कांग्रेस रानी की दुर्दशा पर दासी वामपंथियों का विधवा-विलाप

कांग्रेस रानी की दुर्दशा पर दासी वामपंथियों का विधवा-विलाप

१४ अगस्त सन १९४७ की आधी रात को दिल्ली में हुआ सत्ता-हस्तान्तण वास्तव में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रतिनिधि लार्ड माउण्ट बैटन और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष जवाहर लाल नेहरू के बीच हुई एक दुरभिसंधि का परिणाम एवं एक सियासी साजिस का क्रियान्वयन था । भारत पर अंग्रेजों की सत्ता को कायम रखने और उसका उनकी ही तरह उन्हीं की रीति-नीति , विधि-पद्धति से संचालन करने के बावत वह दुरभिसंधि हुई, जिसके तहत भारतीय जनता के बीच ‘आजादी’ के नाम से ‘गुलामी’ कायम रखने के लिए रची गई सियासी साजिस । इस तथ्य और सत्य के प्रमाण इतिहास में बिखरे पडे हैं । किन्तु उस तथाकथित आजादी के बाद कई दशकों तक देश की केन्द्रीय सता पर कांग्रेस और नेहरू-इंदिरा के आसीन रहने की वजह से झूठा इतिहास ही पढाया जाता रहा और देश में ऐसा वातावरण कायम कर दिया गया कि जनता ‘सच’ से बेखबर हो लोकतंत्र की मण्डी का बिकाऊ माल बन कर रह गई । अब सत्ता से कांग्रेस के दूर चले जाने तथा उसकी पुनर्वापसी की कोई सम्भावना भी निकट नहीं दिखने की दुर्दशा में गुलामी कायम रखने वाली उस दुरभिसंधि व सियासी साजिस का पर्दाफाश हो जाने की आशंका से घबराये हुए षड्यंत्रकारियों ने जनता को पुनः भ्रमित करने के लिए अपने जेएनयु-डीएनयु जैसे बौद्धिक-अकादमिक संस्थानों-मंचों के मार्फत एक ‘नयी तरह की भ्रामक आजादी’ का नया खेल शुरू कर दिया है । ताकि, असली आजादी और सच्चे स्वराज की मांग न उठने पाये ।
मालूम हो कि १५अगस्त १९४७ को जिस आजादी की घोषणा हुई थी, वो सत्ता-हस्तान्तरण की संधि मात्र थी । २६ जनवरी १९३० को कांग्रेस के लाहौर-अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का जो प्रस्ताव पारित हुआ था और कांग्रेस के जीवन-दाता महात्मा गांधी ने ‘हिन्द-स्वराज’ का दर्शन प्रस्तुत कर देशवासियों को अंग्रेजी-मुक्त भारत का जो सपना दिखाया था, उन सबसे उलट है आधी रात को घोषित यह आजादी । दरअसल सन १९४५ के बाद से ही महात्मा गांधी के हाथ से निकल चुकी थी कांग्रेस और महात्मा की कृपा से कांग्रेस का अध्यक्ष बन जाने के बाद उन्हें अंगुठा दिखा कर ब्रिटिश हुक्मरानों से हाथ मिला चुके थे नेहरू । अंग्रेजों को तो द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध निर्मित प्रतिकूल हालातों के बीच सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज के भारत में घुस आने और भारतीय नौसेना में विद्रोह की चिंगारी सुलग उठने के कारण लाचार हो कर यथाशीघ्र भारत छोड वापस जाने का निर्णय लेना पडा था । किन्तु वे भारत को किसी न किसी प्रकार से ब्रिटिश गुलामी के अधीन रखे रहने के लिए लालायित भी थे ।
ऐसे में ब्रिटिश क्राऊन के रणनीतिकारों ने योजना बनायी कि भारत को ‘पूर्ण-स्वराज’ के बजाय ‘डोमिनियन स्टेट’ का दर्जा देते हुए अपने किसी विश्वस्त के हाथों सत्ता-हस्तांतरित कर उसे ही आजादी घोषित कर-करा के गुलामी का रूप बदल दिया जाए , ताकि जनाक्रोश-युद्ध-बगावत की स्थिति शांत हो जाए और अपनी सेना-सम्पति की सुरक्षित वापसी भी सुनिश्चित हो जाए । इस हेतु विश्वस्त व्यक्ति की ब्रिटिश तलाश भारत के उस नेता पर आकर ठहर गई, जो आजाद हिन्द फौज के विरूद्ध यह कहते हुए देश भर में जन-सभायें करता फिर रहा था कि “ सुभाष अगर बंगाल में घुसेगा तो मैं अपने दोनों हाथों में तलवार लेकर उसे खदेडते हुए उसका मुकाबला करुंगा ” । अर्थात जवाहर लाल नेहरू, जिनकी अंग्रेज-परस्ती और ब्रिटेन-भक्ति के परीक्षण हेतु ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा उन्हें सिंगापुर बुलाया गया था । नेहरू की वह सिंगापुर यात्रा वास्तव में ब्रिटिश वायसराय की ओर से प्रायोजित थी , किन्तु प्रचारित यह कराया कि आजाद हिन्द फौज के प्रति सद्भावना कायम करने के लिए कांग्रेस ने आयोजित की है यात्रा । वहां ब्रिटिश सेना के एशियाई कमाण्डर इन चिफ लुई माउण्ट बैटन से नेहरू की अगुवाई करायी गई और उन्हें राजकीय अतिथि का सम्मान दिया गया । आजाद हिन्द फौज के शहीद सिपाहियों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के घोषित-प्रचारित कार्यक्रम को धत्ता बताते हुए नेहरू माऊण्ट बैटन व उसकी कमसीन बिवी एडविना के साथ शाही रंगमहल में शराब-कवाब व गोमांस-भक्षण का लुत्फ उठाते हुए भारत पर अंग्रेजी राज की दूसरी पारी के संचालन की दुरभिसंधि का जाल बुनते रहे ।
उस दुरभिसंधि की पूरी पटकथा तैयार हो जाने के बाद ही ब्रिटिश पार्लियामेण्ट का तीन सदस्यीय कैबिनेट मिशन भारत आया । फिर भारत का संविधान लिखे जाने का स्वांग शुरू हुआ । कहने-दिखाने को संविधान-सभा और उसकी समितियों-उपसमितियों का गठन भी हुआ, जिसके अध्यक्ष क्रमशः राजेन्द्र प्रसाद और भीमराव अम्बेदकर बनाए गए ; किन्तु ब्रिटिश शासन द्वारा नियुक्त संवैधानिक सलाहकार- बी०एन० राव नामक अंग्रेज-परस्त आई०पी०एस० अधिकारी के निर्देशन में ही सब कुछ हुआ । आनन-फानन में बेवेल को हटा कर उसी माऊण्ट बैटन को वायसराय बना कर सत्ता-हस्तान्तरण का प्रहसन सम्पादित करने के लिए भारत भेज दिया गया । १४ अगस्त की अंधेरी आधी रात को माऊण्ट्बैटन ने पूर्व की उसी दुरभिसंधि के तहत नेहरू-कांग्रेस को ब्रिटिश कामनवेल्थ के अधीन डोमीनियन स्टेट की सत्ता हस्तान्तरित कर उसे ही ‘आजादी’ घोषित कर-करा दिया । कांग्रेस की तो स्थापना ही ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन की सुविधा के लिए हुई थी । सो उसने तथाकथित संविधान-सभा द्वारा पहले से ही चले आ रहे अंग्रेजी अधिनियमों के पुलिन्दे में विभिन्न देशों के नमक-मिर्च-मशाला की छौंक लगा कर प्रस्तुत किए गए संविधान को ही आजाद भारत का संविधान घोषित करते हुए भारत के लोगों से राय-शुमारी किये बिना ‘भारत के लोगों’ की ओर से समस्त भारत पर थोप दिया और उसका तोहमत अम्बेदकर के मत्थे मढ दिया ।
इस तरह सन १८५७ से शुरू हुई ब्रिटिश औपनिवेशिक साम्राज्य-विरोधी राष्ट्रवादी संघर्ष का अपहरण कर उसे ‘पूर्ण स्वराज्य’ के बजाय ‘ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल के अधीन विभाजित अधिराज्य’ में तब्दील करते हुए कांग्रेस और नेहरू ने एक सियासी साजिश को अंजाम दे कर न केवल शहीदों के सपनों का कतल कर दिया , बल्कि महात्मा के हिन्द-स्वराज को भी दफन कर दिया । महात्मा गांधी ने जब इस झुठी आजादी के जश्न का बहिष्कार करते हुए कांग्रेस को भंग करने की सिफारिस कर दी तब किन हालातों में किन कारणों से उनकी हत्या कर-करा दी गई, इसकी साफ-सुथरी जांच तक नहीं होने दी गई और कांग्रेसियों द्वारा उसके लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व सावरकर को आरोपित किया जाता रहा । इतना ही नहीं , नेहरू-कांग्रेस ने ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी संघर्ष के निर्णायक महानायक सुभाष चंद्र बोस को गुमनामी के अंधेरे में डाल कर इतिहास का भी अपहरण कर लिया । नहरू-कांग्रेस ने भारतीय राष्ट्रवाद के विरूद्ध ब्रिटिश साम्राज्यवादी औपनिवेशिक एजेण्डे को लागू करने के लिए कम्युनिष्ट महकमे का उसी तरह उपयोग किया , जिस तरह से ब्रिटिश हुक्मरानों द्वारा कांग्रेस का उपयोग किया जाता रहा था । उन्होंने देश के तमाम शैक्षणिक-बौद्धिक-अकादमिक संस्थानों में चुन-चुन कर भारतीयता-राष्ट्रीयता-विरोधी धुर वामपंथी बुद्धिबाजों को स्थापित कर उन्हें सत्ता की रोटी के टुकडों से उपकृत करते रहने की परिपाटी कायम कर दी, जो भाजपा और नरेन्द्र मोदी के सत्तासीन होने तक कायम ही रही । इस दौरान कांग्रेस की दासी बनी वामपंथी पार्टियों से सम्बद्ध उन बुद्धिबाजों द्वारा न केवल देश की सच्ची आजादी विषयक जनाकांक्षाओं पर झुठी आजादी के भ्रामक आवरण चढाये जाते रहे और ऐतिहासिक सच को खारिज व राजनीतिक झूठ को स्थापित किया जाता रहा , बल्कि भारतीय राष्ट्रीयता की जडों में भी मट्ठा डाला जाता रहा । कांग्रेस के सत्ता में बने रहने पर उस सत्ता की रोटी से भरण-पोषण हासिल करते हुए भारत-विरोधी आसमानी-सुल्तानी तीर चलाते रहने वाले वामपंथी वुद्धिबाजों द्वारा स्वतंत्रता-समानता , धर्मनिरपेक्षता-साम्प्रदायिकता आदि राष्ट्रीय मुद्दों-मसलों को ‘चोर-चोर मौसेरे भाइयों’ के लाभ-हानि की दृष्टि से परिभाषित किया जाता रहा । किन्तु , इन ‘बुद्धि-बहादुरों’ के हाथों चलाये जाते रहे बेतुके तीरों तथा इनके रचे-गढे हुए राजनीतिक-बौद्धिक प्रतिमानों को पिछले संसदीय चुनाव के दौरान जनता द्वारा एकदम से नकार दिए जाने के कारण सत्ता से कांग्रेस के बेदखल हो जाने और भाजपा-मोदी के सत्तासीन हो आने से ये लोग स्वयं को अनाथ समझने लगे हैं । इनकी यह समझ वाजीब ही है । आश्रयदाता राजा-रानी के संकट-ग्रस्त होने पर उसके दास-दासियों का विलाप करना वफादारी का तकाजा भी है । फिर इन्हें इनकी बौद्धिकता की दुकान बंद हो जाने की चिन्ता भी तो साल रही है , इस कारण ये अब किसिम-किसिम की आजादी के नारे लगा रहे हैं और तरह-तरह के जुमले उछाल रहे हैं । यही कारण है कि कांग्रेस व कम्युनिष्ट पार्टियों को सदा ही चुभते रहने वाले भाजपा-मोदी के सत्तासीन होने के बाद प्रायोजित असहिष्णुता की माप-तौल व पुरस्कार-सम्मान वापसी जैसे तमाम प्रहसनों से लेकर जे एन यु व डी यु में भारत की बर्बादी व अभिव्यक्ति की आजादी सम्बन्धी समस्त भाषणों की पोस्टमार्टम-रिपोर्ट में सत्ता भोगते रहने वाली कांग्रेस रानी की दुर्दशा पर उसकी दासियों के विधवा-विलाप ही दिखाई-सुनाई पडते हैं ।
• मार्च’ २०१७