धर्म-अधर्म का दर्शन व ‘कॉरोना’ संक्रमण’ और भारत की अक्षुण्णता का मर्म

धर्म-अधर्म का दर्शन व ‘कॉरोना’ संक्रमण’ और भारत की अक्षुण्णता का मर्म

कॉरोना संक्रमण के बढते विस्तार के साथ भारत में इस बावत बौद्धिक वैचारिक विमर्श भी बढता जा रहा है । कुछ लोग तैंतीस कोटि देवी-देवताओं की ओर से कॉरोना-उन्मूलन का कोई चमत्कार न किये जाने पर सवाल उठाने लगे हैं तो कुछ लोग धार्मिक मान्यताओं पर । कुछ लोग अस्पतालों की कमी का सवाल उठा भी उठा रहे हैं । लेकिन इन बुद्धि-बहादुरों की बुद्धि वहां नहीं जा पा रही है जहां कोई देवी-देवता नहीं ; बल्कि पैगम्बर व नेता मात्र हैं और अस्पताल तो एक से एक हैं- सर्वसुविधा-सम्पन्न । लेकिन फिर भी वहां युरोप-अमेरिका में कॉरोना का संक्रमण और संक्रमितों का चिकित्सीय कुप्रबंधन भारत से कई गुणा ज्यादा है । बावजूद इसके अपने देश के इन बुद्धिबाजों को कॉरोना की भयावहता से निजात पाने में आने वाली कठिनाइयों के लिए देवी-देवताओं के आख्यानों पर उंगली उठाना ही मुनासिब समझ में आ रहा है । किन्तु उन्हें यह सच समझ में नहीं आ रहा है कि इस कॉरोना-संक्रमण की भयावहता को अस्पतालों की बहुलता कम नहीं कर सकती है । जबकि सनातन देवी-देवताओं के आख्यानों में अभिव्यक्त शिक्षाओं को लोग अगर आत्मसात कर चुके होते और धार्मिक कर्मकाण्डों की सूक्ष्म वैज्ञानिकता को नजरंदाज कर उन्हें महज पाखण्ड नहीं समझ रहे होते अपितु अपने जीवन में उतारे हुए रहते तो कॉरोना जैसी त्रासदी से इतना भयभीत कतई नहीं होना पडता । यह त्रासदी प्रकृति-प्रदत हो या चीन के कम्युनिष्ट हुक्मरानों की धूर्त्त बुद्धि से व्युत्पन्न ; किन्तु इसकी भयावहता एक प्रकार की दैवीय विभीषिका ही प्रतीत हो रही है । ऐसा इस कारण क्योंकि इसका संक्रमण प्राकृतिक आपदा विकरालता व भयंकरता के समान ही है और उन्हीं देशों में सर्वाधिक है जहां प्रकृति के साथ सह-अस्तित्व पर आधारित सनातन धार्मिक जीवन-शैली का तिरस्कार करते हुए प्रकृति-विरोधी अब्राहमी मजहबी जीवन-पद्धति रच-गढ कर सम्पूर्ण सृष्टि को मनुष्येत्तर प्राणियों से विहीन कर देने वाली अधार्मिकता को अंगीकार किया गया है ।
जिन देवी-देवताओं से जिस सनातन धर्म का बोध होता है उन पर कटाक्ष कर अपनी बौद्धिकता झाडने वालों को इससे पहले धार्मिकता और अधार्मिकता को समझ लेना चाहिए । जीवन जीने की जो पद्धति धारण करने योग्य है वही धर्म है और वही जीवन-पद्धति धारण करने योग्य है या हो सकती है . जो मनुष्य के लिए कल्याणकारी हो ; जबकि मनुष्य का कल्याण व्यष्टि से ले कर समष्टि तक मनुष्येत्तर प्राणियों के सह-अस्तित्व से समस्त विश्व-वसुधा व सम्पूर्ण सृष्टि के कल्याण में ही सन्निहित है । क्योंकि अन्य प्राणियों-वनस्पतियों के बिना मनुष्य का जीवन सुखमय कतई नहीं हो सकता । अतएव ऐसी जीवन-पद्धति ही धर्म है जो समस्त सृष्टि को सनातन स्रष्टा का ही विराट रुप अर्थात ब्रह्म-स्वरुप समझ कर समस्त प्राणियों-वनस्पतियों के सह-अस्तित्व को आत्मसात करती है । धर्म रुपी इस जीवन-पद्धति का अनुसरण ही धार्मिकता है । ठीक इसके विपरीत सृष्टि को सनातन ‘ब्रह्म-स्वरुप’ के बजाय किसी ‘अब्रह्म’ (अब्राहम) की कायनात और मनुष्य को किसी एड्म या आदम की औलाद मान समस्त मनुष्येत्तर प्राणियों सहित सम्पूर्ण सृष्टि को सिर्फ आदमी के भोग-उपभोग की वस्तु मान प्रकृति के विरुद्ध शत्रुवत व्यवहार करने वाली जीवन-पद्धति सर्वकल्याणकारी नहीं होने की वजह से धारण करने योग्य नहीं होने के कारण ‘अधर्म’ है जिसे मजहब कहते है । इस मजहबी जीवन-पद्धति का अनुसरण करना अधार्मिकता है जो यह सिखाती है कि मनुष्य पूरी पृथ्वी का मालिक है और समस्त मनुष्योत्तर प्राणियों का भी उपभोग करने वाला उपभोक्ता है । इतना ही नहीं . यह तो मनुष्य-मनुष्य के बीच भी शत्रुतापूर्ण विभाजन सिखाती रही है । एक मजहब की मान्यता है कि दूसरे मजहब के आदमी और सृष्टि को ब्रह्म-स्वरुप बताने वाला धर्म धारण किए हुए मनुष्य ‘काफिर’ है ; तो दूसरे मजहब की मान्यता के अनुसार अन्य मजहबी और धार्मिक लोग शैतान हैं । जबकि ये दोनों मजहब अब्राह्मी (अब्राहमी) हैं और धर्म के विरुद्ध एक दूसरे के परस्पर सहयोगी हैं । जाहिर है- मजहबीपन अधार्मिकता है और इस तरह से मजहबीपन (अधार्मिकता) व धार्मिकता में आसमान-जमीन सा अन्तर है । इन दोनों प्रकार के मजहबियों को हांकने वालों ने उन पर अपनी मान्यताओं का रंग जमाने के लिए धर्म की दो चार बातों को जैसे-तैसे छींच-तान कर उनमें अपने-अपने कुत्सित निहितार्थों की मिलावट कर एक-एक किताब गढ रखी है जिसे वे ‘अहले आसमानी किताब’ कहते हैं और उसी के हवाले-सहारे समस्त पृथ्वी पर अपनी-अपनी मिल्कियत स्थापित करने की जद्दोजहद करते हुए अपने-अपने मजहब को धर्म सिद्ध करने में लगे रहते हैं । एक मजहब ने आदमी को ‘अशफरूल मक्खल्लुकात’ कह कर उसे अभक्ष्य का भी भक्षण करने में लगा दिया ; तो दूसरे मजहब ने ‘डार्विनवाद’ के सिद्धांत को अपना कर सबलों के द्वारा निर्बलों के शोषण को वैधता प्रदान कर दिया । परिणाम यह हुआ कि एडम/आदम की औलादों ने प्रकृति को रौंद डालने और समस्त प्राकृतिक उपादानों-संसाधनों को अपनी मुट्ठी में कर लेने का अभियान सा चला दिया . जिसकी परिणति दो-दो विश्वयुद्धों की विभीषिका के रुप में दुनिया देख चुकी है । इन दोनों मजहबों की दृष्टि में आदमी सर्वभक्षी सामाजिक पशु (शोसल एनिमल) है. जिसके लिए वनों को उजाडना और मानवेत्तर जीव-जन्तुओं को मार कर खाना मानवीय सभ्यता की तरक्कीशीलता है । इन मजहबियों ने सारी दुनिया में मांसाहार को इस कदर फैला दिया कि पारिस्थितिकीय संतुलन के लिए आवश्यक ‘जैव विविधता’ के समक्ष असंतुलन का भारी संकट खडा हो गया है । मजहबीपन सृष्टि को देता कुछ भी नहीं है अपितु इससे लेता सब कुछ है ; इसी कारण किसी भी मजहब में तीस कोटि तो क्या एक भी देवता नहीं हैं । जबकि धार्मिकता तो समपूर्ण सृष्टि को ब्रह्म-स्वरुप समझने और तदनुसार जीवन-दृष्टि अपनाने की सोच-समझ-धारणा-विचारणा प्रदान करती है ; इस कारण धर्म की दृष्टि में सृष्टि के हर अंग-अवयव देवता हैं ; तो यह गलत नहीं है ।
इसी धार्मिकता व अधार्मिकता के भाव-स्रोत से सम्पन्न जीवन-पद्धति को भारतीय ज्ञान-परम्परा में धर्म व अधर्म कहा गया है और धर्म ही भारत की राष्ट्रीयता है जो सनातन धर्म वैदिक धर्म अथवा हिन्दू धर्म के नाम से जाना जाता है । इसे आप मानवधर्म भी कह सकते हैं ; क्योंकि मानवोचित भी यही है . जो हमें ‘ईशोपनिषद’ के एक मंत्र के रुप में “ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्” की उदार व व्यापक दृष्टि प्रदान करता है । अर्थात “जड़-चेतन समस्त प्राणियों-वनस्पतियों वाली यह सम्पूर्ण सृष्टि परमात्मा से व्याप्त है । मनुष्य इसके पदार्थों का आवश्यकतानुसार भोग करे , परंतु ‘यह सब मेरा नहीं है के भाव से करे और इसके उलट भाव से इनका संग्रह न करे ।” धार्मिकता को व्याख्यायित करने वाले वेद में वर्णित शांतिमंत्र के शब्दों पर आप गौर करें तो पाएंगे कि धर्म तो मामूली तृण व चिंटी से लेकर नदी-पर्वत व हाथी-पर्यंत समस्त जीव-जगत की शुभता के अनुकूल जीवन जीने की दृष्टि प्रदान करता है । किन्तु मजहबीपन ठीक इसके उलट सभी मनुष्यों के लिए भी नहीं . बल्कि मजहब-विषेश के मनुष्यों की उदर-पूर्ति का पाठ पढाता है और सम्पूर्ण सृष्टि के समस्त संसाधनों को अपने अधीन कर लेने का भाव भरता है । इन दिनों चीन देश से उत्पन्न अथवा चीन के कम्युनिष्ट हुक्मरानों द्वारा व्युत्पन्न जिस कॉरोना-संक्रमण की मार सारी दुनिया को झेलनी पड रही है सो चीनियों की अभक्ष्य-भक्षण से युक्त अधार्मिक जीवन-शैली अथवा सारी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कर लेने को उद्धत वहां के कम्युनिज्म की अधार्मिकता का ही परिणाम है । जबकि यह संक्रमण उन्हीं लोगों को ज्यादा ग्रस रहा है जो मांसाहारी हैं ।
भारतीय वांगमय में देवासुर संग्राम के जो आख्यान वर्णित हैं सो सृष्टि-क्रम के अनुकूल और प्रतिकूल जीवन-पद्धति का वरण करने वाले देव-पक्ष व असुर-पक्ष के बीच धर्म व अधर्म का ही परस्पर संघर्ष है . जो सभी युगों में होते रहा है और हर बार धर्मधारी देव-पक्ष ही विजयी होता रहा है । यह कॉरोना संक्रमण देवासुर संग्राम का ही एक छद्म संस्करण है जो चीनी हुक्मरानों द्वारा साम्राज्यवादी उद्देश्य से सारी दुनिया पर थोपा हुआ प्रतीत होता है । अब इस छद्म आक्रमण से चूंकि एक सनातन राष्ट्र भी सीधे-सीधे आक्रांत हो रहा है जिसकी राष्ट्रीयता धर्म है तो समझिए कि यह संक्रमण भारत-भूमि पर मिट्टी में मिल जाएगा ; क्योंकि अन्ततः धर्म को विजयी होना सुनिश्चित होतव्यता है । ऐसा इस कारण क्योंकि धर्म सृष्टि की सुव्यवस्था के लिए स्रष्टा- ‘ब्रह्म’ से ही निःसृत है ; जबकि अधर्म अर्थात मजहब अब्रह्म (अब्राहम) से । सृष्टि रचने वाला ‘ब्रह्म’ अब्राह्मिक आक्रमण से धर्मधारी भारत की सुरक्षा के लिए सदैव ही कटिबद्ध रहा है । भारत की अक्षुण्णता का यही मर्म है ।
• मार्च’ २०२०