मैकॉले से मुक्त हुए बिना, कांग्रेस-मुक्त भारत महज एक सपना

मैकॉले से मुक्त हुए बिना, कांग्रेस-मुक्त भारत महज एक सपना

कांग्रेसी कुशासन के विरूद्ध वर्ष २०११ से ही देश भर में शुरू हुए कांग्रेस-विरोधी आन्दोलन के साथ सम्पन्न संसदीय चुनाव के दौरान ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का जो नारा गूंज उठा, उसका शोर केन्द्र में सत्ता-परिवर्तन होने और देश के विभिन्न राज्यों में हुए विधान-सभा-चुनावों के दौरान कांग्रेस का अप्रत्याशित क्षरण होने के बावजूद आज भी सियासी फिजां में तैर ही रहा है । इस नारा से निर्मित जन-मत का प्रभाव कहिए या भाजपा के चमत्कारी नेता नरेन्द्र मोदी व अमित शाह के नेतृत्व का परिणाम; चुनावी प्रहार से कांग्रेस जिस कदर देश भर में घटती-सिमटती जा रही है, उसे देखते हुए बहुत जल्दी ही भारत के कांग्रेस से मुक्त हो जाने की सम्भावना प्रबल प्रतीत होती है । किन्तु , इस सम्भावना के साथ एक शंसय भी है और वह यह कि देश कांग्रेस के चंगुल से शायद वैसे ही मुक्त हो , जैसे अंग्रेजों से मुक्त हुआ ; अंग्रेजियत से नहीं । ऐसा इस कारण, क्योंकि अंग्रेजों से मुक्ति का आन्दोलन सन ४७ के सत्ता-हस्तान्तरण से थम गया तो ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ की अवधारणा भी उससे थोडा ही भिन्न, सत्ता-परिवर्तन के इर्द-गिर्द ही घुमती दीख रही है । किन्तु जिस तरह से गांधी जी का ‘स्वराज’ अंग्रेजियत से मुक्त हुए बिना प्राप्त होना सम्भव नहीं था, उसी तरह कांग्रेसियत से छुटकारा पाये बिना देश का कांग्रेस-मुक्त होना भी कतई सम्भव नहीं है । मेरी यह मान्यता निराधार नहीं है ।
दरअसल कांग्रेस जो है सो भाजपा की तरह भारत के जन-मन से उपजी हुई ‘देशज’ राजनीतिक पार्टी नहीं है , बल्कि अंग्रेजी औपनिवेशिक सत्ता द्वारा भारत को गुलाम बनाये रखने और गुलामी के विरूद्ध १८५७ सदृश भारतीय स्वाभिमान को कतई नहीं भडकने देने के साधन के तौर पर स्थापित ‘विदेशज’ सरंजाम का सियासी ध्वंशावशेष है । ध्यातव्य है कि कांग्रेस की स्थापना ए०ओ०ह्यूम ने इसी उद्देश्य से की थी । यह ए०ओ०ह्यूम भारत का हितैषी नहीं था, बल्कि सन १८५७ के स्वतंत्रता सग्राम को अपने क्रूर-कुटिल कारनामों से कुचल डालने वाला ब्रिटिश नौकरशाह था जिसके द्वारा निर्धारित कांग्रेसियत के अनुसार ब्रिटिश क्राउन के प्रति असंदिग्द्ध निष्ठा एवं अंग्रेजी बोलने-लिखने-पढने की सिद्धता कांग्रेस का सदस्य बनने की अनिवार्य शर्त थी । ऐसे अंग्रेजीदां लोगों के बौद्धिक वाग-विलास की ‘रंगशाला’ और अंग्रेजी शासन-विरोधी राष्ट्रीयता के खतरों से बचाव के बावत ‘सेफ्टी वाल्ब’ के तौर पर स्थापित कांग्रेस का प्रमुख ध्येय था- ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य की जयकारी करना और उस औपनिवेशिक गुलामी के विरूद्ध जनाकांक्षा-जनाक्रोश को विस्फोटक रूप लेने से पहले ही तिरोहित कर देना । इस सेफ्टी वाल्ब के निर्माण से पूर्व इसके घटक तत्वों अर्थात अंग्रेजीदां लोगों का एक समुदाय रचने और भारत-विरोधी सुविधाभोगी पश्चिमोन्मुखी मानसिक आकर्षण पैदा करने की भाव-भूमि गढने के निमित्त एक सोची-समझी रणनीति के तहत मैकाले-अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति कायम की गई थी । तब इसके प्रणेता थामस विलिंगटन मैकाले ने कहा था- “हमें भारत में ऐसा शिक्षित वर्ग तैयार करना चाहिए, जो हमारे और उन करोडों भारतवासियों के बीच , जिन पर हम शासन करते हैं, उन्हें समझाने-बुझाने का काम कर सके ; जो केवल खून और रंग की दृष्टि से भारतीय हों किन्तु रुचि , भाषा व भावों की दृष्टि से अंग्रेज हों ”। मैकाले के इस षड्यंत्रकारी उपाय की सराहना करते हुए ब्रिटिश इतिहासकार- डा० डफ ने अपनी पुस्तक “ लौर्ड्स कमिटिज-सेकण्ड रिपोर्ट आन इण्डियन टेरिट्रिज- १८५३” के पृष्ठ- ४०९ पर लिखा है – “ मैं यह विचार प्रकट करने का साहस करता हूं कि भारत में अंग्रेजी भाषा व साहित्य को फैलाने तथा उसे उन्नत करने का कानून भारत के भीतर अंग्रेजी राज के अब तक के इतिहास में कुशल राजनीति की सबसे जबर्दस्त चाल मानी जायेगी ” । आगे इस अंग्रेजी-शिक्षापद्धति की वकालत करते हुए मैकाले के बहनोई- चार्ल्स ट्रेवेलियन ने एक बार ब्रिटिश पार्लियामेण्ट की एक समिति के समक्ष ‘भारत की भिन्न-भिन्न शिक्षा-पद्धतियों के भिन्न-भिन्न राजनीतिक परिणाम’ शीर्षक से एक लेख प्रस्तुत किया था, जिसका एक अंश उल्लेखनीय है- “ अंग्रेजी भाषा-साहित्य का प्रभाव अंग्रेजी राज के लिए हितकर हुए बिना नहीं रह सकता ……. हमारे पास उपाय केवल यही है कि हम भारतवासियों को युरोपियन ढंग के विकास में लगा दें …..इससे हमारे लिए भारत पर अपना साम्राज्य कायम रखना बहुत आसान और असंदिग्द्ध हो जाएगा ”। उस युरोपियन ढंग के विकास का पहला सोपान थी कांग्रेस ।
जाहिर है , बीज के अनुरूप ही वृक्ष होता है । कांग्रेस में राष्ट्रवादियों की कभी नहीं और कुछ भी नहीं चली । महात्मा गांधी के महात्म का इस्तेमाल भर किया गया , जिसके सहारे कांग्रेस का सर्वेसर्वा बन बैठे नेहरू और माउण्ट बैटन के बीच हुई दुरभिसंधि के तहत १४-१५ अगस्त की रात के अंधेरे में ‘ब्रिटिश कामनवेल्थ’ के अन्तर्गत ‘डोमिनियन स्टेट’ के सत्ता-हस्तान्तरण की रस्म-अदायगी के साथ सत्तासीन हुई कांग्रेस भारत को अंग्रेजों का ‘इण्डिया’ नामक उपनिवेश बनाए रखने वाली उसी षड्यंत्रकारी शिक्षा-पद्धति को जे०एन०यु०-स्तर तक विकसित करती रही और देशवासियों को युरोपियन ढंग के विकास का सब्जबाग दिखाती रही ।
जी हां , कांग्रेस की जड इसी मैकाले अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति के भीतर है , जिसने हमारी पीढियों को राष्ट्र व संस्कृति की जडों से काट दिया, व्यक्तियों को भ्रष्ट नकलची व पश्चिमोन्मुख बना दिया और राष्ट्रीय चरित्र-चिन्तन व मूल्यों को तार-तार कर दिया । भारतीय संस्कृति व भारतीय राष्ट्रीयता की जडों में मट्ठा डालते रहने वाली कांग्रेस और उसके सिपहसालारों का ऐसा अभारतीय व अराष्ट्रीय चरित्र गढने वाली यह अंग्रेजी शिक्षा-पद्धति ही है , जिसकी सीख-समझ, तमीज व तहजीब आय दिनों जे०एन०यु० से ले कर जामिया-मिलिया तक भारत की बर्बादी और गोमांस-भक्षण व पशुवत जीवन की आजादी के लिए बौद्धिक वकालत के तौर पर मुखर होते रहती है । भारत कोई राष्ट्र नहीं है तथा बहुसंख्यक भारतवासी आर्य विदेशी हैं और भारत का इतिहास ईसा व मोहम्मद के बाद से ही शुरू होता है , प्राचीन भारतीय ग्रन्थ-शास्र, रीति-रिवाज, मान्यतायें-परम्परायें, भाषा-साहित्य सब बकवास हैं और युरोप-अमेरिका की हर चीज ही हर मायने में श्रेष्ठ है ; ऐसा अज्ञानतापूर्ण ज्ञान देने वाली यह मैकॉले शिक्षा-पद्धति ही है, जिसकी अवांछित घूंटी पिये हुए लोग स्वयं को ‘हिन्दू’ कहने , भारत-भूमि को ‘भारत माता’ व गाय को ‘गो-माता’ मानने तथा पितरों-पूर्वजों का सम्मान करने से कतराते हैं और राम-जन्मभूमि पर अस्पताल बनाने की वकालत करते रहे हैं एवं विश्वविद्यालयों में ‘बीफ-फेस्टिबल’ मनाते रहे हैं । हिन्दुस्तान टाइम्स के एक सर्वेक्षण में बताया गया कि हमारे देश के साठ प्रतिशत से अधिक शहरी शिक्षित नवजवान भारत छोड विदेशों में बस जाना चाहते हैं, क्योंकि यहां उन्हें बेहतर ‘कैरियर’ की सम्भावनायें नहीं दीख रही होती हैं । प्राचीन भारतीय शिक्षा-पद्धति की पुनर्स्थापना के लिए आन्दोलन चला रहे एक प्रखर शिक्षाविद की मानें, तो ऐसे लोगों पर इस मैकॉले पद्धति की शिक्षा का नशा कुछ ज्यादा ही छाया हुआ है , जो पूरी तरह से अंग्रेज बन जाने और देश के विलायतीकरण को ही विकास मानते हैं । मैकॉले पद्धति की शिक्षा से पगलाये-बौराये हमारे देश के जन-मानस में ‘विकास’ के सर्वोत्कृष्ट भारतीय जीवन-दर्शन ‘धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष’ की न समझ है , न कोई स्थान । इन्हें सुख-भोग-धन-साधन व मुफ्तखोरी चाहिए , जिसके लिए केजरीवाल जैसे धूर्त पाखण्डी को भी सत्ता सौंप देने वाले ये लोग अच्छे कार्यों के बावजूद वाजपेयी जी की निकासी और सोनिया-कांग्रेस की पुनर्वापसी को आगे भी दुहरा दें तो कोई आश्चर्य नहीं । इस शिक्षा-पद्धति ने न केवल हमारी सभ्यता-संस्कृति व रीति-नीति का ही , बल्कि अधिसंख्य देशवासियों के बोल-चाल , रहन-सहन , खान-पान , खेल-कूद , सोच-विचार , कार्य-व्यापार तक का भी जो अंग्रेजीकरण व उपनिवेशीकरण कर रखा है, सो वास्तव में कांग्रेसियत ही है , जिसका विस्तार इतना व्यापक और सूक्ष्म है कि इससे भाजपा जैसी देशज राजनीतिक पार्टी भी पूरी तरह मुक्त नहीं है । भाजपा के अनेक नेताओं की कथनी-करनी व चाल-चलन जहां कांग्रेसियत से भी ज्यादा औपनिवेशिक है, वहीं कांग्रेस के अनेक बडे-बडे नेता अब धडल्ले से भाजपा में शामिल हो पद व सम्मान पा रहे हैं ।
विष-वृक्ष को काट-पीट कर उसका सफाया कर देना पर्याप्त नहीं होता, जब तक उसे खाद-पानी देते रहने वाली उसकी जड-मूल को नष्ट न कर दिया जाय । ऐसे में जरूरत है कि अभारतीय सोच-समझ-युक्त कांग्रेसियत का निर्माण करने वाली मैकाले शिक्षा-पद्धति को उखाड कर भारतीय जीवन-दर्शन की शिक्षा-पद्धति स्थापित की जाए , तभी सही अर्थों में स्थायी तौर पर ‘कांग्रेस-मुक्त भारत’ का निर्माण हो सकेगा , अन्यथा सिर्फ सत्ता-परिवर्तन होने से तो यह महज एक सपना बन कर ही रह जाएगा ; ठीक उसी तरह से जिस तरह से ; ‘हिन्द-स्वराज’ या ‘रामराज’ एक सपना ही रह गया ।
• नवम्बर’२०२३