प्राचीन भारतीय साहित्य पर भी औपनिवेशिक आक्रमण

प्राचीन भारतीय साहित्य पर भी औपनिवेशिक आक्रमण

भारत पर लगभग २०० वर्षों तक स्थापित रहे अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन का ‘उपनिवेशवाद’ वस्तुतः ‘ईसाई-विस्तारवाद’ का छद्म रुप था जिसका अवसान हो जाने के बाद भी उसकी औपनिवेशिकता न केवल कायम है यहां ; बल्कि पहले से कहीं ज्यादा फल-फुल रही है । वह औपनिवेशिकता असल में ‘ईसाइयत’ को श्रेष्ठता एवं ‘हिन्दुत्व’ को हीनता की दृष्टि से देखने-समझने व व्यक्त करने की मानसिकता है जो षडयंत्रकारी अंग्रेजी-औपनिवेशिक शिक्षा-पद्धति के कारण व इसी के माध्यम से निर्मित हुई है और भारतीय राष्ट्रीय जीवन के हर अंग-अवयव को ग्रसते रही है । भाषा और साहित्य इससे सर्वाधिक ग्रसित हैं । इस औपनिवेशिकता की षड्यंत्रकारिता का आलम यह है कि इसके झण्डाबरदारों द्वारा अब यह भी दावा किया जाने लगा है कि “संस्कृत भाषा का आविष्कार ‘सेंट टॉमस’ ने भारत में ईसाइयत का प्रचार करने के लिए एक औजार के रूप में किया था और वेदों की उत्पत्ति सन १५० ईस्वी के बाद ईसा मसीह की शिक्षाओं से हुई , जिसे बाद में ‘धूर्त’ ब्राह्मणों ने हथिया लिया ।” जी हां ! इतना ही नहीं; दावा यह भी किया जा रहा है कि “भारत का बहुसंख्यक समुदाय बाइबिल-वर्णित ‘नूह’ के तीन पुत्रों में से दो की संततियों के अधीन रहने को अभिशप्त- ‘हैम’ के वंशजों का समुदाय है ; किन्तु भ्रष्ट व प्रदूषित होकर ईसाई से मूर्तिपूजक बन गया , तो ‘हिन्दू’ या ‘सनातनी’ कहा जाने लगा ।” और यह भी कि “ महाभारत व ‘गीता’ आदि ग्रंथ ईसा की शिक्षाओं के प्रभाव में लिखे गए हैं; जबकि “दक्षिण भारत के महान संत-कवि- तिरुवल्लुवर तो पूरी तरह से ईसाई ही थे , उन्हें ईसा के प्रमुख शिष्यों में से एक- ‘सेन्ट टॉमस’ ने ईसाइयत की शिक्षा-दीक्षा दी थी ; इस कारण उनकी कालजयी रचना- ‘तिरुकुरल’ में ईसा की शिक्षायें ही भरी हुई हैं ।” भारत के ज्ञान-विज्ञान की चोरी करते रहने वाले ‘औपनिवेशिक-बौद्धिक चोरों’ की ऐसी सीनाजोरी का आलम यह है कि अब कतिपय भारतीय साहित्यकारों की जमात भी उनकी हां में हां मिलाने लगी है ।
किसी सफेद झूठ को हजार मुखों से हजार-हजार बार कहलवा देने और हजार हाथों से उसे हजार किताबों में लिखवा देने से वह सच के रूप में स्थापित हो जाता है ; स्थापित हो या न हो , वास्तविक सच उसी अनुपात में अविश्वसनीय तो हो ही सकता है । इसी रणनीति के तहत उपनिवेशवाद (अब नव-उपनिवेशवाद) और ईसाई-विस्तारवाद के झण्डाबरदार बुद्धिजीवी-लेखक-भाषाविद पिछली कई सदियों से ‘तुलनात्मक भाषा-शास्त्र’ नामक अपने छद्म-शस्त्र के सहारे समस्त भारतीय वाङ्ग्मय का अपहरण करने में लगे हुए हैं । चिन्ताजनक बात यह है कि अपने देश का बुद्धिजीवी-महकमा भी इस सरेआम औपनिवेशिक-बौद्धिक चोरी-डकैती-अपहरण-बलात्कार से या तो अनजान है या जानबूझ कर मौन है ।
गौरतलब है कि माल-असबाब की चोरी करने के लिए घरों में घुसने वाले चोर जिस तरह से सेंधमारी करते हैं अथवा किसी खास चाबी से घर के ताले को खोल लेते हैं , उसी तरह की तरकीबों का इस्तेमाल इन बौद्धिक अपहर्ताओं ने भारतीय वाङ्ग्मय में घुसने के लिए किया । सबसे पहले इन लोगों ने ‘नस्ल-विज्ञान’ के सहारे आर्यों को यूरोपीय-मूल का होना प्रतिपादित कर गोरी चमडी वाले ईसाइयों को सर्वश्रेठ आर्य व उतर-भारतीय हिन्दुओं को प्रदूषित आर्य एवं दक्षिण भारतीय हिन्दुओं को आर्य-विरोधी ‘द्रविड’ घोषित कर भारत में आर्य-द्रविड-संघर्ष का कपोल-कल्पित बीजारोपण किया और फिर अपने ‘तुलनात्मक भाषा-विज्ञान’ के सहारे संस्कृत को यूरोप की ग्रीक व लैटिन भाषा से निकली हुई भाषा घोषित कर तमिल-तेलगू को संस्कृत से भी पुरानी भाषा होने का मिथ्या-प्रलाप स्थापित करते हुए विभिन्न भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के अपने मनमाफिक अनुवाद से बे-सिर-पैर की अपनी उपरोक्त स्थापनाओं को जबरिया प्रमाणित-प्रचारित भी कर दिया ।
मालूम हो कि दक्षिण भारत की तमिल भाषा में ‘ तिरुकुरल ’ वैसा ही लोकप्रिय सनातनधर्मी-ग्रन्थ है , जैसा उतर भारत में रामायण , महाभारत अथवा गीता । इसकी रचना वहां के महान संत कवि तिरूवल्लुवर ने की है । १९वीं सदी के मध्याह्न में एक कैथोलिक ईसाई मिशनरी जार्ज युग्लो पोप ने अंग्रेजी में इसका अनुवाद किया, जिसमें उसने प्रतिपादित किया कि यह ग्रन्थ ‘अ-भारतीय’ तथा ‘अ-हिन्दू’ है और ईसाइयत से जुडा हुआ है । उसकी इस स्थापना को मिशनरियों ने खूब प्रचारित किया । उनका यह प्रचार जब थोडा जम गया, तब उननें उसी अनुवाद के हवाले से यह कहना शुरू कर दिया कि ‘तिरूकुरल’ ईसाई-शिक्षाओं का ग्रन्थ है और इसके रचयिता संत तिरूवल्लुवर ने ईसाइयत से प्रेरणा ग्रहण कर इसकी रचना की थी, ताकि अधिक से अधिक लोग ईसाइयत की शिक्षाओं का लाभ उठा सकें । इस दावे की पुष्टि के लिए उनने उस अनुवादक द्वारा गढी गई उस कहानी का सहारा लिया, जिसमें यह कहा गया है कि ईसा के एक प्रमुख शिष्य सेण्ट टामस ने ईस्वी सन ५२ में भारत आकर ईसाइयत का प्रचार किया , तब उसी दौरान तिरूवल्लुवर को उसने ईसाई धर्म की दीक्षा दी थी ।
हालाकि मिशनरियों के इस दुष्प्रचार का कतिपय निष्पक्ष पश्चिमी विद्वानों ने ही उसी दौर में खण्डन भी किया था, किन्तु उपनिवेशवादी ब्रिटिश सरकार समर्थित उस मिशनरी प्रचार की आंधी में उनकी बात यों ही उड गई । फिर तो कई मिशनरी संस्थायें इस झूठ को सच साबित करने के लिए ईसा-शिष्य सेन्ट टॉमस के भारत आने और हिन्द महासागर के किनारे ईसाइयत की शिक्षा फैलाने सम्बन्धी किसिम-किसिम की कहानियां गढ कर अपने-अपने स्कूलों में पढाने लगीं । तदोपरान्त उन स्कूलों में ऐसी शिक्षाओं से शिक्षित हुए भारत की नयी पीढी के लोग ही इस नये ज्ञान को और व्यापक बनाने के लिए इस विषय पर विभिन्न कोणों से शोध-अनुसंधान भी करने लगे ।
भारतीय भाषा-साहित्य में पश्चिमी घुसपैठ को रेखांकित करने वाले विद्वान लेखक- राजीव मलहोत्रा और अरविन्दन नीलकन्दन ने ऐसे ही अनेक शोधार्थियों में से एक तमिल भारतीय- ‘एम० देइवनयगम’ के तथाकथित शोध-षडयंत्रों का विस्तार से खुलासा किया है । देईवनयगम ने चर्च मिशनरियों के संरक्षण और उनके विभिन्न शोध-संस्थानों के निर्देशन में अपने कथित शोध के आधार पर सरेआम यह दावा किया है कि ‘तिरूकुरल’ ही नहीं , बल्कि चारो वेद और भागवत गीता, महाभारत, रामायण भी ईसाई-शिक्षाओं के प्रभाव से प्रभावित एवं उन्हीं को व्याख्यायित करने वाले ग्रन्थ हैं और संस्कृत भाषा का आविष्कार ही ईसाइयत के प्रचार हेतु हुआ था । उसने वेदव्यास को द्रविड बताते हुए उनकी समस्त रचनाओं को गैर-सनातनधर्मी होने का दावा किया है । अपने शोध-निष्कर्षों को उसने १८वीं शताब्दी के युरोपीय भाषाविद विलियम जोन्स की उस स्थापना से जोड दिया है, जिसके अनुसार सनातन धर्म के प्रतिनिधि- ग्रन्थों को ‘ईसाई सत्य के भ्रष्ट रूप’ में चिन्हित किया है ।
उल्लेखनीय है कि सन १९६९ में देइवनयगम की एक शोध-पुस्तक प्रकाशित हुई- ‘वाज तिरूवल्लुवर ए क्रिश्चियन ?’, जिसमें उसने साफ शब्दों में लिखा है कि सन ५२ में ईसाइयत का प्रचार करने भारत आये सेन्ट टामस ने तमिल संत कवि- तिरूवल्लुवर का धर्मान्तरण करा कर उन्हें ईसाई बनाया था । अपने इस मिथ्या-प्रलाप की पुष्टि के लिए उसने संत-कवि की कालजयी कृति- ‘तिरूकुरल’ की कविताओं की तदनुसार प्रायोजित व्याख्या भी कर दी और उसकी सनातन-धर्मी अवधारणाओं को ईसाई-अवधारणाओं में तब्दील कर दिया । हिन्दू से ईसाई बन कर चर्च मिशनरियों के धन से लेखक बने देइवनयगम ने अपनी उक्त शोध-पुस्तक में तिरुकुरल की जो व्याख्या की है उसके कुछ आंशिक तथ्यों पर ही गौर करने से एक बहुत बडे बौद्धिक षड्यंत्र की बू आने लगती है । उसने लिखा है- ‘तिरुकुरल’ में पांच इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने की जो बातें की गई हैं, सो वास्तव में ईसा मसीह के संदर्भ में ही है , जबकि उस ग्रन्थ में अभिहित ‘वैभव-गान’ पवित्र आत्मा की प्रशंसा है और ‘भद्र व्यक्ति’ से तिरुवल्लुवर का आशय सीधे-सीधे ईसा मसीह से ही है ।
चर्च मिशनरियों से सम्बद्ध इन शिक्षाविदों और भाषा-साहित्य में मिलावटखोरी करने वाले इन बुद्धिबाजों पर ईसाइयत को दुनिया भर में स्थापित करने का जुनून इस कदर सवार है कि किसी भी ग्रन्थ में अगर किसी के किसी गुणवान इकलौते पुत्र का अथवा किसी मृत व्यक्ति के जीवित हो उठने का वर्णन मिलता है , तो ये लोग तुरंत यह दावा ठोंक देते हैं कि वह वर्णन ‘ईसा’ का ही है । जबकि भारतीय साहित्य की ‘सिद्ध परम्परा’ में दर्जनों ऐसे ग्रन्थ हैं , जिनमें साधक के मरने व फिर जीवित हो उठने अथवा समाधि की अवस्था से बाह्य-जागृति की अवस्था में परावर्तन का विशद वर्णन है । हमारे यहां तो ‘योग विद्या’ के अन्तर्गत मर जाने और जीवित हो उठने की क्रमबद्ध व्यापक साधना ही होती रही है । लेकिन इस तथ्य की जानबूझ कर अनदेखी कर ये लोग इसी आधार पर समस्त ‘सिद्ध-साहित्य’ को ईसाइयत से सृजित होने का दावा कर रहे हैं । असल में ये लोग यह मान बैठें हैं कि मृत शरीर के पुनः जीवित हो उठने की इकलौती घटना इस दुनिया में घटित हुई है , जो बाइबिल में ईसा के नाम से दर्ज है, जबकि ऐसी दूसरी कोई घटना कहीं हो ही नहीं सकती; अतएव दूसरे किसी ग्रन्थ में अगर ऐसी ही घटना का उल्लेख है, तो वह ग्रन्थ निश्चय ही ईसा को ही इंगित करता है ।
अपनी इसी धरणा के तहत उनने जैन-साहित्य के एक प्रमुख ग्रन्थ- “चिलपथिकम ” को भी ईसाइयत का ग्रन्थ घोषित कर रखा है , जिसमें ‘ईश्वर के पुत्र’ और उसके तैंतीस वर्ष की आयु में ‘स्वर्गिक शरीर प्राप्त करने’ का ही नहीं , बल्कि जैनियों के दस-लक्षण सिद्धांत का भी वर्णन है , जो निश्चय ही भारतीय अध्यात्म साधना के संदर्भ में है । किन्तु ‘गौड के इकलौते पुत्र’ और ‘ज्ञान की इकलौती किताब’ का वैश्विक साम्राज्य स्थापित करने को उद्धत श्वेतरंगी बुद्धिबाजों की फौज में शामिल दक्षिण-भारतीय अश्वेत प्रोफेसर ‘हेप्जिबा जेसुदान’ ने इस ग्रन्थ के इन तीनों तथ्यों को ईसा व ईसाइयत से जोडते हुए इसके दसलक्षण-सिद्धांत को बाइबिल-वर्णित ‘टेन कमाण्डेण्ट्स’ के साथ संगति बैठा कर इसे ईसाइयत का ग्रन्थ घोषित कर रखा है ।
मालूम हो कि संत-कवि तिरुवल्लुवर के कालजयी ग्रन्थ- ‘तिरुकुरल’ में कहीं भी ईसा का कोई उल्लेख तक नहीं है , जबकि इन्द्र , विष्णु व लक्ष्मी और कामदेव की चर्चा अनेक पृष्ठों पर अनेक बार हुई है ; तब भी ‘गॉड के इकलौते पुत्र’ के झण्डाबरदारों द्वारा देइवनयगम जैसे देसी-विदेशी भाडे के ट्टट्टू-लेखकों से इस ग्रन्थ को ईसाइयत का ग्रन्थ जबरिया घोषित-प्रमाणित कराया जा रहा है , तो यह एक तरह का बौद्धिक फसाद ही है । इस प्रकरण में सबसे खास बात यह है कि तमिलनाडू की ‘द्रमुक’-सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने देइवनयगम की उस किताब की प्रशंसात्मक भूमिका लिखी है , जबकि उसके ही एक राज्य-मंत्री ने उसका विमोचन किया था ।
इस बौद्धिक अपहरण-अत्याचार को मिले उस राजनीतिक संरक्षण से प्रोत्साहित हो कर देइवनयगम दक्षिण भारतीय लोगों को ‘द्रविड’ और उनके धर्म (शैव-हिन्दू) को ‘ईसाइयत के निकट , किन्तु सनातन धर्म से पृथक’ प्रतिपादित करने के चर्च-प्रायोजित अभियान के तहत ‘ड्रेवेडियन रिलिजन’ नामक पत्रिका भी प्रकाशित करता है । उस पत्रिका में लगातार यह दावा किया जाता रहा है कि “सन- ५२ में भारत आये सेन्ट टॉमस द्वारा ईसाइयत का प्रचार करने के औजार के रूप में संस्कृत का उदय हुआ और वेदों की रचना भी ईसाई-शिक्षाओं से ही ईसा-बाद की दूसरी शताब्दी में हुई है, जिन्हें धूर्त ब्राह्मणों ने हथिया लिया” । वह यह भी प्रचारित करता है कि “ ब्राह्मण, संस्कृत और वेदान्त , ये तीनों बुरी शक्तियां हैं और इन्हें तमिल समाज के पुनर्शुद्धिकरण के लिए नष्ट कर दिये जाने की जरूरत है ।” देइवनयगम की ऐसी बौद्धिक-साहित्यिक गतिविधियों के लिए अमेरिका-सम्पोषित एक द्रविडवादी संस्था ने उसे ‘जन-विकास के आध्यात्मिक नेता’ नामक पुरस्कार से सम्मानित किया हुआ है ।
‘गॉड’ के इकलौते पुत्र (ईसा) और ‘ज्ञान’ की इकलौती किताब (बाइबिल) को पूरी दुनिया पर स्थापित करने के बावत पश्चिम के श्वेतरंगी झण्डाबरदारों ने हमारे प्राचीन शास्त्रों-ग्रन्थों का अपहरण कर लेने हेतु भारतीय वाङ्ग्मय के भीतर घुसने का सुराक तमिल साहित्य में सेंध मार कर बनाया है । और , उनने वेदों का उल्टा-पुल्टा अनुवाद करने वाले षड्यंत्रकारी- मैक्समूलर के ‘द्रविडवाद’ को इस सेंधमारी के लिए औजार के तौर पर इस्तेमाल किया है । द्रविडवाद नामक औजार से इन बौद्धिक व्याभिचारियों ने दक्षिण-भारतीय तमिल-साहित्य को पूरी तरह से अपने घेरे में जकड लिया है और भारत के इस भू-भाग को शेष भारत से अलग-थलग कर ‘द्रविडलैण्ड’ अथवा ‘द्रविडस्तान’ बना डालने के बावत अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इसका सरंजाम खडा कर रखा है । राजीव मलहोत्रा ने अपनी पुस्तक- ‘ब्रेकिंग इण्डिया’ में इस प्रकरण का विस्तार से खुलासा किया है , जिसके अनुसार देइवनयगम की एक संस्था- ‘दी ड्रैविडियन स्पिरिचुअल मुवमेण्ट’ ने ‘दी इंस्टिच्युट ऑफ एशियन स्टडिज’ और ‘न्यूयॉर्क क्रिश्चियन तमिल टेम्पल’ के सहयोग से वर्ष २००५ में एक अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रम आयोजित किया था, जिसका विषय था- ‘भारत में सेण्ट टॉमस के उदय से ले कर वास्को-डी-गामा तक की प्रारम्भिक ईसाइयत का इतिहास’। न्यूयार्क में आयोजित इस विषय पर वह पहला अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन था और तब से यह लगातार आयोजित होता रहा है । उस सम्मेलन में ‘भारत में आरम्भिक ईसाइयत का इतिहास- एक सर्वेक्षण’ नामक एक शोध-पत्र प्रस्तुत किया गया, जिसमें यह उल्लेख है कि “…कृष्ण की कथाओं ने ईसाई-स्रोतों से ही व्यापक रुप से सामग्री ली है ।” उक्त शोध-पत्र में श्रीकृष्ण और ईसा मसीह में खींच-तान कर अनेक समानतायें स्थापित करते हुए उन्हें सूचीबद्ध किया गया है और यह भी दावा किया गया है कि कृष्ण-पूजा युरोप से बहुत देर बाद भारत में आई है । इसी तरह उस सम्मेलन में भाग लेने गए एक ईसाई-प्रचारक डा० जे० डेविड भास्करदोस और उनकी पत्नी हेफ्जिबा जेसुदासन द्वारा प्रस्तुत किए गए शोध-पत्र में यह दावा किया गया है कि कम्बन की रामायण और तुलसी की रामायण, दोनों पर ईसाइयत का प्रभाव है , जबकि ‘पूर्व मीमांसा’ पर बाइबिल के ‘ओल्ड टेस्टामेण्ट’ का और ‘उतर मीमांसा’ पर बाइबिल के ‘न्यू टेस्टामेण्ट’ का । इसी तरह उक्त सम्मेलन में भारतीय वाङ्ग्मय के अन्य ग्रन्थों-शास्त्रों को अपहरण अथवा विकृतिकरण का निशाना बनाते हुए उनमें ईसाइयत का प्रक्षेपण करने वाले अनेक तथाकथित शोध-पत्र भी प्रस्तुत किए गए थे, जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार हैं – शिवज्ञानपोतम में त्रयी सिद्धान्त’ , ‘ईसाइयत और सिद्ध साहित्य’ , ‘ईसाइयत और ब्रह्मसूत्र’ , ‘ईसाइयत और वेदान्त पर एक टिप्पणी’ , ‘ईसाइयत और षड्दर्शन’ , ‘प्रजापति और जिसस’ , ‘बाइबिल और तमिल भक्ति-काव्य में विवाह के रुपक’ , ‘गंगा नदी और पाप का क्षमा-सिद्धांत’ आदि । इस फेहरिस्त को देख कर आप कह सकते हैं कि किसी विचार-दर्शन ग्रन्थ या शास्त्र से ईसाइयत की तुलना करना अथवा दोनों में समानता स्थापित करना कोई अनुचित काम नहीं है, बल्कि यह तो वैचारिक-सांस्कृतिक आदान-प्रदान की दृष्टि से अच्छा ही है । मेरा भी ऐसा ही मानना है ; किन्तु यह तब उचित और अच्छा हो सकता है, जब ऐसा करने वालों की नीयत साफ और उद्देश्य पवित्र हो ।
मगर यहां तो ‘गॉड के इकलौते पुत्र’ एवं ‘ज्ञान की इकलौती किताब’ को सारी दुनिया पर स्थापित करने की साम्राज्यवादी औपनिवेशिक योजना क्रियान्वित करने में लगे पश्चिम के गोरे बुद्धिबाजों की नीयत एकदम काली है, तो जाहिर है मैक्समूलर द्वारा वेदों के किए गए कुत्सित-प्रायोजित अनुवाद से आविष्कृत ‘आर्य-द्रविडवाद’ नामक औजर के सहारे अन्य भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों की समीक्षा करने और इनसे ईसाइयत की संगति बैठाने का इनका उद्देश्य पवित्र हो ही नहीं सकता । तभी तो असम प्रदेश में कुछ वर्ष पहले वहां की एक चर्च के पादरियों को एक प्राचीन भारतीय ग्रन्थ का अपहरण करने की उनकी गतिविधियों का खुलासा हो जाने पर स्थानीय आक्रोशित हिन्दुओं से माफी मांगनी पडी थी, जिसकी खबर ०८ जनवरी १९९९ को ‘दी हिन्दू’ अखबार में प्रकाशित हुई थी । उस खबर के अनुसार चर्च ने वैष्णव सम्प्रदाय के पवित्र धर्मग्रन्थ- ‘नामघोष’ का एक ऐसा अनुवाद प्रकाशित कराया था, जिसमें उसके मूल भजनों में से ‘राम’ व ‘कृष्ण’ के नाम हटा कर उनके स्थान पर ‘ईसा मसीह’ नाम प्रक्षेपित कर दिया था । ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण हैं ।
दर-असल ये लोग समस्त सनातन धर्म के तत्व-दर्शन व भारत के इतिहास व साहित्य सब के मूल में ईसा व ईसाइयत को जबरिया घुसाने-पिरोने तथा आर्य-द्रविड के आधार पर उतर बनाम दक्षिण की विभाजक दरार पैदा कर भारतीय राष्ट्रीयता के विघटन और भारत के सम्पूर्ण ईसाइकरण की अपनी गुप्त परियोजना के तहत ऐसा करने में लगे हैं । इनकी रणनीति है- समस्त भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों का अपहरण या इनका विकृतिकरण अथवा इन दोनों ही कार्यक्रमों का अलग-अलग मोर्चों पर एक साथ क्रियान्वयन । चूंकि ये लोग थोडी जल्दीबाजी में भी हैं , इस कारण अपहरण और विकृतिकरण के दोनों मोर्चों पर ये एक साथ काम कर रहे हैं । इनकी इस रणनीति को यहां प्रस्तुत एक उदाहरण से समझा जा सकता है ।
ये लोग एक ओर जहां रामायण को ईसाइयत की शिक्षाओं का ग्रन्थ प्रमाणित करने के प्रयत्न में लगे हैं , वहीं दूसरी ओर इनका दूसरा खेमा इसे एक नस्लवादी ग्रन्थ प्रचारित करने में भी लगा हुआ है । पोर्टलैण्ड स्टेट युनिवर्सिटी की एक प्राध्यापिका- डॉ० कैरेनकर इस हेतु एक वेबसाइट का संचालन करती हैं, जिसमें रामायण के राम को ‘आर्य-आक्रमणकारी’ तथा रावण को ‘द्रविडों का आक्रान्त राजा’ और हनुमान-जामवन्त आदि बानरों को ‘दक्षिण भारत की आम जनता’ निरुपित करते हुए यह बताया जाता रहा है कि उतर भारत वाले श्रेष्ठ-नस्लीय लोग दक्षिण-भारत के आम लोगों को साधारण मनुष्य भी नहीं , बल्कि बुरे बन्दरों के रुप में अपमानित करते रहे हैं , इस तरह से रामायण नस्लीय घृणा फैलाने वाला ग्रन्थ है, आदि, आदि ।
‘गॉड के इकलौते पुत्र’ और ‘ज्ञान की इकलौती किताब’ को ही सनातनधर्मी भारत के समस्त ज्ञान-विज्ञान, भाषा-साहित्य, इतिहास-विरासत का मूल सिद्ध करने के बावत पश्चिम के इन शिक्षाविदों-लेखकों-विचारकों का यह अभियान यहीं तक सीमित नहीं है , बल्कि हमारी जडों में और भी नीचे जा कर संस्कृत भाषा तक को अपने घेरे में ले कर वे लोग अब यह दावा करने लगे हैं कि यह तो ग्रीक और लैटिन से निकली हुई भाषा है , जिसे ब्राह्मणों ने हथिया लिया । भारतीय शास्त्रों-ग्रन्थों के अपहरण-विकृतिकरण की ऐसी-ऐसी अटकलों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ऐतिहासिक , साहित्यिक , व अकादमिक आकार दिया जा रहा है , जिसके बावत भारत और भारत के बाहर युरोप-अमेरिका में चर्च-मिशनरियों से सम्बद्ध अनेक शोध-संस्थान और विश्वविद्यालय एक प्रकार से अनुबंधित हैं , जो बे-सिर-पैर की ऐसी बातों पर आधिकारिक पुष्टि की मुहर लगाते रहते हैं । हालांकि पश्चिम में पुरानी पीढी के शिक्षाविदों व भाषाविदों, यथा- विलियम जोन्स व मैक्समूलर आदि ने १८वीं-१९वीं सदी में ही संस्कृत को ईसा-पूर्व की और भारतीय आर्यों की भाषा होने पर मुहर लगा रखी है ; किन्तु ईसाइयत के वर्तमान झण्डाबरदारों का बौद्धिक महकमा अब यह कह रहा है कि- नहीं, इनके उन पूर्वजों से गलती हो गई थी , जो उननें ऐसा कहा । दर-असल संस्कृत को अब द्रविडों की भाषा बताने वाले इन साजिशकर्ताओं की रणनीति है- दो कदम आगे और दो कदम पीछे चलना ।