महात्मा गांधी की वसीयत और कांग्रेस की हैसियत
कांग्रेस की वर्तमान हैसियत को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी की अंतिम एक इच्छा उनकी अपेक्षा से उलट वीभत्स रुप में अब शीघ्र पूरी होने वाली है । मालूम हो कि १५ अगस्त १९४७ के बाद गांधी जी ने कहा था कि भारत की आजादी का लक्ष्य पूरा हो जाने के पश्चात एक राजनीतिक दल के रुप में कांग्रेस के बने रहने का अब कोई औचित्य नहीं है, अतएव इसे भंग कर के इसे ‘लोक सेवक संघ’ बना देना चाहिए और कांग्रेस के नेताओं को सामाजिक कार्यों में जुट जाना चाहिए । गांधीजी ने अपनी हत्या के तीन दिन पहले यानी २७ जनवरी १९४८ को एक नोट में लिखा था कि अपने “वर्तमान स्वरूप में कांग्रेस अपनी भूमिका पूरी कर चुकी है, अतएव इसे भंग कर के एक ‘लोकसेवक संघ’ में तब्दील कर देना चाहिए ”। यह नोट एक लेख के रूप में ०२ फ़रवरी १९४८ को ‘महात्मा जी की अंतिम इच्छा और वसीयतनामा’ शीर्षक से ‘हरिजन’ में प्रकाशित हुआ था । यानी गांधीजी की हत्या के दो दिन बाद यह लेख उनके सहयोगियों द्वारा प्रकाशित कराया गया था । ‘हरिजन’ में यह शीर्षक गांधीजी की हत्या से दुःखी उनके सहयोगियों ने दे दिया था । इसी तरह से उन्होंने कांग्रेस का संविधान और स्वरुप दोनों बदल डालने के बावत स्वयं एक मसौदा २९ जनवरी की रात को तैयार किया हुआ था, जिसे उनकी हत्या के बाद कांग्रेस के तत्कालीन महासचिव- आचार्य युगल किशोर ने विभिन्न अखबारों को प्रकाशनार्थ जारी किया था । कांग्रेस के नाम गांधी जी की वसीयत कहा जाने वाला वह मसौदा इस प्रकार है- ‘‘भारत को सामाजिक, नैतिक व आर्थिक आजादी हासिल करना अभी बाकी है । भारत में लोकतंत्र के लक्ष्य की ओर बढ़ते समय सैनिक-सत्ता पर जनसत्ता के आधिपत्य के लिए संघर्ष होना अनिवार्य है । हमें कांग्रेस को राजनीतिक दलों और साम्प्रदायिक संस्थाओं की अस्वस्थ स्पर्द्धा से दूर रखना है । ऐसे ही कारणों से अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी मौजूदा संस्था को भंग करने और नीचे लिखे नियमों के अनुसार ‘लोक सेवक संघ’ के रूप में उसे विकसित करने का निश्चय करती है” ।
यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि गांधीजी अगले ही दिन यानि ३० जनवरी को अपनी प्रार्थना सभा में उस मसौदे पर सामूहिक चर्चा के साथ व्यक्तिगत रुप से कांग्रेस को भंग कर देने की घोषणा करने वाले थे, किन्तु दैव-दुर्योग से ऐसा कर नहीं सके , क्योंकि उसी दिन उनकी हत्या हो गई और उसके बाद कांग्रेस भंग होने के बजाय सत्ता के रंग में रंगाती रही । बाद में सन १९६९ में कांग्रेस का विभाजन हो गया । गांधीवादी कांग्रेसियों के ‘सिण्डिकेट’ से अलग हो कर नेहरुवादियों ने नेहरु की बेटी के नेतृत्व में ‘इन्दिरा कांग्रेस’ (कांग्रेस आई०) बना लिया । कालान्तर बाद ‘सिण्डिकेट कांग्रेस’ काल-कवलित हो गई और सत्ता से चिपकी रही ‘कांग्रेस-आई०’ बदलते समय के साथ अघोषित रुप से ‘सोनिया कांग्रेस’ में तब्दील हो कर नेहरु-इन्दिरा वंश की पालकी बन गई । अर्थात भारत में लोकतंत्र की स्थापना का दम्भ भरने वाली कांग्रेस के भीतर का लोकतंत्र मर गया और पारिवारिक वंशतंत्र उसका प्राण बन गया । सन २०१४ में हुए आम चुनाव के परिणामस्वरुप देश की केन्द्रीय सत्ता से बेदखल हो जाने और उसके बाद एक-एक कर अनेक राज्यों में भी सत्ता से दरकिनार हो जाने के पश्चात सिमटती गई यह कांग्रेस अब कायदे से विपक्ष कहलाने की अर्हता से भी वंचित हो गई । पतन-पराभव की ओर तेजी से ढलती कांग्रेस को राजनीति की धुरी पर फिर से स्थापित करने की जद्दोजहद के बीच इधर इसके नेतृत्व के द्वारा तरह-तरह के प्रयोग किये जाते रहे ; किन्तु राहुल गांधी को पार्टी-अध्यक्ष की कमान सौंपने और फिर प्रियंका वाड्रा को महासचिव बनाने जैसे ये सारे टोटके पुरुषार्थविहीन प्रयोग ही सिद्ध हुए , क्योंकि पार्टी परिवारवाद व वंशवाद की जकडन से मुक्त होने का साहस अब तक भी नहीं बटोर पायी । इन सब प्रयोगों के परिणाम आने बाकी ही थे कि इसी दौरान आम-चुनाव ने उसे फिर घेर लिया । इस बार का आम-चुनाव राष्ट्रीयता के उफान से भरा हुआ है, जिसमें अपने को टिकाये रखने के लिए कांग्रेस ने वोटों के लिए जिन-जिन ओटों का सहारा लिया है , वे सारे के सारे उत्थान के बजाय पतन के गर्त में ही धकेलने वाले सिद्ध हो रहे हैं । भारत को टुकडे-टुकडे करने का नारा लगाने वाले गिरोह एवं सनातन धर्म को नष्ट देने का अभियान चलाने वाले दल के साथ युगलबन्दी करने तथा भाजपा-मोदी-विरोध के नाम पर भारत-सरकार के विरुद्ध पाकिस्तान व चीन की ही वकालत करने लगने और अपने चुनावी घोषणा-पत्र में मुस्लिम आरक्षण की व्यवस्था कायम करने एवं निरस्त हो चुकी राष्ट्रघाती धारा ३७० को पुनः बहाल कर देने का वादा करने के साथ मतदाताओं को रिश्वत की तर्ज पर सालाना रुपये देने की पेशकस करने से कांग्रेस का बनावटी चरित्र भी विकृत हो कर अराष्ट्रीय व अभारतीय हो चुका है । ‘गांधी’ नामधारी परिणामतःसोनिया-प्रियंका-राहुल की इस फितरत के परिणामस्वरुप कांग्रेस के लोग ही अब कांग्रेस छोडते जा रहे हैं । उधर वर्षों से आयकर का भुगतान नहीं करने के मामले में कानूनी कार्रवाई करते हुए विभाग ने उसका बैंक-खाता जो ‘फ्रीज’ कर दिया है, उससे वह एक और संकट से घिर गई है । अब इधर संसदीय चुनाव-२४ में उसकी जो हालत है, सो किसी से छुपी हुई नहीं है कि वह सरकार बनाने के लिए अपेक्षित बहुमत भर सीटों पर चुनाव भी नहीं लड पा रही है । अन्य दलों से गठबन्धन कर के उन्हीं सहयोगियों के भरोसे बेसुरा ताल ठोंक रही है । पार्टी की सुप्रीमो सोनिया गांधी आम चुनाव का सामना करने और लोकसभा में जाने के बजाय राज्यसभा में चली गई हैं ; जबकि उनके पुत्र राहुल गांधी, जो एक प्रकार से अघोषित सुप्रीमों हैं और पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री के उम्मीदवार भी हैं, उन्हें कांग्रेस के सहयोगी दल भी गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं । कुल मिला कर कहें तो यह कि अब कांग्रेस देश की केन्द्रीय सत्ता हासिल करने के लिए नहीं, बल्कि भाजपा-एनडीए को उसके ३७०-४०० सिटों के लक्ष्य से पीछे धकेलने के लिए ही जोर लगा रही है , अन्यथा वह स्वयं कम से कम २७२ सिटों पर तो चुनाव अवश्य लडती । ऐसी अभूतपूर्व स्थिति में कांग्रेस-नेतृत्व ने चुनावी-घोषणापत्र जो जारी किया है, सो उसे उसकी बची-खुची स्वीकार्यता से भी दूर कर देने वाला प्रतीत हो रहा है ; क्योंकि उसमें कई ऐसी घोषणायें हैं, जो कांग्रेस को एक सम्प्रदाय-विशेष की सरपरस्ती करने के कारण ‘मुस्लिम लीग’ बना देती हैं, तो जाहिर है- देश का सामान्य नागरिक उसे अब सहज भाव से स्वीकार नहीं कर पा रहा है । जनता में अपनी स्वीकार्यता कायम करने के लिए कांग्रेस-नेतृत्व प्रतिद्वंदी भाजपा के विरुद्ध जिन-जिन हथकण्डों का इस्तेमाल करता रहा है, वे सब के सब इस कदर उल्टा पडते जा रहे हैं कि उनसे कांग्रेस को ही बचाव का रुख अख्तियार करना पड रहा है- चाहे वह उसके घोषणा-पत्र में वर्णित सम्पत्ति के सर्वेक्षण व पुनर्वितरण का मसला हो या दलित-मुस्लिम आरक्षण का मामला हो । जनता में अब यह बात घर कर चुकी है कि वर्तमान कांग्रेस वह कांग्रेस नहीं है , जो देश की सत्ता के संचालन की सामर्थ्य रखती हो । आज इसके चुनावी उम्मीदवार बुझे हुए मन से भाजपा का विजय-रोकने की मशक्कत करते दिख रहे हैं, तो इसके नीति-निर्धारक तारणहार भी कांग्रेस का अस्तित्व बचाए रखने के बावत ही इसके टुटे-उलझे सूत्रों को जाति-सम्प्रदाय-मजहब के विविध समीकरणों से जोडने-सुलझाने में लगे हुए हैं । साम्प्रदायिक तुष्टिकरण का समीकरण उन्हें आज भी सत्ता की सियासत का सबसे पैना उपकरण प्रतीत हो रहा है, लिहाजा वे इसे ही धार देने में लगे हुए हैं । जबकि, हालात ठीक इसके विपरीत है, क्योंकि अब तो भारत की सनातन संस्कृति व राष्ट्रीयता को अभिव्यक्त करने वाला हिन्दुत्व ही भारतीय राजनीति की धुरी बन गई है तथा यह राष्ट्रवाद ही आज की राजनीति का मुख्य स्वर बन चुका है ; तब ऐसे में इस वरेण्य सत्य की अनदेखी कर अवांछनीय चरित्र को वरण करना कांग्रेस के लिए आत्मघाती सिद्ध होने लगा है । इससे ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी ने कांग्रेस को भंग कर देने का जो प्रस्ताव प्रस्तुत किया था, उसे कांग्रेस-नेतृत्व ने तो ठुकरा दिया था– सत्ता-सुख भोगते रहने के लिए ; किन्तु ७५ वर्षों के बाद उसके क्रियान्वयन की दिशा में अब नियति ही उसे धकेलती जा रही है ।
• मई’ २०२४
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