ब्रिटिश विधानों का उन्मूलन और वैश्विक न्यायाधीश का चयन भारत-पुनरुत्थान का विधिक क्रियान्वयन

ब्रिटिश विधानों का उन्मूलन और वैश्विक न्यायाधीश का चयन
भारत-पुनरुत्थान का विधिक क्रियान्वयन
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विधि क्षेत्र की दो घटनायें ध्यातव्य हैं । पहली यह कि भारत की भाजपा-मोदी-सरकार ने अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन का हितरक्षण करने वाली ब्रिटिश पार्लियामेण्ट से पारित उन तीनों विधि-संहिताओं को वर्ष २०२३ में निरस्त कर दिया, जो वर्ष १८५७ के ‘अंग्रेज-विरोधी समर’ की प्रतिक्रिया के फलस्वरुप निर्मित की गई थीं और तब से ‘हम भारत के लोग’ न्याय के लिए उन्हीं का मोहताज हुआ करते थे । और, दूसरी यह कि वैश्विक न्यायालय (इण्टरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस) में भारत के दलवीर सिंह भण्डारी ने ब्रिटिश प्रत्याशी को पीछे धकेल कर नौ वर्ष के लिए (२०२६ तक) हुए न्यायाधीश पद का चुनाव जीत लिया है । मालूम हो कि ब्रिटिश पार्लियामेण्ट से पारित हो कर भारतीय प्रजा को दण्डित करने वाली ‘इण्डियन पिनल कोड (भारतीय दण्ड संहिता)१८६०’ व ‘इण्डियन एविडेन्स एक्ट (भारतीय साक्ष्य अधिनियम)१८७२’ एवं ‘क्रिमिनल प्रोसिड्यर कोड (दण्ड प्रक्रिया संहिता)१८८२’ अब इतिहास की वस्तु बन चुकी हैं । जैसा कि इनके नाम से स्पष्ट है- ये केवल अंग्रेजी राज के हित में भारतीय प्रजा को दण्डित करने वाले कानून थे । जाहिर है- इनमें न्याय का कोई प्रावधान ही नहीं था; क्योंकि ब्रिटिश-अंग्रेज हुक्मरानों द्वारा इनकी रचना भारतीयों को सिर्फ दण्ड देने के लिए ही की गई थी, ताकि उनका राजपाट निर्बाध चलता रहे । वर्ष १९४७ में हुए सत्ता-हस्तान्तरण के बाद ब्रिटिश-हस्तक राजनेताओं ने भारत की न्यायपालिका में इन्हीं दण्डविधानों को प्रतिस्थापित कर दिया था । लेकिन तभी से देश की न्याय-व्यवास्था में सुधार लाने; अर्थात इसे ‘दण्डपालिका’ से ‘न्यायपालिका’ में तब्दील करने और न्याय को सर्वशुलभ व सहज-प्राप्य बनाने की मांग तो होती ही रही थी, इसकी आवश्यकता भी महसूस की जा रही थी । परंतु अंग्रेजी राज की हस्तक बनी रही कांग्रेसी सरकारें इसी तथाकथित न्यायव्यवस्था, अर्थात औपनिवेशिक दण्ड्व्यवस्था को बनाये रखने पर ही एक प्रकार से अडी हुई थीं, जो अब ध्वस्त हो चुकी है । कांग्रेसी सरकार की औपनिवेशिक ब्रिटिशपरस्ती का आलम यह था कि ब्रिटेन के सम्राट को भारतीय न्यायालयों के किसी भी निर्णय की समीक्षा करने का अधिकार देने वाला कानून भी वह यथावत संजोय रखी थी, जिसे भाजपा-मोदी सरकार ने उसे स्वतंत्र संप्रभु भारत में ब्रिटेन के अनुचित-अनावश्यक हस्तक्षेप करार देते हुए एक झटके में रद्द कर दिया । जाहिर है- भारत की भाजपा-मोदी-सरकार का यह कदम और देश की न्यायिक व्यवस्था में यह परिवर्तन युगान्तरकारी है और भारत-पुनरुत्थान के प्रवाह की ही परिणति है ।
तो अब मालूम हो कि भारत की राष्ट्रवादी भाजपा-मोदी सरकार ने ‘इण्डियन पिनल कोड (आईपीसी/ भा०द०वि०सं०) १८६०’ को निरस्त कर उसके बदले भारतीय न्याय संहिता २०२३’ लागू कर दिया है, जिसमें आईपीसी की ५११ धाराओं के बजाय महज ३५८ धाराओं का ही प्रावधान किया गया है । जाहिर है- आईपीसी की उन १५३ धाराओं को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया है, जो ‘इण्डिया दैट इज भारत’ के संविधान में वर्णित ‘हम भारत के लोगों’ को अकारण ही परेशान करने, या यों कहिए कि दण्डित करने के लिए कायम थीं । इसके साथ ही इस नवनिर्मित-पारित न्याय-संहिता की तमाम धाराओं को भारतीय न्याय-दर्शन के अनुकूल रचा-गढा गया है ; जबकि इससे पहले वाली आईपीसी की तो रचना ही ब्रिटेन की जरुरतों और ब्रिटिश हुक्मरानों की सुविधाओं के अनुसार की हुई थी । इसी तरह से ‘दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी०) को निरस्त कर उसके बदले ‘भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता’ कायम की गई है, जिसमें ५३१ धारायें हैं, जो सीआरपीसी० की ४८४ धाराओं से ४७ अधिक हैं और इन धाराओं के प्रावधान भी स्वदेशी जरुरतों एवं भारतीय प्रजा के हितों की अपेक्षा के अनुसार किये गए हैं । ब्रिटिशकालीन ‘इण्डियन एविडेंस एक्ट’ को भी निरस्त कर उसके बदले ‘भारतीय साक्ष्य अधिनियम’ लागू किया गया है, जिसमें पुराने १६६ के बजाय १७० धाराओं का प्रावधान किया गया है । रद्द की जा चुकी आईपीसी व सीआरपीसी में न्याय की ही कोई अवधारणा कहीं नहीं थी, तो जाहिर है- भारतीय न्याय-दर्शन से भी उनका तनिक भी सरोकार नहीं था । इसी कारण आईपीसी व सीआरपीसी के ऐसे १२०० कानूनों को पूरी तरह से रद्द कर दिया गया है और अन्य १८२४ ब्रिटिश कानूनों को भी रद्द करने हेतु चिन्हित कर किया गया है । उन दोनों ब्रिटिश-अंग्रेजी संहिताओं में दण्ड को ही न्याय मान लिया गया था, जो एकबारगी अन्यायपूर्ण था । जबकि, अपराधी को दण्ड देना और पीडित को न्याय मिलना भारतीय न्याय दर्शन में परस्पर पर्यायवाची तो कतई नहीं हैं । अब नयी संहिताओं (भारतीय न्याय संहिता व भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) में दण्ड एवं न्याय दोनों को समान महत्व दिया गया है और दोनों को भारतीय चिन्तन-दर्शन के अनुसार निरुपित किया गया है । भारतीय दर्शन में न्याय की जो अवधारणा है, सो समस्त विश्व में सबसे उदार है और उसका उद्देश्य व्यष्टि से ले कर समष्टि तक सबका समग्र कल्याण एवं सर्वशांति है । इसी आधार पर नई संहिताओं में सारे प्रावधान किये गए हैं । देश के केन्द्रीय गृहमंत्री अमित शाह की मानें तो भारत की इन दोनों अपनी संहिताओं एवं साक्ष्य अधिनियमों की आत्मा, सोच व शरीर ; सब कुछ भारतीय है । इससे पहले और ब्रिटानिया-मुगलिया शासनकाल में यह सब अभारतीय था । प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने इस परिवर्तनकारी घटना को ब्रिटिश औपनिवेशिक युग का अंत और नये युग का आरम्भ कहा है ।
‘आईपीसी’ का राजद्रोह कानून , जो अंग्रेजी-औपनिवेशिक शासन का कवच था एवं शासन की क्रूरता का विरोध करने से रोकता था और जिसका अनुचित उपयोग होते रहता था, उसे पूर्णतः रद्द कर दिया गया है और ‘भारतीय न्याय संहिता’ में ‘देशद्रोह’ विषयक नये कानून का प्रावधान कर भारत की अस्मिता-एकात्मता-अखण्डता व राष्ट्रीय सुरक्षा पर आघात करने वाले आचार-व्यवहार को अपराध परिभाषित किया गया है । यह अत्यन्त आवश्यक था । इसी तरह से अब ‘आतंकवाद’ को भी स्पष्टतः परिभाषित कर दिया गया है , जिसके बावत ‘आईपीसी’ में कोई प्रावधान था ही नहीं । ‘यौन-दुष्कर्म’ विषयक अपराधों के विरुद्ध ठोस कानून का जो अभाव था, उसे दूर करते हुए अब ऐसे कठोर दण्ड का प्रावधान किया गया है कि उससे मजहबियों के ‘इश्क-जेहाद’ पर निश्चय ही अंकुश लगेगा और भोली-भाली हिन्दू बालाओं को छलपूर्वक इश्कजाल में फंसा लेना मुश्किल हो जाएगा ।
हम भारत के लोग ‘विलम्बित न्याय’ नामक जिस ‘अन्याय’ से कल तक बुरी तरह से पीडित रहा करते थे, सो अब नहीं होगा ; क्योंकि मुकदमों की सुनवाई में तारीख दर तारीख वाली अंधेरगर्दी को समाप्त कर सम्बन्धित न्यायाधीशों को दण्ड व न्याय का निर्णय देने की अधिकतम समय-सीमा तीन वर्ष निर्धारित कर दी गई है । इससे न्यायालयों में वर्षों से लम्बित पडे करोडों प्रकरणों का अब त्वरित निष्पादन तो हो ही जाएगा और आगे अब इनका अम्बार नहीं लग सकेगा । ऐसे में अब यह भी आशा की जा सकती है कि धनहीनों-वंचितों को भी न्याय सहज प्राप्त हो सकेगा । नयी न्यायिक संहिताओं में किये गए तमाम ऐसे प्रावधानों के विस्तार से हम विषयान्तरित हो जाएंगे, अतएव हमारे लिए तो यहां यही जानना पर्याप्त है कि भारत की न्यायिक व्यवस्था में अभारतीय हस्तक्षेप का युग अब समाप्त हो गया है और यह समापन कोई सामान्य घटना नहीं है । अंग्रेजी-औपनिवेशिक विधानों का उन्मूलन वस्तुतः भारत-पुनरुत्थान का ही एक उल्लेखनीय कदम और इसका विधिक क्रियान्वयन ही है ।
अब आते हैं दूसरी घटना पर , जो वैश्विक न्यायालय में ब्रिटेन के बर्चस्व को समाप्त कर देने वाली है । यों तो दलवीर सिंह भण्डारी पहले भी वैश्विक न्यायालय के न्यायाधीशों में से एक रहे हैं किन्तु इस बार का उनका चयन खास उल्लेखनीय इस कारण है कि उनका चयन एक भारतीय प्रत्याशी के हाथों ब्रिटिश प्रत्याशी (क्रिस्टोफर ग्रीनवुड) की पराजय का परिणाम है । इससे भी खास बात यह है कि ऐसा पहली बार हुआ है कि ‘इण्टरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस’ में ब्रिटेन की उपस्थिति बिल्कुल ही नहीं है और आने वाले कई वर्षों तक अर्थात सन २०२७ तक नहीं रहेगी । जी हां उसी ब्रिटेन का जिसका औपनिवेशिक शासन कभी विश्व्यापी हुआ करता था और जिसने कई-कई देशों पर ब्रिटिश हितों का रक्षण-पोषण करने के लिए अनेकानेक अनुचित-अवांछित कानून थोप रखे थे ।
मालूम हो कि युक्त राष्ट्र महासभा और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा 2018-2027 की अवधि के लिए न्यायाधीशों की पांचवीं रिक्ति के बावत 20 नवंबर 2017 को न्यूयॉर्क में स्वतंत्र रूप निर्वाचन कार्य सम्पन्न कराया गया था , जिसकी यह ऐतिहासिक परिणति हुई । संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद और महासभा मे भारत के समर्थन में भारी मतदान हुआ था । न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सभी 15 और संयुक्त राष्ट्र महासभा के 193 मतों में से 183 मत प्राप्त हुए । यह भारत के वैशिक उभार को प्रतिबिंबित करता है । यह यों ही हुआ भी नहीं अपितु इसके लिए भारत सरकार को अलग-अलग वैशिक मंचों पर राजनयिक प्रयासों के जरिए अपने प्रत्याशी- न्यायाधीश भंडारी के सम्र्थन का अभियान चलाना पडा था । जबकि ब्रिटेन की ओर से भी उस चुनावी प्रक्रिया को अत्यंत गंभीरता से लिया गया था और कठीन संघर्ष के बाद उसे अपनी दावेदारी वापस लेनी पडी । जाहिर है- भारत की यह वैश्विक धमक भी इसके पुनरुत्थान की गवाही देता है ।
• जनवरी ' 2025