यक्ति गणसभा का सदस्य होता था । उसे ‘कुलवृद्ध’ या पाणिनि के शब्दों में ‘गोत्र’ कहते थे । उसकी एक संज्ञा ‘वंश्य’ भी थी । ऐसे कुलों-गोत्रों-वंश्यों की संख्या प्रत्येक गण में परंपरा से नियत हुआ करती थी । महाभारत-काल के बाद कायम गणतंत्रों का निर्माण भी प्रायः इसी पद्धति से हुआ था । वैशाली के लिच्छवी गणतंत्र की गण्सभा में ७७०७ ‘कुल’ (कुटुम्ब) सम्मिलित थे । उनके प्रत्येक ‘कुलवृद्ध’ की संघीय उपाधि ‘राजा’ की थी ।
इस प्रकार से देखा जाये तो वैदिक युग से उत्तर वैदिक युग और उत्तर वैदिक युग से रामायण-महाभारत काल के बाद भी ईसा के जन्म तक भारत भर में गणतंत्र की एक समृद्ध परम्परा कायम रही है । यद्यपि गणतंत्र के आदि स्रोत वेद ही हैं, तथापि उतना पहले न जा कर हम यहां महाभारत-काल के बाद की उतरोत्तर गणतांत्रिक व्यवस्था पर ही बात करें , तो ज्यादा समीचिन होगा; क्योंकि उनके स्थूल अवशेष आज भी विद्यमान हैं और सामान्यतः लगभग सारी दुनिया उसे ही प्राचीन गणतंत्र के तौर पर जानती है ; अर्थात , वैशाली गणराज्य का लिच्छवी गणतंत्र ।
पाली भाषा के बौद्ध साहित्य- ‘एकपण्ण जातक’ से ज्ञात होता है कि उक्त लिच्छवी गणतंत्र का कार्यपालक प्रधान, जो गणपति गणाधिपति या महाराजा अथवा गणाध्यक्ष कहलाता था, सो एक निर्वाचित व्यक्ति हुआ करता था । राज-काज में उसकी सहायता के लिए उपाध्यक्ष एवं सेनापति व कोषाध्यक्ष के साथ साथ एक ‘मंत्री-परिषद’ हुआ करती थी । कोषायक्ष को भाण्डारिक भी कहा जाता था । गणतंत्र की केन्द्रीय सभा (गणसभा) में ७७०७ सदस्य थे और वे सभी , जैसा कि ऊपर बता चुका हूं , ‘राजा’ कहे जाते थे । उक्त केन्द्रीय गणसभा की बैठकों अथवा अधिवेशनों के लिए एक विशाल सुसज्जित भवन था, जो ‘संस्थागार’ कहलाता था । वह आज की ‘संसद’ के समरुप था । संस्थागार में किसी भी मसले पर नीति-निर्धारण गणों-सदस्यों की सर्वसम्मति अथवा बहुमत से होता था । मत-विभाजन या बहुमत निर्धारण के लिए ‘गुप्त मतदान’ का प्रावधान था । ‘मत’ (वोट) के लिए ‘छन्द’ शन्द का प्रयोग होता था । मतदान कराने वाला अधिकारी ‘शलाकाग्राहक’ कहा जाता था । अलग अलग मतों के लिए भिन्न भिन्न रंगों की शलाकाओं का उपयोग होता था । ग्रामीण क्षेत्रों में प्रशासन के लिए ‘ग्राम-पंचायतें’ कायम थीं । न्यायिक प्रशासन के लिए केन्द्रीय स्तर तक आठ न्यायालय कायम थे जो क्रमशः विनिश्चय, महामात्य, व्यावहारिक, सूत्रधार, अष्टकुलिक, सेनापति, उपगणपति और गणपति के न्यायालय कहे जाते थे । बौद्ध विद्वान बुद्धघोष की पुस्तक- ‘सुमंगलविलासिनी’ से ज्ञात होता है कि कोई भी व्यक्ति बारी-बारी से उक्त सभी न्यायालयों में दोष-सिद्ध हो जाने के बाद भी दोषी माना जाता था । राजा का न्यायालय सर्वोच्च था और दण्ड देने के लिए केवल वही अधिकृत था । अन्य न्यायालय केवल दोष-मुक्त कर सकते थे, दण्ड नहीं दे सकते थे । ‘दंड विधान संहिता’ का नाम- ‘प्रवेणिपुस्तक’ था । लिच्छवी गणराज्य की राजधानी वैशाली में राज-पाट, न्याय, प्रशासन आदि विभिन्न कार्यों के लिए संस्थागार के अतिरिक्त राजमहल, कूटागार एवं आराम और पुष्करणी नामक बडे-बडे भवन स्थापित थे । उस महान गणतंत्र में राजकीय शिष्टाचार का बडा महत्व था । राजकीय अतिथियों को चांदी के पात्र में स्वर्ण चूर्ण अथवा स्वर्ण पात्र में रजत चूर्ण लेकर राज्य की समृद्धि-सुभिक्षता अर्थात धन-धान्य संपन्नता व रमणीयता और उसके विस्तार व कल्याण के मंत्रों का वाचन करते हुए राजमहल में प्रविष्ट कराया जाता था । ‘ललित विस्तार ग्रंथ’ के अनुसार गणतंत्र में राजा और प्रजा का संबंध पिता-पुत्र के समान बताया गया है ।
उपरोक्त उद्धरणों से इस तथ्य का सत्य स्थापित हो जाता है कि भारत में गणतंत्र की एक सुदीर्घ व सुसम्पन्न परम्परा प्राचीन वैदिक युग से ही कायम रही है और समस्त विश्व को शासन की कला व व्यवस्था इसी भारतीय मंत्र से हासिल हुई है । विश्व की विभिन्न सभ्यताओं को भारत का यह अवदान गर्व करने योग्य है ।
• मनोज ज्वाला ; jwala362@gmail.com; अक्टुबर’ २०२४
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