हिन्दू-विरोधी रिलीजियस विस्तारवाद की विघटनकारी योजना से द्रविड-आन्दोलन ‘टाईम-बम’ बना

हिन्दू-विरोधी रिलीजियस विस्तारवाद की विघटनकारी योजना से
द्रविड-आन्दोलन ‘टाईम-बम’ बना
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काल के प्रवाह से युरोप में स्थापित व अमेरिका में विकसित हुई असुरों की एक तथाकथित सभ्यता के लोगों ने अपनी श्वेत चमडी की स्वघोषित श्रेष्ठता सिद्ध करने तथा जिसस क्राईस्ट नामक एक असामान्य व्यक्ति को ‘ईश्वर का इकलौता पुत्र’ घोषित कर के उसके नाम से क्रिश्चियनिटी नामक ‘रिलीजन’ स्थापित कर स्वयं को उसका उत्तराधिकारी घोषित करते हुए उसी आधार पर पूरी पृथ्वी का स्वामित्व हासिल कर लेने की षड्यंत्रकारी योजना के तहत उपनिवेशवादी रिलीजियस विस्तारवाद का जो अभियान चलाया, उससे पूरी दुनिया दमित-पीडित हो चुकी है । किन्तु , असुरता के मार्ग में सदैव ही धार्मिकता की चुनौतियां पेश करता रहा धर्मधारी भारत राष्ट्र तो आज भी उसके निशाने पर डटा हुआ है, जिसे जीत लेने के बावत उन विस्तारवादी रिलीजियस शक्तियों के द्वारा एक से एक बौद्धिक-सांस्कृतिक षड्यंत्र दर षड्यंत्र क्रियान्वित किये जाते रहे हैं । भारत के समरस वृहतर समाज के भीतर ‘आर्य’ बनाम ‘द्रविड’ नामक विभाजनकारी स्थापना कायम करना तथा ‘आर्य-आब्रजन’ का सुविधाजनक फर्जी सिद्धांत प्रतिपादित करना और द्रविडता को क्रिश्चियनिटी के आवरण से आवृत करना ऐसे ही षड्यंत्र हैं, जिन्हें क्रियान्वित करने के लिए विविध प्रकार के अनेकानेक प्रपंच स्थापित-प्रचारित किये जाते रहे हैं । पश्चिम (युरोप-अमेरिका) का नस्ल विज्ञान , भाषा विज्ञान , पुरातत्व विज्ञान व भूगर्भ विज्ञान ऐसे ही परस्पर पूरक-सहायक प्रपंच हैं, जो विभिन्न धार्मिक समाजों-सभ्यताओं की अस्मिता-मौलिकता (मूल पहचान) रचने-गढने तथा उन्हें विभाजित करने और अन्ततः उन्हें उक्त रिलीजन के सांचे में ढालने के उपकरण (टूल-कीट) के तौर पर ईजाद किये गए हैं ।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी के कंधे पर सवार हो कर भारत आये रिलीजियस विस्तारवाद के झण्डाबरदारों के उपरोक्त षड्यंत्र-प्रपंच कितने गहरे व कितने व्यापक हैं और एक-दूसरे से कितने अभिन्न हैं, इसका सहज अनुमान आप इसी एक तथ्य से लगा सकते हैं कि फ्रांसिस वाइट एलिस नामक ब्रिटिश सिविल एडमिंस्ट्रेटर (तत्कालीन मद्रास जिला के कलक्टर) ने दक्षिण भारतीय भाषाओं को एक पृथक भाषा-परिवार में वर्गीकृत करने का प्रस्ताव पेश किया तो उसी के तत्सम्बन्धी एक शोध-पत्र को आधार बना कर अलेक्जेण्डर डी० कैम्पबेल (मद्रास कॉलेज ऑफ फॉर्ट सेण्ट जॉर्ज के सुपरिण्टेण्डेण्ट) नामक ब्रिटिश नौकरशाह ने तेलगू भाषा का व्याकरण लिख कर यह स्थापित-प्रचारित कर दिया कि यद्यपि तमाम भारतीय भाषायें संस्कृत से उपजी हुई हैं, तथापि दक्षिण भारतीय भाषाओं- तमिल तेलगू कन्नड मलयालम का संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है । मालूम हो कि एलिस ने ही वर्ष 1816 में अलेक्जेंडर डंकन कैंपबेल के तेलुगु व्याकरण के लिए "नोट टू इंट्रोडक्शन" लिखा था, जिसमें उसने दक्षिण भारतीय भाषाओं के एक अलग ‘भाषा परिवार’ बनाने वकालत की थी ।
फिर तो ऐंलिकन चर्च के रॉबर्ट कॉल्ड्वेल नामक मिशनरी पादरी-विशप ने कुमारिल भट्ट नामक महान विद्वान ब्रह्मण-रचित संस्कृत-ग्रंथ ‘तंत्र वर्तिका’ में प्रयुक्त हुए ‘द्रविड’ शब्द के आधार पर दक्षिण भारतीय भाषाओं के लिए ‘द्रविडियन’ शब्द गढ कर उन्हें संस्कृत-परिवार से बाहर उस ‘हिब्रू’ भाषा के निकटस्थ घोषित कर दिया, जो बाइबिल की मूल भाषा है । वही कॉल्ड्वेल, जिसने वर्ष 1856 में ‘द्रविड भाषाओं , अर्थात दक्षिण भारतीय भाषा-परिवार का तुलनात्मक व्याकरण’ (ए कॉम्परेटिव ग्रामर ऑफ द्रवीडियन लैंगुएज ऑर साउथ इण्डियन फैमिली लैंगुएज) लिख कर ‘द्रविड’ को विश्व का एक प्रमुख ‘भाषा समूह’ होने का दावा पेश कर दिया । इस पुस्तक से उसने हिन्दू-धर्म-समाज में ‘द्रविड-पृथकतावाद’ के लिए धर्मशास्त्रीय आधार स्थापित कर दिया और उसके साथ ही चर्च-मिशनरियों के हाथ में हिन्दू आध्यात्मिकता से तमिलों को असम्बद्ध कर उनके ख्रिस्तीकरण (ईसाइकरण) को नैतिक सिद्ध करने का तर्क प्रदान कर दिया ।
यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि ब्रिटिश ईस्ट इण्डिया कंपनी के कारिंदों और चर्च के विशपों-पादरियों को दक्षिण भारत के किसी भाषा का व्याकरण लिखने और तमाम दक्षिण भारतीय भाषाओं के संस्कृत से संबंध-विच्छेद करने की जरूरत आखिर क्यों पड़ी ? जाहिर है – उन भारतीयों की एक पृथक सभ्यता के तौर पर पृथक पहचान गढ़ने तथा आर्य-वैदिक-हिन्दू धर्म-सभ्यता-संस्कृति से उन्हें अलग-थलग करने और उन्हें रिलीजन, अर्थात क्रिश्चियनिटी के आवरण से आवृत करने के लिए । दरअसल, एलिस-कैम्पबेल की पुस्तक ने ही भारत के आन्तरिक सामाजिक राजनीतिक ढांचों में बाद के युरोपियन-अमेरिकन रिलीजियस हस्तक्षेप के लिए दरवाजा खोल दिया । बाद में उसी दरवाजे से मैक्समूलर जैसे भाडे के अनुवादक, जिसने वेदों का मनमाना अनुवाद कर एक सुनियोजित अनर्थ बरपाया, उसके साथ पश्चिमी ‘नस्लविज्ञान’ का प्रवेश हुआ; जो समूचे दक्षिण भारत में आर्य बनाम द्रविड, उतर बनाम दक्षिण, गोरे बनाम काले और ब्राह्मण बनाम गैर-ब्राह्मण के नाम पर सामाजिक-राजनीतिक विभाजन का विष-वमन करते हुए ‘द्रविड आन्दोलन’ ही खडा कर दिया । कालान्तर बाद उद द्रविड-न्दोलन के सम्बन्ध में मदुरै के आर्कबिशप ने 1950 के दशक में अपनी पुस्तक में लिखा था, द्रविड़ आंदोलन ‘टाईम बम’ है, जिसे चर्च ने हिंदू धर्म को नष्ट करने के लिए तमिलनाडु में लगाए रखा है ।
सचमुच वह ‘द्रविडवाद’ एक प्रकार का ‘टाईम बम’ ही था, जो दक्षिण भारत में अब रह रह कर विस्फोट कर रहा है । तमिलनाडू राज्य की सरकार के एक मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने सार्वजनिक रुप से यह घोषणा कर रखी है कि “सनातन धर्म को नष्ट करना है, क्योंकि यह एक बीमारी है और यह भी कि द्रविड आन्दोलन की शुरुआत सनातन धर्म को नष्ट करने के लिए ही हुई थी ।” दरअसल तमिलनाडू में सनातन धर्म एवं ब्राह्मण वर्ण और हिन्दी भाषा का विरोध लगभग एक सौ वर्ष पहले से ही होता रहा है तथा इसके पीछे चर्च-संचालित ‘आर्य-द्रविड-विभेद आधारित राजनीति की पृष्ठ्भूमि कायम रही है, जिसकी शुरुआत ई०वी० रामासामी पेरियार की अगुवाई में हुई थी और अन्नादुरई ने उसे ‘द्रविड आन्दोलन’ के रुप में राजनीतिक आकार-विस्तार प्रदान किया था । अगर उस मंत्री के उपरोक्त बयान पर गौर करें , तो उसमें भी उसी राजनीति की छाप दिखाई पडती है । उदयनिधि स्टालिन ने चेन्नई में एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था- “कुछ चीजें ऐसी हैं, जिन्हें हमें सिर्फ खत्म करना है, केवल विरोध नहीं । मच्छर डेंगू कॉरोना व मलेरिया ऐसी चीजें हैं, जिनका हम केवल विरोध नहीं कर सकते, उन्हें तो हमें खत्म ही कर देना चाहिए । सनातन धर्म भी ऐसी ही चीज है , सनातन का विरोध नहीं बल्कि उसका उन्मूलन ही कर देना हमारा पहला काम है ।” इतना ही नहीं, उसने यह भी कहा कि “हम अपनी बात पर कायम हैं और किसी भी कानूनी चुनौती का सामना करने के लिए तैयार हैं. हम द्रविड़ भूमि से सनातन धर्म को हटाने के लिए प्रतिबद्ध हैं और इससे एक इंच भी पीछे नहीं हटने वाले.”
गौरतलब है कि आज के दक्षिण भारत में सक्रिय वहां की दोनों राजनीतिक पार्टियों- डी०एम०के०(द्रविड मुन्नेत्र कडगम) और ए०आई०डी०एम०के० (अखिल भारतीय द्रविड मुन्नेत्र कडगम) की राजनीति ‘गैर-ब्राह्मणवाद’ नामक एक ऐसी विभाजक अवधारणा पर टिकी हुई है, जिसका उद्देश्य चर्च की उस विभाजनकारी योजना को क्रियान्वित करना है, जिसके निशाने पर भारत राष्ट्र व सनातन धर्म एवं वृहतर हिन्दू समाज ; तीनों एक साथ हैं । मालूम हो कि ईसाई-विस्तारवाद के विभिन्न झण्डाबरदारों द्वारा ‘आर्य-द्रविड’ विभाजन का बीजारोपण कर देने के पश्चात उनके राजनीतिक अभिकर्ताओं ने अंग्रेजी शासन-विरोधी स्वतंत्रता-आंदोलन के दौरान ही दक्षिण भारत के तमिलनाडू प्रदेश को भारत से पृथक पाकिस्तान की तर्ज पर ‘द्रविडस्तान’ नामक अलग देश बनाने का एक आन्दोलन चलाया हुआ था , जो आज भी किसी न किसी रूप में छद्म तरीके से चल ही रहा है । वहां की दोनों मुख्य राजनीतिक पार्टियां (डीएमके व एआईडीएमके) चर्च-मिशन की ‘आर्य-द्रविड’ विभाजक नीतियों से युक्त एक ही वैचारिक पृष्ठभूमि की ऊपज हैं ; जो ब्राह्मण, संस्कृत व हिन्दी के विरोध का स्थाई अभियान चलाते रहती हैं और भारत राष्ट्र के विखण्डन एवं भारतीय राष्ट्रीयता, अर्थात सनातन धर्म के उन्मूलन को प्रवृत दिखती हैं । उदयनिधि की उपरोक्त घोषणा से रिलीजियस (ईसाई) विस्तारवादी शक्तियों की यह गुप्त योजना एक बार फिर प्रकट हुई है । राज्य सरकार का एक मंत्री अगर खुलेआम ऐसी घोषणा करता हो, तो इससे यह समझा जा सकता है कि वहां के सरकारी तंत्र का इस्तेमाल सनातन हिन्दू धर्म-समाज के विरुद्ध किस कदर होता रहा होगा और आगे भी किस बेशर्मी से होता रहेगा ।
राज्य की शासनिक सत्ता का ऐसा सहयोग-संरक्षण पा कर वेटिकन-संचालित चर्च-मिशनरियों के तमाम तमिल प्यादे-पादरी सब अति उत्साहित हैं । उनका यह कहना-मानना अब तो बिल्कुल सही प्रतीत होता है कि “द्रविड-आंदोलन ‘टाईम बम’ है- हिन्दुत्व के खिलाफ ।” जाहिर है, इस ‘टाईम बम’ का निर्माण मैकॉले-मैक्समूलर-कॉल्ड्वेल व विलियम जोन्स की चौकडी द्वारा उत्पादित आर्य-द्रविड विभेदों एवं भाषा विज्ञान व नस्ल विज्ञान के अनर्थकारी सिद्धांतों की दुरभिसंधि से हुआ है । इसका संचालन-सूत्र (रिमोट कण्ट्रोल) वेटिकन-संचालित चर्च के बुद्धिबाजों की उस चौकड़ी के हाथों में है , जिसने ‘आर्य-द्रविड’ विभेद पैदा कर समूचे दक्षिण भारत में आर्य-वैदिक-हिन्दू धर्म-संस्कृति के विरुद्ध ‘द्रविड-आंदोलन’ नामक ‘ख्रिश्चियन-विस्तारवाद’ का अभियान चला रखा है और इस बावत उपरोक्त दोनों राजनीतिक पार्टियों के नेतृत्व को अपना हस्तक बना रखा है । तथाकथित ‘द्रविड आन्दोलन’ के प्रणेता पेरियार व अन्ना दुरई हों, या उनके बाद उसे राजनीतिक विस्तार देने वाले करुणानिधि व जे०जयललिता अथवा उनके उतरवर्ती मुख्यमंत्री- एम०के०स्टालिन या मंत्री उदयनिधि स्टालिन , सभी उस वेटिकन सिटी से संचालित चर्च के हस्तक ही रहे हैं । यही कारण है कि तमिलानाडू में चर्च-मिशनरियों के कारिंदों की तूती बोलती है और उनकी जुबान धर्म (सनातन) के विरुद्ध सदैव घृणा उगलती रहती है ।
तमिलनाडू में हजारों चर्च स्थापित करने वाला एक विशप- एजरा सरगुनम , जो अभी हाल ही में दिवंगत हो चुका है, वह सनातन के आराध्य देवताओं को ‘शैतान’ कहने और हिंदुओं के जबरन ‘ख्रिस्तीकरण’ (ईसाइकरण) की सार्वजनिक वकालत करता रहा था । ‘स्वराज’ पत्रिका को दिए एक साक्षात्कार में उसने समूचे तमिल प्रदेश भर में पांच लाख चर्च खड़ा करने और करोड़ों तमिल हिंदुओं को ख्रिश्चियन बना डालने के आरोपों को सगर्व स्वीकार किया हुआ है । यह वही सरगुनम नामक विशप था , जो एक बार ‘प्रयागराज-कुम्भ’ में जा कर धर्म (सनातन) के विरुद्ध घृणा से युक्त क्रिश्चियनिटी की पुस्तिकाएं वितरित करने की हिमाकत कर चुका है । बकौल ‘स्वराज्य’ , उसकी ‘ट्रेनिंग’ उस बिली ग्राहम नामक अमेरिकी पादरी के अधीन हुई थी, जो डार्विन के जैवीय विकास सिद्धांत का विरोधी था, और यहूदियों के खिलाफ नस्लवादी प्रतिपादनों के लिए बदनाम था । सरगुनम कोई सामान्य मिशनरी मात्र नहीं था , अपितु तमिलानाडू प्रदेश की राजनीति का एक प्रभावकारी सौदागर था , जो वहां की सरकारों को बनाने-गिराने की शतरंजी बिसात बिछाने में भी सक्रिय रहा था । धर्म (सनातन) के विरुद्ध राजनीति का ‘रिलीजियस’ इस्तेमाल करते रहने में चर्च-मिशन के ऐसे एक नहीं, अनेक पादरी विशप आज भी सक्रिय हैं , जिनमें पादरी जगत गॉस्पर का नाम भी खासा उल्लेखनीय है । इन तमाम कैथोलिक पादरियों का सीधा संबंध ‘द्रविड मुन्नेत्र कड़गम (द्रमुक) से है और उस पर इनका ऐसा जबरदस्त प्रभाव है कि द्रमुक जब-जब सत्तासीन होती रही है , तब-तब धर्म (सनातन) पर शासनिक प्रहार के नये-नये रुपों-नुस्खों का ईजाद होते रहा है । मन्दिरों से टैक्स वसुलने तथा चर्चों को सरकारी खजाने से अनुदान देने जैसे सरकारी फरमान और बाइबिल-वर्णित ‘एडम’ (कथित रुप से दुनिया का पहला आदमी) को तमिल-भाषी बताने जैसे स्कूली पाठ्यक्रम का निर्माण ऐसे ही नायाब नुस्खें हैं । चर्च-संचालित शिक्षण-संस्थानों के लिए सरकारी अनुदान और उन शिक्षण-संस्थानों से हिन्दुओं के धर्मोन्मूलन एवं ख्रिस्तिकरणकरण का अभियान भी इसी फेहरिस्त में शामिल है । चर्च के द्वारा सरकारी अनुदान से ऐसे प्रकाशन-संस्थान भी चलाये जाते हैं, जो तमिलों को भाषाई षड्यंत्र के सहारे क्रिश्चियनिटी की ओर आकर्षित करने और धर्म (सनातन) के प्रति घृणा भाव भरने की विभेदकारी प्रायोजित सामग्रियों से सराबोर साहित्य का प्रसार करते हैं । इन सब कामों में सक्रिय जगत गॉस्पर की अवज्ञा करने का दुस्साहस न द्रमुक-नेता कर पाते हैं, न अन्नाद्रमुक वाले ।
ऐसा ही एक पादरी- मोहन सी बजारस तो सनातन धर्म को मिटा देने की घोषणा करने वाले उदयनिधि स्टालिन का दोस्त ही है, जो जन्म से हिन्दू था ; किन्तु चर्च-मिशन के प्रभाव से ख्रिश्चियनिटी अपना कर पादरी बन जाने के बाद भोले-भाले तमिलों को जीसस क्राईस्ट के फर्जी चमत्कार दिखा-दिखा कर ख्रिश्चियन बनाने का अभियान चला रखा है । अपने इस अभियान के लिए उसने एक सोची-समझी रणनीति के तहत प्राचीन हिन्दू-तीर्थस्थल- ‘तिरुचेण्डुर’ के बगल में ही अपना दफ्तर खोल रखा है , जहां स्टालिन जैसे लोगों की बैठकें हुआ करती हैं । तमिलनाडू में मन्दिरों की व्यापक व्याप्ति से परेशान ये तमाम पादरीगण इसी कारण से इस प्रदेश को ‘शैतान का गढ’ कहा करते हैं और सनातन को मिटा डालने का राग आलापते रहते रहते हैं और स्टालिन जैसे नेता उनके साथ सुर में सुर मिलाते रहते हैं ।
दरअसल तमिलानाडू जो है, सो वस्तुतः सनातन धर्म व हिन्दुत्व का गढ़ है , इसीलिए आसुरी शक्तियों में इसे जीत लेने की आतुरता व्याप्त है ; जबकि इसे उनकी जद में जाने से बचाए रखना देव-शक्तियों की भी अनिवार्य अपरिहार्यता है- सनातन की अक्षुण्णता के लिए । ऐसा इस कारण क्योंकि तमिलानाडू भारतवर्ष का एक ऐसा प्रदेश है, जहां भारत राष्ट्र व सनातन धर्म की वे तमाम सांस्कृतिक धार्मिक आध्यात्मिक विरासतें व सनातन ज्ञान-विज्ञान की प्राचीन परम्पराएं आज भी मूल रूप में सुरक्षित हैं, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं । अरबिया-मुगलिया आक्रमणों के कारण उत्तर भारत में मठ-मंदिरों का विध्वंस होते रहने से ज्ञान-विज्ञान के जो स्रोत नष्ट-भ्रष्ट हो गए , सो प्रायः सब के सब आज भी तमिलानाडू में सुरक्षित हैं । श्री विष्णु जी के वराह अवतार एवं नृसिंह अवतार की पूजा-परंपरा शेष भारत में जहां लुप्त हो चुकी हैं, वहीं दक्षिण भारत में आज भी प्रचलित हैं । सैकड़ों वर्षों के उपरांत अभी हाल ही में काशी के जगत-प्रसिद्ध विश्वनाथ मंदिर में ‘कुंभाभिषेकम’ का आयोजन किये जाने के दौरान वहां के आचार्यों-पुरोहितों को इसकी विधि का ज्ञान देने वाला कोई साहित्य नहीं मिला, तब तमिलनाडू से ही एक आचार्य को ले जा कर उस प्राचीन परंपरा को वहां पुनर्जीवित करायी गई । इतना ही नहीं ; चिदंबरम नटराज सहित पंचमहाभूतों में से चार पंचभूत-स्थल एवं दिव्य हिमाचलम तो आज भी तमिलानाडू में ही हैं, जिनका महत्व सनातन में शीर्ष पर है । तमिलानाडू की इस प्राचीनता के व्यापक प्रभाव से उसके आसपास के सभी दक्षिण भारतीय भाषाई प्रदेशों, यथा- कन्नड (कर्नाटक) तेलगु (आंध्र-तेलंगाना) मलयालम (केरल) भी प्रभावित होते ही रहते हैं । ऐसे में जाहिर है- देवासुर संग्राम के प्रथम निशाने पर आ चुके तमिल प्रदेश के भीतर हिन्दू सनातन धर्म के विरुद्ध उठ रही आवाजों को हल्के में लेना काफी खतरनाक सिद्ध होगा , क्योंकि रिलीजियस विस्तारवादी शक्तियों द्वारा प्रक्षेपित सामाजिक ‘टाईम बम’ अब रह-रह कर विस्फोट करने लगा है ।
• मई ' 2025