धार्मिक स्वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग का षड्यंत्रकारी हठयोग



दुनिया भर में धार्मिक स्वतंत्रता की निगरानी का स्वघोषित ठेका चला रहे अमेरिका की एक अर्द्धन्यायिक संस्था ‘युएस कमिशन फॉर इण्टरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम’ ने अमेरिकी सरकार को प्रेषित अपनी वार्षिक रिपोर्ट में भारत के विरुद्ध नकारात्मक टिप्पणी करते हुए इसे ‘खास चिन्ता वाले देशों’ (कंट्रीज ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न- ‘सीपीसी’) के साथ सूचीबद्ध करने की सिफारिश की है । उसने इस बावत यह तर्क दिया है कि भारत में भी अल्पसंख्यक आबादी के धार्मिक हितों का हनन हो रहा है , इसलिए इसे भी उस सूची में शामिल किया जाना चाहिए । उक्त सूची में नौ देशों के नाम पहले से दर्ज हैं जो इस प्रकार हैं- चीन, म्यांमार , एरिट्रिया, ईरान, उतरी कोरिया, पाकिस्तान, सऊदी अरब, तजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान । इस वर्ष रुस, नाईजीरिया, सिरिया और वियतनाम के साथ भारत सहित पांच देशों के नाम दर्ज करने की सिफारिश की गई है । गौरतलब है कि इन १४ देशों की इस सूची में कम से कम भारत एक ऐसा देश जरूर है, जहां किसी भी अल्पसंख्यक समाज के किसी भी समुदाय के किसी भी धार्मिक या मजहबी-रिलीजियस हित का मामूली हनन भी नहीं हो रहा है ; बल्कि सच तो यह है कि यहां बहुसंख्यक समाज के धार्मिक हितों की कीमत पर अल्पसंख्य समुदायों को पोषित-संरक्षित किया जाता रहा है । बावजूद इसके ‘युसीआईआरएफ’ ने भारत को भी पाकिस्तान ईरान सिरिया कोरिया वियतनाम और चीन के साथ शामिल करने की हिमाकत की है, तो यह उसकी षड्यत्रकारी मंशा को ही जाहिर करता है, जिससे यह प्रमाणित होता है कि अमेरिकी सरकार की वह संस्था धार्मिक स्वतंत्रता की निगरानी के नाम पर एक प्रकार का गुप्त एजेण्डा चलाती रही है । इसे समझने के लिए सिर्फ एक ही उदाहरण काफी है कि भारत-विभाजन के वक्त पाकिस्तान में तकरीबन ढाई करोड हिन्दू रह गए थे और लगभग उतने ही मुसलमान भी भारत में रह गये थे । आज पाकिस्तान में वहां के शासन-संरक्षित मुस्लिम आतंक से पीडित-प्रताडित-धर्मांतरित-विस्थापित होते रहने के कारण हिन्दूओं की आबादी घट कर बीस लाख (दस प्रतिशत) से भी कम हो गई है ; जबकि भारत में शासन से तुष्टिकृत-उपकृत होते रहने के कारण मुसलमानों की आबादी बढ कर पैंतीस करोड से भी ज्यादा (लगभग १५ गुणा) हो गई है । ऐसे में कोई अंधा व्यक्ति भी यही कह सकता है कि अल्पसंख्यक समुदाय के हितों का हनन पाकिस्तान में हो रहा है और पोषण तो भारत में ही हो रहा है । लेकिन आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि उक्त अमेरिकी आयोग में कोई भी सदस्य अंधा नहीं है, सभी आंख वाले ही हैं ; तब भी उसने भारत को भी पाकिस्तान आदि के साथ ही सूचीबद्ध किया हुआ है, तो इसका निहितार्थ एक षड्यंत्र से प्रेरित है ।
मेरी एक पुस्तक ‘भारत के विरुद्ध पश्चिम के बौद्धिक षड्यंत्र’ में “अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम, अर्थात बे-रोक-टोक धर्मान्तरण” शीर्षक से एक अध्याय संकलित है , जिसमें अनेक प्रामाणिक तथ्यों से मैंने यह सिद्ध किया हुआ है कि यह अमेरिकी अधिनियम वस्तुतः ‘वेटिकन सिटी’ के वैश्विक विस्तारवाद को क्रियान्वित करने वाले एक षड्यंत्र का नाम है । ‘युएस कमिशन फॉर इण्टरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम’ उसी अमेरिकी अधिनियम को दुनिया भर में लागू करने-कराने वाला अर्द्ध-न्यायिक अमेरिकी आयोग है, जो भारत राष्ट्र के विघटन, सनातन धर्म के उन्मूलन व हिन्दू-समाज के मजहबीकरण का ईसाई-मिशनरी हथकण्डा और गैर-मजहबी देशों के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप का अमेरिकी फण्डा मात्र है । ‘युएस कमिशन फॉर इण्टरनेशनल रिलीजियस फ्रीडम’ पहले भी भारत के विरुद्ध इसी तरह की पूर्वाग्रही रिपोर्ट जारी करता रहा है और उसकी रिपोर्ट के आधार पर अमेरिकी विदेश मंत्रालय भी गाहे-बगाहे घुडकियां देते रहता है । भारत में भाजपा-मोदी की सरकार कायम होने के बाद से इस आयोग ने भारत के विरुद्ध ऐसे दुष्प्रचार का एक अभियान सा चला रखा है । इस अमेरिकी आयोग द्वारा पिछले दिनों जारी वार्षिक रिपोर्ट में दावा किया गया कि “भारत सरकार ने ‘पूरे भारत में धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन करते हुए, विशेष रूप से मुसलमानों के लिए राष्ट्रीय स्तर की नीतियों का निर्माण करने के लिए अपने संसदीय बहुमत का इस्तेमाल किया है ।” इस आरोप को सिद्ध करने के लिए उक्त वार्षिक रिपोर्ट में नागरिकता (संशोधन) अधिनियम-२०१९ का उल्लेख किया गया है, जो अफगानिस्तान, बांग्लादेश व पाकिस्तान में मजहबी भेदभाव से पीडित होने के कारण वहां से विस्थापित होते रहने वाले गैर-मुस्लिम प्रवासियों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने वाला है । उक्त रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि “सरकारी अधिकारियों के बयानों के अनुसार, यह कानून सूचीबद्ध गैर-मुस्लिम धार्मिक समुदायों के लिए देशव्यापी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) से सुरक्षा प्रदान करने के लिए है, जिसके बाद समुदाय-विशेष के लोगों को हिरासत में ले कर वापस भेज दिया जाएगा और संभावित रूप से उन्हें राष्ट्रविहीन बना दिया जाएगा ।” रिपोर्ट में आयोग ने यह भी उल्लेख किया कि “ अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा में सरकार समर्थित तत्वों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । केन्द्र सरकार सहित विभिन्न राज्य-सरकारों ने भी धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ उत्पीड़न और हिंसा के राष्ट्रव्यापी अभियानों को जारी रखने की अनुमति दे रखी है और उनके खिलाफ हिंसा करने व नफरत फैलाने की छूट दे दी है ।”. इन्हीं फर्जी तथ्यों के आधार पर इस रिपोर्ट में यूएससीआईआरएफ ने भारत को ‘सीपीसी’ में नामित करने को कहा हुआ है ।
उल्लेखनीय है इससे पहले भी इस अमेरिकी आयोग ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा था कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत में गोरक्षा के बहाने हिंदू-संगठनों द्वारा गैर-हिन्दू समुदाय-सम्प्रदाय के लोगों पर हमले किये जाते रहे हैं । उसने वर्ष- २०१७ में ऐसी ८२२ हिंसक घटनाओं में १११ लोगों के मारे जाने और २३८४ लोगों के जख्मी हो जाने का दावा करते हुए यह कह गया था कि वर्ष २०१५ से २०१७ के बीच भारत में साम्प्रदायिक घटनाएं ९% बढ़ गईं हैं । यूएससीआईआरएफ पूर्व की अपनी रिपोर्टों में भारत के विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा गो-वध प्रतिबंधित कर दिए जाने और गो-वध पर ०६ महीने से ले कर ०२ साल की सजा व जुर्माने का कानूनी प्रावधान किये जाने पर आपत्ति जताते हुए उससे मुस्लिम-हितों के हनन तथा अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के लोगों के शोषण क दावा किया था ।
इस अमेरिकी आयोग की ने पिछले साल की अपनी रिपोर्ट में जम्मू-कश्मीर के कठुआ में ०८ साल की मुस्लिम लड़की के साथ हुए कथित दुष्कर्म एवं उसकी हत्या के मामले का तो जिक्र किया था, जिसके आधार पर यह भी कहा गया है कि अल्पसंख्यकों के खिलाफ अपराधों में पुलिस व सरकारी कर्मचारी भी शामिल थे और उस वारदात का मकसद मुस्लिम समुदाय को इलाके से भगाना था ; किन्तु मुस्लिम सम्प्रदाय के लोगों द्वारा हिन्दू-लडकियों-महिलाओं का बलात्कार किये जाने की चर्चा तक नहीं है । रिपोर्ट में भाजपा के कुछ नेताओं पर अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ भड़काऊ भाषण देने का आरोप लगाया गया है, जबकि ओवैसी जैसे मुस्लिम नेताओं के जहरीले भाषणों को नजरंदाज कर दिया गया है । रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि कट्टरपंथी हिंदू समूहों की तरफ से अल्पसंख्यक समुदायों, खासतौर पर मुस्लिमों के खिलाफ लगातार हिंसक हमले किए गए और धर्म-परिवर्तन के विरुद्ध हिंसा को अंजाम दिया गया । रिपोर्ट में कतिपय शैक्षणिक संस्थानों के अल्पसंख्यक दर्जे को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने के सरकारी फैसले को भी अनुचित बताया गया है और इलाहाबाद शहर का नाम ‘प्रयागराज’ कर दिए जाने की भी आलोचना की गई है ।
मालूम हो कि अमेरिकी शासन का विदेश मंत्रालय वहां के जिस कानून के तहत भारत के आंतरिक मामलों में इस तरह से हस्तक्षेप कर रहा है , उसका एक मजहबी निहितार्थ है, जिसके तहत वह कहने को तो धार्मिक स्वतंत्रता की वकालत करता है ; किन्तु सच यह है कि प्रकारान्तर में वह पैगम्बरवाद से मुक्त सनातनधर्मियों के धर्मान्तरण की हिमाकत करता है और इस हेतु ‘ईसाई-क्रूसेड’ व ‘इस्लामी जेहाद’ को सहयोग प्रदान करता है, क्योंकि दोनों पैगम्बरवादी मजहब है, जबकि हिन्दू-समाज मजहबी नहीं है । यही कारण है कि पाकिस्तान-बांगलादेश एवं कश्मीर घाटी में जहां शासनिक सहयोग से मुसलमानों द्वारा हिन्दुओं का धर्मान्तरण-उन्मूलन किया जाता रहा है, वहां इसे धार्मिक स्वतंत्रता का हनन दिखाई देता ही नहीं है । ‘अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम’ वस्तुतः वेटिकन सिटी (ईसाई मजहब के वैश्विक-प्रधान का सम्प्रभुता-सम्पन्न राज्य) से निर्देशित विभिन्न चर्च मिशनरी धर्मान्तरणकारी संस्थाओं यथा- वर्ल्ड विजन, क्रिश्चियनियटी टूडे इण्टरनेशनल, क्रिश्चियन कम्युनिटी डेवलपमेण्ट एशोसिएसन, वर्ल्ड इवैंजेलिकल एलायन्स, फ्रीडम हाउस, नेशनल बैपटिस्ट कॉन्वेंसन आदि के द्वारा अमेरिकी राष्ट्रपति- बिल क्लिंटन पर दिए गए दबाव से सन १९९८ में पारित हुआ एक ऐसा कानून है, जो अघोषित रुप से दुनिया भर के तमाम देशों में धार्मिक स्वतंत्रता की निगरानी के बावत प्रयुक्त होता है । दुनिया के विभिन्न देशों में धार्मिक आजादी की निगरानी के लिए अमेरिकी शासन अपने इस कानून के तहत विदेश मंत्रालय में सर्वोच्च स्तर के राजदूत और मंत्रिमण्डल व ह्वाइट हाउस को सलाह देने हेतु विशेष सलाहकार नियुक्त कर रखा है । इतना ही नहीं , धार्मिक स्वतंत्रता-विषयक मामलों की सुनवाई के लिए उसने ‘युएस कमिशन फॉर रिलीजियस फ्रीडम’ नामक एक ऐसा आयोग भी स्थापित कर रखा है, जिसका कार्य-क्षेत्र सम्पूर्ण विश्व है ; किन्तु पैगम्बरवाद से मुक्त मूर्तिपूजक हिन्दू-समाज व सनातनधर्मी भारत राष्ट्र इसके मुख्य निशाने पर है , जिसके लिए मूर्तिभंजक इस्लाम को वह सहयोगी उपकरण के तौर पर संरक्षित करता है । अमेरिकी शासन के इस कानून की आड में चर्च-मिशनरी-संगठन तथा ऑल इण्डिया क्रिश्चियन काउंसिल , फ्रीडम हाउस व दलित फ्रीडम नेटवर्क आदि एन०जी०ओ० अपने भारतीय अभिकर्ताओं-कार्यकर्ताओं एवं भाडे के बुद्धिजीवियों-मीडियाकर्मियों के माध्यम से हिन्दुओं को आक्रामक-हिंसक प्रचारित करते हुए उनकी तथाकथित आक्रामकता व हिंसा के कारण मुसलमानों-ईसाइयों की कथित प्रताडना-सम्बन्धी मामले रच-गढ कर उक्त अमेरिकी आयोग में दर्ज कराते रहते हैं, जो विभिन्न गवाहों, साक्ष्यों व सूचनाओं के आधार पर उन मामलों की सुनवाई कर अमेरिकी राष्टपति को हस्तक्षेप करने एवं तदनुसार वैदेशिक नीतियों के निर्धारण-क्रियान्वयन की सिफारिसें पेश करता है ।
उल्लेखनीय है कि ‘य०एस०कमिशन फॉर आई०आर०एफ०’ द्वारा सन २००० में ह्वाइट हाउस को ऐसी ही रिपोर्ट पेश की गई थी , जिसमें धर्मान्तरित बंगाली हिन्दुओं के प्रत्यावर्तन (धर्मवापसी) को नहीं रोक पाने पर पश्चिम बंगाल की माकपाई सरकार के विरुद्ध शिकायतें दर्ज की गई थीं और उन ईसाइयों की धर्मवापसी को ‘अंधकार में पुनः-प्रवेश’ कहते हुए उस पर चिन्ता जाहिर की गई थी । इसी तरह से वर्ष २००१ की रिपोर्ट में इसने त्रिपुरा आदि पूर्वांचलीय राज्यों में जहां हिंसक ईसाई-संगठन नेशनल लिबरेशन फ्रण्ट ऑफ त्रिपुरा के आतंक से हिन्दुओं का सुनियोजित सफाया होता जा रहा है, वहां ‘हिन्दुओं के प्रभुत्व सम्पन्न होने’ और ‘ईसाइयों के निर्धन व उपेक्षित होने’ को उक्त ईसाई-हिंसा का कारण बताते हुए उसे न्यायोचित भी ठहरा दियाअ था । गौरतलब है कि सन २००४ में धार्मिक स्वतंत्रता-विषयक इसी तरह की रिपोर्ट के परिणामस्वरुप अमेरिकी कांग्रेस के चार-सदस्यीय प्रतिनिधिमण्डल ने भारत का दौरा किया था, जिसके अध्यक्ष जोजेफ पिट्स ने तब धर्मान्तरण रोकने सम्बन्धी भारतीय कानूनों की आलोचना करते हुए यह कहा था कि इनसे मानवाधिकारों व धार्मिक स्वतंत्रताओं का हनन होता है । इतना ही नहीं , सन २००९ में तो इस अमेरिकी आयोग ने भारत को धार्मिक स्वतंत्रता-सम्बन्धी विशेष चिन्ताजनक देशों की सूची में अफगानिस्तान के साथ शामिल कर रखा था । अल्पसंख्यकों के तुष्टिकरण को ले कर बदनाम रही कांग्रेस के शासनकाल में इस अमेरिकी अधिनियम का जब यह रवैया था, तब अब तथाकथित हिन्दू-निष्ठ भाजपा के शासन में ‘धार्मिक स्वतंत्रता’ पर अमेरिकी विदेश मंत्रालय की उपरोक्त रिपोर्ट का भारत-विरोधी होना स्वाभाविक है ।
अमेरिकी शासन का अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक स्वतंत्रता अधिनियम दरअसल सनातन धर्म से हिन्दुओं के जुडे रहने को ‘गुलामी’ व धर्मान्तरित हो कर ईसाई या मुस्लिम बन जाने को ‘मुक्ति’ मानता है और अपनी इसी मान्यता के तहत धर्मान्तरण की सुविधाओं-बाधाओं के आधार पर उसका विदेश मंत्रालय हर वर्ष धार्मिक आजादी-विषयक रिपोर्ट पेश करता । जाहिर है, धार्मिक स्वतंत्रता की अमेरिकी परिभाषा के भीतर ईसाई-विस्तारवाद की मजहबी सोच समाहित है और गैर-मजहबियों का धर्मान्तरण ही उसकी नीति व नीयत है ; जबकि धर्मान्तरण में ‘रोक-टोक’ ही धार्मिक स्वतंत्रता का हनन है ।
• ; जुन’ २०१९