हिन्दी साहित्य का पैगाम - ‘संतन को का सीकरी सो काम’
अखिल विश्व गायत्री परिवार के प्रमुख और देव संस्कृति विश्वविद्यालय, हरिद्वार के कुलाधिपति- डा० प्रणव पण्ड्या को भारत के राष्ट्रपति ने राज्य-सभा का सदस्य मनोनीत किया , किन्तु उन्होंने सदस्यता ग्रहण करने से विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया । यह खबर बहुत छोटी सी है और पुरानी हो चुकी है ; किन्तु इसके पीछे का संदेश बहुत बडा है , जितना बडा है उतना ही पुराना भी और पुरातन से दूर होती जा रही अधुनातन पिढी के लिए नित-नूतन भी । इस चिर-पुरातन व नित-नूतन संदेश का प्रेरणा-स्रोत है उत्तर भारत का संत-साहित्य और साहित्यकार-संत कुम्भनदास का जीवन-दर्शन ।
भारत के तत्कालीन बादशाह अकबर द्वारा राज-दरबार की नियमित सदस्यता का प्रस्ताव किए जाने पर संत कवि कुम्भन दास ने उसकी राजधानी- फतेहपुर सिकरी जाने से इंकार करते हुए कहा और लिखा था- “संतन को का सिकरी सो काम ,आवत जात पनहियाँ टूटी , बिसरि गयो हरि नाम , जिनको मुख देखे दुःख उपजत , तिनको करिबे परी सलाम !” अर्थात “ संतों को राजदरबार-राजधानी से क्या काम है, कुछ नहीं ; राजधानी आते-जाते पांव के जूते टूट जाएंगे तथा भगवान के नाम भूल जाएंगे, जीवन के मूल उद्देश्य- ईश्वर की भक्ति से विमुख हो जाएंगे और जिनका मुंह देखने से दुःख उपजता है , उन्हें प्रणाम करना पडेगा ।”
कुम्भनदास ऐसे सद्गृहस्थ संत कवि थे, जो सदैव ही अर्थाभाव में रहते थे, इस कारण उन्हें राज्याश्रय की जरूरत भी थी । और , उधर मुगलिया शासन के किसी प्रस्ताव को आमतौर पर कोई इंकार नहीं कर सकता था, क्योंकि उसका स्वरूप प्रजातांत्रिक नहीं, निरंकुश राजतांत्रिक था । बावजूद इसके कुम्भनदास ने राजधानी-राजदरबार को तुच्छ-निरर्थक, अवांछित-अनापेक्षित बताते हुए राजा के आमंत्रण को, उसके प्रस्ताव को सिरे से खारिज कर दिया । तब वह बहुत बडी बात थी । क्योंकि, अभावग्रस्तता के बावजूद कुम्भनदास ने शासन-तंत्र के प्रति निर्लिप्तता और उस पर धर्म-तंत्र की सर्वोच्चता की भारतीय परम्परा का पूरी निष्ठा व निर्भीकता के साथ निर्वाह किया ; बादशाह को यह भी कह दिया कि “राज-सत्ता पर ऐसे लोग आरूढ हैं , जिनका मुख देखने से दुःख उपजता है ,…..उन्हें प्रणाम करना,…..उन सभा-सदों के साथ बैठना कतई स्वीकार नहीं है ।” तब यह बहुत बडी बात थी ।
और , अब यह बहुत बडी बात है कि आर्ष-साहित्य के महान अध्येता और युग-परिवर्तनकारी-क्रांतिधर्मी विविध-विषयक विपुल साहित्य के रचयिता पण्डित श्रीराम शर्मा आचार्य की विरासत के प्रमुख व ‘देव संस्कृति विश्वविद्यालय’ के कुलाधिपति डा० पण्ड्या ने राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री द्वारा राज्य-सभा का सदस्य मनोनीत किये जाने पर उन्हें संत-कवि कुम्भनदास की उसी उक्ति का हवाला देकर उसे चरितार्थ करते हुए सदस्यता ग्रहण करने से साफ-साफ इंकार कर ‘शासन-तंत्र’ से ‘धर्म-संत’ के निर्लिप्त रहने की भारतीय परम्परा को पुनर्स्थापित कर दिया ।
इस प्रसंग में यह बताना आवश्यक प्रतीत होता है कि पं० मदन मोहन मालवीय से यज्ञोपवित संस्कार ग्रहण कर गायत्री-साधना और स्वतंत्रता-आन्दोलन दोनों में साथ-साथ सक्रिय रहे श्रीराम शर्मा ने महात्मा गांधी से विमर्श के बाद राजनीति से दरकिनार हो अपने अदृश्य मार्गदर्शक सद्गुरू के निर्देशानुसार पश्चिमी भौतिकता-यांत्रिकता की विनाशकारी आंधी के विरूद्ध भारतीय आध्यात्मिकता का झंझावात खडा कर देने हेतु कठोर तप से अलौकिक सृजन शक्ति हासिल कर व्यक्ति-परिवार-समाज-राष्ट्र की समस्त अवांछनीयताओं के उन्मूलनार्थ ‘अखण्ड ज्योति’ मासिक पत्रिका-प्रकाशन के साथ ‘युग निर्माण योजना’ नाम से विचार-क्रांति अभियान का सूत्रपात किया था । इस बावत समाज को ‘हम बदलेंगे-युग बदलेगा’ और ‘हम सुधरेंगे-युग सुधरेगा’ नामक मंत्र देकर समग्र भारतीय वाङ्ग्मय का हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत करने के साथ-साथ मानव-जीवन के सभी क्षेत्रों, सभी पहलुओं, सभी समस्याओं पर विवेक-सम्पन्न समाधान-परक तीन हजार से भी अधिक पुस्तकें रच कर उन्हें सर्व-सुलभ कराया । भारत राष्ट्र की अस्मिता के रक्षण-संवर्द्धन एवं आध्यात्मिक उन्नयन के निमित्त उन्होंने अपनी जमीन और पत्नी के गहने-जेवर तक बेच कर समाज में व्याप्त मूढ मान्यताओं, अंधविश्वासों , पाखण्डों को ध्वस्त करते हुए अध्यात्म की वैज्ञानिकता से जन-जन को अवगत कराने हेतु अत्याधुनिक वैज्ञानिक उपकरणों से लैश ‘ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान’ खडा किया , वेदाध्ययन से वंचित शुद्रों व स्त्रियों को सीधे गायत्री-साधना से जोड राष्ट्र के पुनर्निर्माण हेतु प्राचीन भारत की समस्त ऋषि-परम्पराओं को पुनर्स्थापित किया तथा वेद-विदित संस्कार-विधानों को पुनर्जीवित-प्रचलित किया और समाज के संवेदनशील लोगों को सुसंस्कारित ब्राह्मण-पुरोहित-परिव्राजक बनाने हेतु अपने आश्रम-‘शांति कुंज’, हरिद्वार में सर्वांगीण प्रशिक्षण-प्रबोधन से युक्त टकसाल खडा किया । वे जिन दिनों युग-निर्माण के ये सारे सरंजाम खडा करने में लगे हुए थे , उन दिनों अपने देश की राजनीति में स्खलन और राजनेताओं के चारित्रिक पतन का दौर शुरू हो चुका था ।
डा० प्रणव पण्ड्या उन्हीं दिनों एम०बी०बी०एस० की अपनी पढाई के दौरान इस ऋषि-सत्ता के सम्पर्क में आये थे । आचार्य श्री ने परमहंस की दृष्टि से उनके भीतर के विवेकानद को परख उन पर ऐसा प्रभाव डाला कि एम०डी० और कार्डियोलाजिस्ट बनने के बाद वे न केवल यू०एस० मेडिकल सर्विस का प्रस्ताव ठुकरा कर बाद में ‘भेल’ को भी इस्तीफा दे दिए , बल्कि स्वयं को ही ‘युग निर्माण योजना’ के लिए समर्पित कर दिए और विविध व्याधियों से पीडित विश्व भर की विभिन्न मानवी सभ्यताओं का भारतीय अध्यात्म की अमोघ औषधि से उपचार करने में प्रस्तुत हो गए । आचार्यजी ने उन्हें अध्यात्म की विविध क्रियाओं के वैज्ञानिक अन्वेषण-विश्लेषण हेतु ‘ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान’ का निदेशक बना कर यूरोपीय पदार्थ विज्ञान के साथ भारतीय अध्यात्म विज्ञान के सामन्जस्य से समस्त विश्व-वसुधा के कल्याणार्थ विदेशों में भी युग निर्माण योजना को विस्तार देने का जो गुरुतर दायित्व सौंपा , उसका निर्वाह ये इतनी सिद्धता से करते रहे हैं कि आज ८० देशों में श्रीराम शर्मा-रचित ‘गायत्री-महाविज्ञान’ की गंगा प्रवाहित हो रही है । इस दौरान डा० पण्ड्या भारत सरकार और राज्य सरकार के अधिकारियों के लिए शांति कुंज में आयोजित होते रहने वाले ‘व्यक्तित्व विकास व नैतिक शिक्षा प्रशिक्षण कार्यक्रम’ के प्रभारी भी रहे ।
डा० पण्ड्या आधुनिक युग के विश्वामित्र और व्यास कहे जाने वाले ऐसे संत-ऋषि श्री राम शर्मा के उत्तराधिकारी हैं, जो ब्रिटिश जमाने में क्रांतिकारी व सत्याग्रही रहे होने के बावजूद स्वतंत्रता-सेनानी का पेंशन लेने से भी इंकार कर दिये थे । व्यापार बन गई राजनीति को उन्होंने त्याज्य माना और राष्ट्रीय चरित्र-निर्माण-कार्य को युग-धर्म । ‘अखण्ड ज्योति’ में उन्होंने एक लम्बा सम्पादकीय लिखा था- “ हम राजनीति में भाग क्यों नहीं लेते ?” ब्रिटिश जमाने में किशोर वय से ही श्रीराम मत नाम से क्रांतिकारी साहित्य-सृजन करने वाले श्रीराम शर्मा अपने उस लेख में प्रतिपादित अपनी इस अवधारणा पर आजीवन दृढ रहे कि धर्म-तंत्र से लोक-जागरण करना देश में सबसे महत्व का काम है , क्योंकि इससे लोकतंत्र और शासनतंत्र दोनों का परिष्कार होगा । धर्मतंत्र को शासनतंत्र का मार्गदर्शक होना चाहिए , अनुचर नहीं । “ ब्राह्मण जागें - साधु चेतें ” नामक पुस्तक में उन्होंने ब्राह्मणों (बुद्धिजीवियों) तथा साधु-महात्माओं-संत-संयासियों को पद-प्रतिष्ठा-प्रचार-व्यापार के लिए राजनीति के इर्द-गिर्द मंडराने की उनकी प्रवृति त्यागने और औसत भारतीय स्तर का जीवन जीते हुए समाज को राष्ट्रीय संस्कारों से युक्त बनाने के प्रति निष्ठा अपनाने के लिए प्रेरित किया है ।
यह संत श्रीराम शर्मा के साहित्य का ही प्रभाव है कि एम०बी०बी०एस०-एम०डी० की स्वर्ण-जडित डिग्रियों से सम्पन्न डा० प्रणव पण्ड्या इससे पहले अपनी युवावस्था में ही ‘यूएस मेडिकल सर्विस’ (अमेरिका) के अत्यंत आकर्षक-लाभदायक प्रस्ताव को ठुकरा चुके हैं और भारत हेवी इंजीनियरिंग लिमिटेड (भेल) के चिकित्सा पदाधिकारी की नौकरी छोड कर भारतीय संस्कृति व अध्यात्म की धर्मध्वजा धारण कर आधुनिक व्यास-विश्वामित्र की ‘युग निर्माण योजना’ के तहत प्राचीन भारतीय संस्कृति को वैश्विक संस्कृति बनाने का बीडा उठाये हुए हैं । इस बावत हाई-प्रोफाइल शिक्षा-पेशा तथा तडक-भडक-युक्त पद-पैसा का मोह छोड सन्यस्त जीवन शैली अपना कर देश-दुनिया के लोगों को गायत्री मंत्र, जप , तप , ध्यान , योग , संस्कार , कर्मकाण्ड की वैज्ञानिकता व भारतीय वाङ्ग्मय की उपादेयता से अवगत कराने के लिए एक ओर एक शोध संस्थान को निर्देशित कर रहे हैं, तो दूसरी ओर संस्कृति-पुत्रों-दूतों की फौज खडी करने के लिए एक विश्वविद्यालय भी चला रहे हैं ।
आज थोडी सी समाज-सेवा कर लेने के बाद अधिकतर लोग जहां उसका पुरस्कार हासिल करने के लिए राजनीतिक जोड-तोड में लगे रहते हैं, करोडों रुपये खरच कर के भी सियासी पद हासिल करने को प्रवृत दिखते हैं , वहीं राष्ट्रपति द्वारा स्वतः ही राज्य-सभा का सदस्य मनोनीत किये जाने के बावजूद डा० प्रणव पण्ड्या द्वारा उसे ठुकरा दिया जाना सचमुच ‘वरेण्य’ है । आज देश के तमाम बुद्धिजीवियों , साहित्यकारों ; विशेष कर वामपंथी झण्डाबरदारों को, जिनने सत्ता के आकर्षण में फंस कर भारतीय संस्कृति व साहित्य को बहुत क्षति पहुंचायी है , उन सबको उतर भारतीय संत कवि कुम्भनदास की इस उक्ति को आत्मसात करना चाहिए , जिसे डा० पण्ड्या ने चरितार्थ कर दिया है- “ संतन को का सीकरी सो काम ।”
उत्तर भारत का संत-साहित्य वास्तव में समस्त भारत का और असली भारत का प्रतिबिम्ब है । प्राचीन भारत की स्थापित अवधारणाओं-मान्यताओं-परम्पराओं की अभिव्यक्ति के प्रवाह को सतत चिरन्तन बनाये रखने में संत-साहित्य व संत-साहित्यकार ही समर्थ हैं । समर्थ ही नहीं , सदैव सक्रिय भी रहे हैं । समय-समय पर यह सामर्थ्य और सक्रियता कबीर , सूर , तुलसी मीरा के रूप में प्रकट होती रही है , तो कुम्भनदास जैसे सामान्य अचर्चित कवि के मुख से भी अभिव्यक्त होती रही है । उत्तर भारतीय संत-साहित्य का यह उत्स अब तक इस कारण कायम है , क्योंकि यह अभारतीय विदेशी प्रभाव से अब तक प्रायः मुक्त है और इस कारण इसकी जडें भारत की मिट्टी से गहरी जुडी हुई हैं ।
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