अब कश्मीर का भारतीयकरण भी हो साथ-साथ

अब कश्मीर का भारतीयकरण भी हो साथ-साथ

भारतीय संविधान के अनुच्छेद- ३७० के निरस्तीकरण और जम्मू-कश्मीर के पुनर्गठन का वास्तविक प्रयोजन उस रियासत को भारत गणराज्य की मुख्यधारा में शामिल करना है । यह सत्य तो सारी दुनिया जानती है कि उक्त विशेष सांवैधानिक अनुच्छेद का नाजायज इस्तेमाल करती रही राज्य-सरकार की शह पर पृथकतावादियों द्वारा बीते सत्तर वर्षों में पूरी कश्मीर घाटी से भारतीय पक्ष की आबादी भगा दी गई है । किन्तु, इस तथ्य से अपना देश भी कदाचित अनजान है कि सम्पूर्ण कश्मीर घाटी भारतीय पहचान से भी महरुम कर दी गई है । हिन्दू-बहुल जम्मू व लद्दाख को छोड लगभग समूचे कश्मीर को फिरकापरस्तों ने पाकिस्तान की शक्ल में तब्दील कर दिया है । हमारे प्राचीन ऋषियों की तपस्थली व कर्मस्थली और वेद-ऋचाओं की रचनास्थली रही उस भूमि पर ऐसे तमाम प्रतीकों-अवशेषों-चिह्नों को मिटा कर उनसे जुडी परम्परायें भी बाधित की जाती रही हैं, जिनसे वहां प्राचीन भारत की पौराणिक विशिष्टतायें व ऐतिहासिक विरासतें परिलक्षित हुआ करती थीं । कुल मिला कर उस अलगावकारी अनुच्छेद की आड में कश्मीरियत के नाम पर समूचे कश्मीर को सांस्कृतिक तौर पर भी भारत से अलग-थलग दिखाने-बताने का षड्यंत्र चल रहा था ।
मालूम हो कि आदि शंकराचार्य की तपस्थली होने के कारण जिस ‘गौपद’ पहाडी को सदियों से शासनिक दस्तावेजों में भी ‘शंकराचार्य पहाडी’ कहा जाता रहा है, उस पहाडी का नाम बदल कर पृथकतावादी जिहादियों ने ‘सुलेमान टापू’ रख दिया , तो पूर्ववर्ती धर्मनिरपेक्षतावादी भारत-सरकार के पुरातत्व विभाग ने भी इसी बदले हुए नाम को स्वीकार कर लिया और उक्त पहाडी के पास इसी नाम का एक बोर्ड लगा रखा है । जाहिर है, राज्य-सरकार के दस्तावेजों से ‘शंकराचार्य पहाडी’ नाम गुम तो पूरी तरह से गुम ही हो चुका है । इसी तरह से वहां के ‘हरि पर्वत’ का नाम भी जिहादियों की इच्छानुसार बदल कर पहले ‘हरा पर्वत’ और बाद में ‘कोह-ए-मारण’ (दुष्टों का पर्वत) कर दिया गया है । अनन्तनाग जिले में अवस्थित प्राचीन ‘उमानगरी’ का नाम तो बहुत पहले ही ‘शेखपुरा’ हो गया है, जबकि उस जिले का भी नाम बदल कर उसे ‘इस्लामाबाद’ कर दिया गया है । स्थानीय मकानों-दुकानों पर ‘इस्लामाबाद’ नाम ही अंकित है । इतना ही नहीं , कश्मीर घाटी में बहने वाली ‘किशनगंगा’ नदी का भी नामान्तरण कर उसे ‘दरिया-ए-नीलम’ नाम बहुत पहले ही दे दिया गया है । श्रीनगर में जिस चौराहे पर जामा मस्जीद अवस्थित है, वह चौराहा भी ‘मदीना चौक’ हो गया है । इन सभी बदले हुए नामों को जम्मू-कश्मीर सरकार के पर्यटन विभाग ने भी मान्यता दे रखा है, जिसके विरुद्ध ‘पनुन कश्मीर’ नामक संगठन हमेशा आपत्तियां दर्ज कराते रहा है ।
भारत-विरोधी पृथकतावादी जिहादी संगठनों और उनके झण्डाबरदारों द्वारा उस पूरे प्रदेश भर में ऐतिहासिक शहरों, स्थानों, तीर्थों , नदियों, पर्वतों आदि के नाम बदलने की उस मुहिम का उद्देश्य कश्मीर की भारतीय पहचान को मिटाना और उसे इस्लामी रंग में रंग कर पाकिस्तान का सरपरस्त बनाना-बताना रहा है । इसके लिए वे तरह-तरह के हथकण्डों का इस्तेमाल करते रहे हैं । सबसे पहले स्थानीय लोगों से उनके बोल-चाल, कार्य-व्यापार , लोक-व्यवहार में बदले हुए नाम को प्रयुक्त कराते रहना, और फिर कुछ दिनों-महिनों-वर्षों में कुछ लोगों की जुबान पर वह नाम आ जाने के बाद उसे स्थापित-प्रचारित करते-कराते हुए सरकार पर दबाव डाल कर शासनिक दस्तावेजों में भी तदनुसार तब्दीलियां दर्ज करा देना उनकी रणनीति का हिस्सा रहा है । इसके लिए वे हिन्दी-संस्कृत के ऐसे किसी नाम के उच्चारण में अरबी-फारसी भाषा की संगति बैठा कर उस नाम को विकृत कर देने और फिर उस विकृतिकरण से नामान्तरण को अंजाम देने की चालाकी भी करते रहे हैं । कश्मीर के तीर्थस्थलों में से एक प्रमुख तीर्थ- ‘क्रमसरनाग विष्णुपाद’ की पारम्परिक यात्रा के मार्ग को बाधित करने और उस तीर्थ-स्थान पर मस्जीद के निर्माण का मामला इसी चालाकी का परिणाम है । उल्लेखनीय है कि ‘नीलमत पुराण’ और महाकवि कल्हण के महाकाव्य- ‘राजतरंगिणी में वर्णित ‘क्रमसरनाग विष्णुपाद’ नामक विशाल अलौकिक झील , जो कश्मीर घाटी के दक्षिण में ‘पीर पांचाल’ पर्वत-श्रंखला से सम्बद्ध ‘कपालमोचन’ तीर्थ के निकट ‘ब्रह्मा गिरि’, ‘विष्णु गिरि’ व ‘महेश गिरि’ नामक पर्वत-शिखरों के मध्य अवस्थित है , उसके नाम को भी इसी चालाकी से बदलने की मशक्कत की जाती रही है । ज्ञातव्य है कि कश्मीर में शिव का एक नाम ‘क्रमेश्वर’ भी है । मनु के नौका-विहार व विष्णु के मत्स्यावतार एवं कश्यम ऋषि की तपश्चर्या से सम्बद्ध इस ‘विष्णुपाद झील’ में ‘क्रमेश्वर शिव’ का वास होने की मान्यता के कारण पहले प्रति वर्ष इस विशाल तीर्थ-संकुल की परिक्रमा करने के पश्चात आषाढ़ पूर्णिमा व नाग पंचमी को लोग यहां पूजा-अर्चना किया करते थे । किन्तु धारा ३७० से सम्पोषित कश्मीरियत की आड में ‘क्रमसर विष्णुपाद’ की परिक्रमा-यात्रा को तो जिहादी संगठनों द्वारा बाधित किया ही जा चुका है, ‘क्रमसरनाग’ शब्द को ‘कैशरनाग’ में तब्दील करते हुए ‘कैशर’ शब्द को अरबी भाषा का शब्द होने के आधार पर उस तीर्थ के हिन्दू-चरित्र पर ही सवाल उठाया जाता रहा है और वहां एक मस्जीद का दावा भी पेश किया जाता रहा है । ये सब तो महज कुछ उदाहरण मात्र हैं, जबकि पिछले सत्तर वर्षों में सैकडों ऐसे नामान्तरण वहां किये जा चुके हैं । सैकडों मठ-मन्दिर भी तोडे जा चुके हैं ।
भारतीय संस्कृति के विभिन्न प्रतीकों-रुपों-तीर्थों व ऋषियों की सनातन परम्पराओं से समृद्ध कश्मीर की घाटियों-वादियों-तराइयों-उपत्यकाओं पर इस्लाम का रंग चढा कर उन्हें पाकिस्तान-परस्त बनाने-बताने अथवा उनकी भारतीय पहचान को मिटा डालने का जिहादी अभियान चलाने के पीछे पृथकतावादी मजहबी शक्तियों की मंशा केवल और केवल पृथकतावाद को भौगोलिक आयाम देने की रही है । उनके इस अभियान को भारतीय संविधान के अनुच्छेद ३७० से एक प्रकार का संरक्षण मिला हुआ था । अब जब उस अनुच्छेद का अवसान हो गया, तब उनके उस अभियान पर अंकुश जरूर लगेगा और साथ ही बीते सत्तर वर्षों में कश्मीर की भारतीय पहचान का जो क्षरण हुआ है, उसकी भरपाई भी अवश्य होगी, ऐसी अपेक्षा की जा सकती है । अब निर्वासित कश्मीरी पण्डितों के पुनर्वास की योजना तो क्रियान्वित होनी ही चाहिए , किन्तु उसके साथ-साथ नामान्तरित सांस्कृतिक प्रतीकों के पुनर्प्रतिष्ठापन का काम भी अवश्य होना चाहिए । किशनगंगा, हरि पर्वत, शंकराचार्य पहाडी आदि का वास्तविक नाम पुनर्स्थापित होने से कश्मीर की कश्मीरियत का नुकसान हुए बिना उसकी भारतीय पहचान फिर से कायम होगी । पृथकतावादी जिहादियों द्वारा समस्त जम्मू-कश्मीर भर में जिन ४३५ मठ-मन्दिरों को ध्वस्त कर दिया गया है, उन सबका पुनर्निर्माण भी होना चाहिए । धारा ३७० को निरस्त कर उस राज्य को भारत गणराज्य की मुख्य धारा में समाहित करने के लिए जिस तरह से तमाम प्रकार की जरुरी शासनिक व्यवस्थायें व प्रशासनिक स्थापनायें कायम की जा रही हैं , उसी तरह से उस अलगावकारी धारा के कारण उसकी गुम हो चुकी भारतीय पहचान को पुनः कायम किये जाने के प्रति भी केन्द्र सरकार को तत्परता बरतनी चाहिए । ऐसा इस कारण, क्योंकि कश्मीर की भारतीय पहचान को वहां पुनः कायम किये बिना उसे भारत राष्ट्र की मुख्य धारा में समाहित किये जाने की सांवैधानिक पहल तभी पूर्ण हो सकती है, जब उसे सांस्कृतिक पूर्णता भी प्राप्त होगी । अतएव, पृथकतावाद की जिहादी आग में झुलसते रहे नन्दन वन की केसर-क्यारियों से सुरभित उस भारतीय भूभाग के शासनिक पुनर्गठन के साथ-साथ उसका भारतीयकरण करना भी नितान्त आवश्यक है ।
* अगस्त’२०१९