कठघरे में संविधान !?

कठघरे में संविधान !?


हमारे देश भारत का संविधान ‘भारतीय संविधान’ नहीं है , यह ‘अभारतीय संविधान’ है । मतलब यह कि जिसे भारतीय संविधान कहा जा रहा है , इसका निर्माण हम भारत के लोगों ने अथवा हमारे पूर्वजों ने हमारी इच्छानुसार नहीं किया है । वैसे कहने-कहाने देखने-दिखाने को तो इस संविधान की मूल प्रति पर देश के २८४ लोगों के हस्ताक्षर हैं , किन्तु इसका मतलब यह कतई नहीं हुआ कि यह संविधान भारत का है और भारतीय है , क्योंकि वास्तविकता यह है कि उन लोगों को भारत की ओर से अधिकृत किया ही नहीं गया था कि वे किसी संविधान पर हस्ताक्षर कर उसे भारत के संविधान के तौर पर आत्मार्पित कर लें । इस दृष्टि से यह अवैध , फर्जी और अनैतिक है ।
मालूम हो कि इस संविधान को तैयार करने के लिए कैबिनेट मिशन प्लान के तहत ३८९ सदस्यों की एक "संविधान सभा" का गठन किया गया था , जिसमे ८९ सदस्य देशी रियासतों के प्रमुखों द्ववारा मनोनीत किये गए तथा अन्य ३०० सदस्यों का चुनाव ब्रिटेन-शासित प्रान्तों की विधानसभा के सदस्यों द्वारा किया गया था । इन ब्रिटिश प्रान्तों की विधानसभा के सदस्यों का चुनाव, ‘भारत शासन अधिनियम १९३५’ के तहत सिमित मताधिकार से , मात्र १५% नागरिको द्वारा वर्ष १९४५ में किया गया था , जिसमे ८५% नागरिको को मतदान के अधिकार से वंचित रखा गया था ।
संविधान सभा सर्वप्रभुत्ता-संपन्न और भारतीय जनता की सर्वानुमति से उत्त्पन्न नहीं थी । ब्रिटिश संसद के कैबिनेट मिशन प्लान १९४६ की शर्तो के दायरे में रह कर काम करना और संविधान के तय मसौदे पर ब्रिटिश सरकार से अनुमति प्राप्त करना उस सभा की बाध्यता थी । उस संविधान-सभा के ही एक सदस्य दामोदर स्वरूप सेठ ने उक्त सभा की अध्यक्षीय पीठ को संबोधित करते हुए कहा था कि “ यह सभा भारत के मात्र १५ % लोगों का प्रतिनिधित्व कर सकती है , जिन्होंने प्रान्तीय विधानसभाओं के चयन-गठन में भाग लिया है । इस संविधान-सभा के सदस्यों का चुनाव प्रत्यक्ष ढंग से हुआ ही नहीं है । ऐसी स्थिति में जब देश के ८५ % लोगों प्रतिनिधित्व न हो , उनकी यहां कोई आवाज ही न हो तब ऐसे इस सभा को समस्त भारत का संविधान बनने का अधिकार है , यह मान लेना मेरी राय में गलत है ।”
उल्लेखनीय है कि १३ दिसंबर १९४६ को संविधान की प्रस्तावना पेश की गई थी, जिसे २२ जनवरी १९४७ को संविधान-सभा ने स्वीकार किया । सभा की उस बैठक में कुल २१४ सदस्य ही उपस्थित थे, अर्थात ३८९ सदस्यों वाली संविधान-सभा में कुल ५५% सदस्यों ने ही संविधान की प्रस्तावना को स्वीकार किया , जिसे संविधान की आधारशिला माना जाता है । यहां ध्यान देने की बात है कि २२ जनवरी १९४७ को, संविधान की प्रस्तावना को जिस दार्शनिक आधारशिला के तौर पर स्वीकार किया गया था उसे अखंड भारत के संघीय संविधान के परिप्रेक्ष्य में बनाया गया था वह भी इस आशय से कि इसे ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति अनिवार्य थी क्योंकि २२ जनवरी १९४७ को भारत पर ब्रिटिश क्राऊन से ही शासित था । १५ अगस्त १९४७ के बाद से लेकर २६ जनवरी १९५० तक भी भारत का शासनिक प्रमुख गवर्नर जनरल ही हुआ करता था ब्रिटिश क्राऊन के प्रति वफादारी की शपथ लिया हुआ था न कि भारतीय जनता के प्रति । इस संविधान के अनुसार राष्ट्रपति का पद सृजित-प्रस्थापित होने से पूर्व लार्ड माऊण्ट बैटन पहला गवर्नर जनरल था , जबकि चक्रवर्ती राजगोपालाचारी दूसरे । मालूम हो कि ब्रिटिश सरकार के निर्देशानुसार तत्कालीन ब्रिटिश वायसराय बावेल ने बी०एन० राव नामक एक आई०सी०एस० अधिकारी को संविधान-सभा का परामर्शदाता नियुक्त कर रखा था , जिसने ब्रिटिश योजना के तहत संविधान का प्रारूप तैयार किया और संविधान-सभा ने उसी पर थोडा-बहुत वाद-विवाद कर उसे चुपचाप स्वीकार कर लिया । उस "संविधान सभा" के गठन में भी आज़ाद भारत के लोगो की न तो कोई भूमिका थी और न ही को योगदान । भारत के लोगो ने उक्त संविधान सभा को न तो चुना ही था और न ही उसे अधिकृत किया था कि वे लोग हम भारत के लोगो के लिए संविधान लिख । .सत्य तो यह है कि भारत के लोगो से इस संविधान की पुष्टि भी नहीं करवायी गयी । बल्कि संविधान में ही धारा ३८४ सृजित कर , उसी के तहत इसे हम भारत के लोगों पर थोप दिया गया है , जो अनुचित , अवैध और अनाधिकृत है । इस तरह से अनाधिकृत लोगों द्वारा तैयार किये गए इस संविधान के तहत कार्यरत सभी संवैधानिक संस्थाएं अनुचित , अवैध और अनाधिकृत हैं जैसे --- संसद , विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका आदि जिसे बनाने में भारत के लोगो की सहमति नहीं ली गयी है ।
गौरतलब है कि उच्चतम न्यायलय की १३ जजों की संविधान पीठ ने वर्ष १९७३ में “ केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य ” के मामले में भारतीय संविधान के बारे में कहा है कि भारतीय संविधान, स्वदेशी उपज नहीं है और भारतीय संविधान का स्त्रोत भारत नहीं है , तो ऐसी परिस्थिति में विधायिका , कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसी संवैधानिक संस्थाए भी तो स्वदेशी उपज नहीं हैं और न ही भारत के लोग इन संवैधानिक संस्थाओ के स्रोत हैं । उपरोक्त वाद में उच्चतम न्यायलय के न्यायाधीशों ने इस ताथाकथित भारतीय संविधान को ही इसके स्रोत और इसकी वैधानिकता के बावत कठघरे में खडा करते हुए निम्नलिखित बातें कही हैं, जो न्यायालय के दस्तावेजों में आज भी सुरक्षित हैं-

१- भारतीय संविधान स्वदेशी उपज नहीं है - जस्टिस पोलेकर

२- भले ही हमें बुरा लगे , परन्तु वस्तु-स्थिति यही है कि संविधान सभा को संविधान लिखने का अधिकार भारत के लोगो ने नहीं दिया था, बल्कि ब्रिटिश संसद ने दिया था । संविधान सभा के सदस्य न तो समस्त भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करते थे और न ही भारत के लोगो ने उनको यह अधिकार दिया था कि वे भारत के लिए संविधान लिखें - जस्टिस बेग

३- यह सर्व विदित है कि संविधान की प्रस्तावना में किया गया वादा ऐतिहासिक सत्य नहीं है . अधिक से अधिक सिर्फ यह कहा जा सकता है कि संविधान लिखने वाले संविधान सभा के सदस्यों को मात्र २८.५ % लोगो ने अपने परोक्षीय मतदान से चुना था और ऐसा कौन है , जो उन्ही २८.५% लोगों को ही ‘भारत के लोग’ मान लेगा - जस्टिस मैथ्यू

४- संविधान को लिखने में भारत के लोगो की न तो कोई भूमिका थी और न ही कोई योगदान - जस्टिस जगमोहन रेड्डी
स्पष्ट है कि हमारे संविधान की आत्मा भारत पर ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन को कायम रखने की सुविधा व अनुकूलता के हिसाब ब्रिटिश पार्लियामेण्ट द्वारा समय-समय पर पारित कानूनों यथा- इण्डिया काऊंसिल ऐक्ट-१८६१ तथा भारत शासन अधिनियम-१९३५ और कैबिनेट मिशन प्लान- १९४६ एवं इण्डियन इंडिपेण्डेन्स ऐक्ट- १९४७ का संकलन मात्र है जबकि इसका शरीर अमेरिका , ब्रिटेन , रूस , फ्रांस, जर्मनी आदि देशों के संविधान से लिए गए विभिन्न अंगों-अवयवों का समुच्चय है । यह कहीं से भी भारतीय नहीं है । इस संविधान के आधार-स्तम्भ पर कायम हमारे ‘गणतंत्र’ का जन-मन से कोई सम्बन्ध-सरोकार नहीं है , जबकि हमारे राष्ट्र-गान में जन-मन के बीच में है ‘गण’ । अर्थात यह कहने को है भारतीय संविधान , किन्तु वास्तव में यह पूरी तरह से अभारतीय है । इसे अधिक से अधिक इण्डिया नामक ब्रिटिश डोमिनियन का संविधान कहा जा सकता है , भारतवर्ष का तो कतई नहीं । अहमदाबाद में प्राचीन भारतीय रीति से हेमचन्द्राचार्य संस्कृत पाठशाला नाम का एक गुरूकुल चलाने वाले प्रखर शिक्षाविद और ‘विनियोग परिवार’ मुम्बई के बयोवृद्ध चिन्तक अरविन्द भाई पारेख की मानें , तो यह संविधान भारत के विरुद्ध अंग्रेजों तथा ईसाई मिशनरियों के षड्यंत्रों का पुलिंदा मात्र है । अल्पसंख्यकों (ईसाइयों) के हित-रक्षण के नाम पर इस संविधान में अनेक ऐसे प्रावधान किए गए हैं , जिनके कारण हमारा गणतंत्र हमारे राष्ट्र को हमारी सांस्कृतिक जडों से काटने का यंत्र बन गया है ।
मालूम हो कि इस संविधान के बावत ०२ सितम्बर १९५३ को विपक्षी सदस्यों द्वारा पूछे गए एक प्रश्न का उत्तर देते हुए भीमराव अम्बेदकर ( जो संविधान सभा की प्रारूपण समिति के अध्यक्ष थे ) ने कहा था कि “ उस समय मैं भाडे का टट्टू था , मुझे जो कुछ करने को कहा गया , वह मैंने अपनी इच्छा के विरूद्ध जाकर किया ” । इतना ही नहीं, तत्कालीन गृहमंत्री कैलाशनाथ काट्जु द्वारा यह कहने पर कि आपने ही इस संविधान का प्रारूप तैयार किया है , अम्बेदकर ने भरी संसद में उत्तेजित होते हुए कहा- “अध्यक्ष महोदय ! मेरे मित्र कहते हैं कि मैंने संविधान बनाया , किन्तु मैं यह कहने को बिल्कुल तैयर हूं कि इसे जलाने वालों में मैं पहला व्यक्ति होउंगा, क्योंकि मैं इसे बिल्कुल नहीं चाहता , यह किसी के हित में नहीं है ”।
• जनवरी’ २०१७