भारतीय स्वतंत्रता-आन्दोलन में सिक्खों की गौरवमयी भूमिका
सिक्ख समाज में गुरु गोविन्द सिंह के बाद व्याप्त कुरीतियों को दूर करने और धार्मिक शुचिता बढाने के उद्देश्य से जवारमल भगत ने नामधारी मत/पंथ के सिक्खों को संगठित करने की जो नींव रखी थी, सो राम सिंह के नेतृत्व में कूका आन्दोलन के नाम से मशहूर हो कर अंज्रेजी राज को नाकों दम किये हुए था । कूकाओं के उस आन्दोलन की नींव जवारमल भगत ने रखी थी लेकिन राम सिंह कूका ने उसे परवान चढाया था ।कांग्रेस और आर्य समाज की स्थापना से भी पहले कूका अन्दोलन धार्मिक अधिकारों की रक्षा के तौर पर अंग्रेजी राज के विरुद्ध बगावत का बिगुल फूंका चुका था । १८५७ के समर की विफलता के बाद भारत भर में उस संग्राम की अलख जगाये रखने का काम कूकाओं ने किया था ।उसी साल राम सिंह कूका ने अपने गांव से इस आन्दोलन की शुरुआत कर देश भर में २२ उपदेश केन्द्रों की स्थापना कर दी थी जहां से जन सामान्य को धर्म की रक्षा के लिए अंग्रेजी राज के उन्मूलन की प्रेरणा दी जाती थीं । सन १८६० से वह आन्दोलन खुलेआम अंग्रेज विरोधी राजनीतिक आन्दोलन में तब्दील हो गया । अंग्रेजों ने पंजाब में जब जगह-जगह कतलखाने खोल दिए ,तब कूकाओं ने सन १८७१ में ७२ में अमृतसर व रायकोट आदि शहरों में उन कतलखानों पर सशस्त्र हमला कर सारी गायों को मुक्त कराते हुए गोरक्षा को भी अपने अभियान में शमिल कर लिया । उस अभियान के तहत १८७२ में उनने मलेरकोटला नामक स्थान पर जो धावा बोला उसकी गूंज से भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन का इतिहास आज भी गूंजित हो रहा है । मालूम हो कि मलेरकोटला में अंगरेज हुक्मरानों ने वहां के परेड ग्राउण्ड मैदान में एक साथ ६५ कूकाओं को तोपों से उडा दिया था जिनमे १२ साल का एक बालक भी था । उसी दौरान राम सिंह को गिरफ्तार कर के रंगुन भेज दिया गया जहां १८८५ में उनकी मृत्यु हो गई । राम सिंह के बाद हरि सिंह और हरि सिंह के बाद प्रताप सिंह ने कूकाओं का नेतृत्व किया । प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान अंग्रेजे हुक्मरानों की ओर से कूकाओं को भूमि अनुदान दे कर अपने पक्ष में करने की कोशिश की गई किन्तु वे असफल रहे । क्योंकि बाबा राम सिंह एवं उनके शिष्यों का मानना था कि धर्म की रक्षा के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता अनिवार्य है और इस हेतु भारत की धार्मिक परम्पराओं के विरुद्ध कायम अंग्रेजी राज के प्रति हर स्तर पर असहयोग व असहमति प्रकट करना धार्मिक कर्त्तव्य है । इसी कर्त्तव्य भावना से प्रेरित हो कर उन्होंने अंग्रेजी राज की तमाम व्यवस्थाओं के बहिष्कार का अभियान चलाया हुआ था । अंग्रेजी विदेशी वस्तुओं से ले कर अंग्रेजी स्कूलों अस्पतालों अदालतों आदि तमाम अंग्रेजी स्थापनओं के बहिष्कार का अभियान । राम सिंह कूका के उस अभियान को ही आगे चल कर महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन के रुप में अपनाया । राम सिंह की मृत्यु के बाद भी कूका आन्दोलन ठ्ण्डा नहीं हुआ था बल्कि और भडक उठा था । कूकाओं का अपना सैन्य संगठन था जिसमें तकरीबन सात लाख कूका वीर शामिल थे जिन्होंने पूरे पंजाब में अंग्रेजी शासन के विरुद्ध अपनी समानान्तर सरकार कायम कर ली थी । सन १९२० से सतयुग नाम से एक अखबार भी निकाला गया जो कई वर्षों स्व्तंत्रता का अलख जगाता रहा । बाद में महात्मा गांधी की कांग्रेस ने उस आन्दोलन का एक प्रकार से अपहरण ही कर लिया । कांग्रेस की तो स्थापना ही हुई थी १८५७ की पुनरावृति को रोकने के लिए । इसे एक संयोग ही कहा जाएगा १८५७ की सुशुप्त चिंगारी को दुबारा सुलगाने और देश भर में भडकाने के निमित्त सक्रिय कूका आन्दोलन के नेता राम सिंह की मृत्यु जिस वर्ष हुई उसी वर्ष सन १८८५ में कांग्रेस की स्थापना हुई । लेकिन इसका मतलब यह कतई समझना चाहिए कि कांग्रेस और महात्मा गांधी के प्रभाव से कूका आन्दोलन के शिथिल हो जाने के बाद सिक्खों की भूमिका भी शिथिल हो गई ।
जिन दिनों कूका आन्दोलन अपने उफान पर उन्हीं दिनों सरदार सोहन सिंह भाकना ने सन १९१३ में अमेरिका के सैन फ्रेंसिसको में ‘हिन्द एशोसिएसन ऑफ अमेरिका नाम की एक संस्थापित कर ‘गदर’ नामक एक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ कर दिया था । गदर पत्रिका की व्यापकता और गदर विषयक कार्क्रमों की लोकप्रियता के कारण गदर शब्द इतना प्रचलित हो गया कि इससे जुडे लोगों के सगठन को हिन्द एशोसिएसन ऑफ अमेरिका के बजाए गदर पार्टी कहा जाने लगा ।
‘गदर’ अखबार के छापाखाना का नाम “युगांतर आश्रम प्रेस” रखा गया था और वह युगान्तर आश्रम प्रेस ही गदर पार्टी का कार्यालय बन गया था । गदर अखबार मूलतः अंग्रेजी में प्रकाशित होता था जिसला अनुवाद हिंदी, उर्दू, पंजाबी व गुजराती आदि कई भाषाओं में होता था । उसके संपादक गोविन्द बिहारीलाल थे । वह समाचार पत्र चीन, जापान, सिंगापुर, जर्मनी, फ्रांस, इंग्लैंड, अमेरिका, कनाडा, बर्मा और अन्य उन देशों में जहाँ-जहाँ भारतीय रहते थे भेजा जाता था. यह पत्र भारतवासियों को जोरदार भाषा में राज्य क्रान्ति करने के लिए ललकारता था. अनेक रुकावटों के होते हुए भी यह पत्र खुले या गुप्त रूप में उन सभी देशों में पहुँच जाता था जहाँ भारतवासी रहते थे।
ग़दर पार्टी की पहली सभा में ही यह विचार व्यक्त किया गया था कि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हथियार उठाना गद्दारी नहीं, महायुद्ध है । हम इस विदेशी राज के आज्ञाकारी नहीं, घोर दुश्मन हैं । हमारी इसी दुश्मनी को ब्रिटिश हुक्मरान गद्दरी कहते हैं । इसीलिए वे हमारी 1857 की आज़ादी की जंग को ग़दर कहते आ रहे हैं ।
ग़दरियों ने अमेरिका में कोलम्बिया नदी के किनारे भारतीय मज़दूरों के बीच से अपना काम शुरू किया था । गदर पार्टी ने 21 अप्रैल 1913 को एक बुनियादी प्रस्ताव पारित किया, जिसके तहत कहा गया कि गदर पार्टी सशस्त्र क्रांति के सहारे अंग्रेज़ी राज का खात्मा कर भारत में गणतंत्र कायम करेगी । ध्यान देने योग्य है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भारत की पूर्ण स्वतंत्रता का यह प्रस्ताव 16 साल बाद 1929 में पारित किया था । सभा में हर वर्ष चुनाव करने का निर्णय लिया । ग़दर पार्टी ने एक पोस्टर छापा था, जिसे पंजाब में जगह-जगह चिपकाया भी गया था । उस पोस्टर पर लिखा था - "जंग दा होका" अर्थात युद्ध की घोषणा ।
उन दिनों गदर अखाबार की लोकप्रियता काफ़ी बढ़ गई थी और ग्रंथी भगवान सिंह की क्रांतिकारी कवितायें उसमें नियमित रुप से छपती थी, जो दुनिया भर में फैले भारतीयों के बीच स्वतंत्रता प्राप्ति की तीव्रता का भाव जगाने में ख़ासी कामयाबी भी पायी । गदर पार्टी के तौर-तरीके और गदर की विचारधारा को भारत में भी काफ़ी आलोचनाएं झेलनी पड़ीं, लेकिन इस बात में कोई संदेह की गुंजाइश नहीं कि गदर पार्टी ने भारत की आजादी के लिए अत्यंत साहसिक व ईमानदार कोशिश की थी ।
गदर पार्टी के लोगों ने प्रथम विश्वयुद्द के दौरान भारत में बगावत को अंजाम देने की एक गुप्त योजना बना रखी थी, जिस के तहत दुनिया भर में विखरे उसके तमाम लोग भारत आने लगे थे । अध्यक्ष सोहन सिंह भाकना स्वयं जापान के रास्ते भारत आते हुए ब्रिटिश हकुमत के दुश्मनों से मदद प्राप्त करने की कोशिश में भी लगे हुए थे । उन्होंने कपूर सिंह मोही को चीनी क्रान्तिकारियों से सहायता प्राप्त करने के लिए सनयात सेने से मिलने को भेजे हुए थे । सोहन सिंह भकना स्वयं भी टोकियो में जर्मन कांउसलर से मिल चुके थे । तेजा सिंह ने तुर्कीश मिलिट्री अकादमी में जाना तय कर लिया, ताकि प्रशिक्षण प्राप्त किया जा सके । बगावत की पूरी योजना बना कर गदर पार्टी के हजारों कार्यकता-सिपाही कामागाटामारु जलमार्ग से एस.एस. कोरिया और नैमसैंग नामक जहाजों पर सवार हो कर भारत आ रहे थे । लगभग 8 हजार गदर सदस्य भारत विद्रोह के लिए लौट रहे थे और उनका पहुंचना 1916 तक तय था । यहां भारत भर में भाई परमानन्द ने घोषणा कर रखी थी कि 5 हजार गदर- सिपाही आने वाले हैं । लेकिन बीच की किसी कमज़ोर कड़ी के कारण यह सूचना ब्रिटिश हकुमत तक पहुंच गयी । उन्होंने युद्ध की घोषणा वाले पोस्टरों को गंभीरता से लिया । ब्रिटिश सरकार ने एक अध्यादेश पारित कर राज्य सरकारों को निर्देशित कर दिया कि वे भारत में दाखिल होने वाले किसी भी व्यक्ति को हिरासत में लेकर पूछताछ कर सकेंगे, भले ही वह भारतीय मूल का ही क्यों न हो । सबसे पहले लुधियाना में एक पूछताछ-केन्द्र स्थापित किया गया । कामागाटामारू के यात्री (गदर-सिपाही) इस अध्यादेश के पहले शिकार बने । सोहन सिंह भाकना और अन्य लोगों को जहाज से उतरते समय गिरफ्तार कर लिया गया और लुधियाना लाया गया । वे गदर-सिपाही, जो पोसामारू जहाज से आये थे वे भी पकड़े गये । उन्हें मिंटगुमरी व मुल्तान की जेलों में भेज दिया गया ।
भारत में गदर के जवानों ने दूसरे क्रान्तिकारियों के साथ अच्छे रिश्ते कायम कर लिये थे । उनमें से कुछ ने बंगाल एवं अन्य क्षेत्रों में ‘रेव्यूलूश्नरी पार्टी ऑफ इण्डिया’ नामक संगठन कायम कर लिया था । विष्णु गणेश पिंगले, करतार सिंह सराभा , रासबिहारी बोस एवं हाफिज अब्दुला आदि क्रान्तिकारियों ने इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की थी । उनने अंग्रेजी शासन-विरोधी अपने क्रियाकलापों के संचालन हेतु अमृतसर शहर में ‘कन्ट्रोल सेन्टर’ बना रखा था । बाद में गदर पार्टी के निर्देश पर वह लाहौर स्थानान्तरित कर दिया गया था । गदर पार्टी ने अंग्रेजी राज के विरुद्ध विद्रोह २१ फरवरी १९१५ का दिन सुनिश्चित कर रखा था । पूरी रणनीति को मेरठ , लाहौर, दिल्ली, फिरोजपुर की छावनियों में गुप्त रुप से फैला दी गई थी । कोहाट और दीनापुर में भी विद्रोह उसी दिन होना था । करतार सिंह सराबा को फिरोजपुर को नियंत्रण में लेना था । पिंगले को मेरठ से दिल्ली की ओर बढना था । डाक्टर मथुरा सिंह को फ्रंटियर के क्षेत्रों में जाना था । निधान सिंह चुघ, गुरमुख सिंह और हरनाम सिंह को रावलपिंडी होते हुए मर्दान जाना था । भाई परमानन्द को पेशावर का जिम्मा दिया गया था । लेकिन दुर्भाग्य से ब्रिटिश हकुमत को अपने एजेंटों के माध्यम से उस विद्रोह की खबर मिल गई तब गदर के नायकों ने विद्रोह की तिथि बदल कर 19 फरवरी निश्चित कर दिया । परन्तु ब्रिटिश प्रशासन ने तीव्रता दिखाते हुए उन तमाम छावनियों के भारतीय सैन्य-सिपाहियों को निहत्था कर दिया और बारूद के गोदामों सहित उन तमाम छावनियों की सुरक्षा बढा कर गदर पार्टी के बहुत से नेताओं-कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लाहौर जेल में डाल दिया । 82 गदर नेताओं के ऊपर मुकदमा चला, जिसे इतिहास में ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ कहा जाता है ।
उक्त केस के सिलसिले में पंजाब के तत्कालीन गवर्नर माइकल ओ डायर ने ब्रिटिश हकुमत से एक ऐसे विशिष्ट क़ानूनी प्रावधानों की मांग की थी, जिसके तहत कोर्ट में अपील की व्यवस्था न हो सके । फलतः अंग्रेज सरकार "डिफेन्स ऑफ इण्डिया रूल" का प्रावधान किया, ताकि उसके तहत गदर नेताओं के विरुद्ध झटपट निर्णय हो सके । परिणामतः 24 गदर नेताओं को १३ सितम्बर १९१५ को मौत की सजा सुनाई गई और शेष को उम्र कैद दी । पुनः २५ अक्तुबर १९१५ को दूसरे लाहौर षड्यंत्र केस में १०२ गदर नेताओं के विरुद्ध मामला दायर हुआ, जिसका निर्णय ३० मार्च १९१६ को हुआ, जिसके तहत ०७ को फाँसी की सजा दी गयी तथा ४५ को उम्रकैद की और अन्यों को 4 वर्ष की कठोर सजा हुई ।
उल्लेखनीय है कि गदर पार्टी के महान् नेताओं सोहन सिंह भाकना तथा करतार सिंह सराभा और लाला हरदयाल आदि ने जो कार्य किये, उसी की प्रेरणा से भागत सिंह – राजगुरु – सुखदेव आदि लोग सक्रिय हुए थे ।
मालूम हो कि गदर पार्टी के उधम सिंह १३ अप्रैल १९१९ को घटित जालियांवाला बाग नरसंहार काण्ड के प्रत्यक्षदर्शी थे । उस घटना से वीर उधमसिंह तिलमिला गए थे और उन्होंने जलियाँवाला बाग की मिट्टी हाथ में लेकर माइकल ओ डायर को मार डालने की प्रतिज्ञा ले कर ब्रिटेन गये थे । अपने मिशन को अंजाम देने के लिए उधम सिंह ने विभिन्न नामों से अफ्रीका नैरोबी ब्राजील व अमेरिका की यात्रा करते हुए सन् 1934 में लंदन पहुँचे और वहां 9, एल्डर स्ट्रीट कमर्शियल रोड पर रहने लगे । वहां उन्होंने यात्रा के उद्देश्य से एक कार खरीदी और साथ में अपना मिशन पूरा करने के लिए छह गोलियों वाली एक रिवाल्वर भी खरीद ली । भारत का यह वीर क्रांतिकारी माइकल ओ डायर को ठिकाने लगाने के लिए उचित वक्त का इंतजार करने लगा । अन्ततः उधम सिंह को अपने सैकड़ों भाई-बहनों की मौत का बदला लेने का मौका १९४० में मिला । जलियांवाला बाग जनसंहार-कांड के २१ साल बाद १३ मार्च १९४० को रॉयल सेंट्रल एशियन सोसायटी की लंदन के कॉक्सटन हॉल में बैठक हो रही थी, जहां माइकल ओ डायर भी वक्ताओं में से एक था । उधम सिंह उस दिन ठीक समय से बैठक-स्थल पर पहुँच गए । अपनी रिवॉल्वर उन्होंने एक मोटी किताब में छिपा ली थी । इसके लिए उन्होंने किताब के पृष्ठों को रिवॉल्वर के आकार में उस तरह से काट लिया था, जिससे डायर की जान लेने वाला हथियार आसानी से छिपाया जा सके । फिर तो बैठक के बाद दीवार के पीछे से मोर्चा संभालते हुए उधम सिंह ने माइकल ओ डायर पर गोलियां दाग दीं । दो गोलियां माइकल ओ डायर को लगीं, जिससे उसकी तत्काल मौत हो गई । उधम सिंह ने वहां से भागने की कोशिश नहीं की और अपनी गिरफ्तारी दे दी । उन पर मुकदमा चला तथा १४ जून १९४०को उधम सिंह को हत्या का दोषी ठहराया गया और ३१ जुलाई १९४० को उन्हें पेंटनविले जेल में फांसी दे दी गई । इस तरह से देखा जाय तो ब्रिटिश राज से भारत की स्वतंत्रता के आन्दोलन में सिक्खों की भूमिका बडी जबरदस्त रही है ।
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